प्रभु की भक्ति में जाति-पाँति का भेदभाव न कभी था और न कभी हो सकता हैं।
रैदास ने स्वयं कहा हैं―
जाति भी ओछी, करम भी ओछा।
ओछा कि सब हमारा।।
नीचे से प्रभु ऊच कियो है।
कह रेदास चमारा।।
भगवान को अपना सर्वस्व मानने और जानने वाले व्यक्ति के सौभाग्य का वर्णन नही हो सकता। भगवान के भक्त अच्युत गौत्रीय होते हैं, उनकी चरण-रज-वन्दना के लिए ऋद्धि-सिद्धि प्रतीक्षा किया करती है। संत रैदास भगवान के परम भक्त थे, उनकी वाणी ने भागवती मर्यादा का संरक्षण कर मानवता में आध्यात्मिक समता-एकता की भावना स्थापित की। वे सन्त कबीर के अग्रज थे, भगवान की कृपा ने उन्हें उच्च-से-उच्च पद प्रदान किया। रैदास को प्रभु की भक्ति ने नीच से ऊँच कर दिया। आचार्य रामानन्द के बारह प्रधान शिष्यों में उनकी गणना होती हैं।
सन्त रैदास मध्यकालीन भारत की बहुत बड़ी ऐतिहासिक आवश्यकता थे। विदेशी शासक की धर्मान्धता से उन्होंने भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक धारा का संरक्षण किया। विक्रम की चौदहवी और पन्द्रहवी शती के अधिकांश भाग को उन्होंने अपनी साधना से धन्य किया था। उन्होंने राजनैतिक निराशा में ईश्वर-विश्वास की परिपुष्टि की। परमात्मा की भक्ति से जन-कल्याण की साधना की। 'सन्तन में रैदास संत है'– कबीर की वाणी नितान्त सच है।
संत रैदास का जन्म काशी में हुआ था। वे चमार कुल में उत्पन्न हुए थे। उनके पिता का नाम रघ्घू था और माता का नाम घुरबिनिया था। दोनों के संस्कार बड़े शुभ थे। वे परम भगवद्भक्त थे, इसलिए रैदास को उत्पन्न करने का श्रेय उन्ही को मिल सका। शिशु रैदास ने जन्म लेते ही माता का दूध पीना बन्द कर दिया। लोग आश्चर्य में पड़ गये। स्वामी रामानंद रघ्घू के घर आये। उन्होंने बालक को देखा, दूध पीने का आदेश दिया। ऐसा कहा जाता है कि पहले जन्म में भी रैदास रामानंद के शिष्य थे और ब्राह्मण थे, गुरु की सेवा में कुछ भूल हो जाने से उन्हें शुद्र योनि में जन्म लेना पड़ा। रामानंद स्वामी ने भागवत पुत्र उत्पन्न होने के कारण रघ्घू दंपत्ति की सराहना की, उनके पवित्र सौभाग्य का बखान किया।
रैदास का पालन-पोषण बड़ी सावधानी से होने लगा। उनमे दैवी गुण अपने आप विकसित होने लगे। बाल्यकाल से ही वे साधु-संतों के प्रति आकृष्ट होने लगे, किसी संत के आगमन की बात सुनकर वे आनंद से नाच उठते थे। सन्तो की सेवा को परम सौभाग्य मानते थे। माता-पिता की आज्ञा-पालन और प्रसन्नता-वर्द्धन में वे किसी प्रकार की कमी नही आने देते थे। उनकी रुचि देखकर माता-पिता को चिंता होने लगी कि कही रैदास बाल्यावस्था में घर त्याग कर सन्यास न ले ले। उन्होंने रैदास को विवाह-बंधन में जकड़ने का निश्चय कर लिया।
रैदास का काम जूते सीना और भजन करना था। वे जूता सीते जाते थे और मस्ती से गाते रहते थे कि 'हे जीवात्मा यदि तुम गोपाल का गुण नही गाओगे तो तुम को वास्तविक सुख कभी नही मिलेगा। हरि की शरण जाने पर सत्यज्ञान का बोध होगा।' जो राम के रंग में रंग जाता है उसे दूसरा रंग अच्छा नही लगता। वे जो कुछ भी जूते सी कर कमाते थे उसमे से अधिकांश साधु-संतों की सेवा में लगा देते थे। रैदास को यह विश्वास हो गया था कि हरि को छोड़कर जो दूसरे की आशा करता है वह निस्संदेह यम के राज्य में जाता है। रात-दिन ईश्वर की कृपा की अनुभूति करना ही उनका जीवन बन गया था। वे अपने चंचल मन को भगवान के अचल चरण में बांध कर अभय हो गये थे। यौवन के प्रथम कक्ष में प्रवेश करते ही रैदास का विवाह कर दिया गया। उनकी स्त्री परम सती और साध्वी थी, पति की प्रत्येक रुचि की पूर्ति में ही उसे अपने दाम्पत्य की पूरी तृप्ति का अनुभव होता था। भगवान के भजन में लगे पति की प्रत्येक सुविधा का ध्यान रखना ही उसका पवित्र नित्य कर्म बन गया था, इसका परिणाम यह हुआ कि भगवद्भक्ति के मार्ग में विवाह सहायक सिद्ध हुआ, गृहस्थाश्रम रैदास दंपत्ति के लिए बंधन न बन सका। दोनों अपने कर्तव्य-पालन में सावधान थे। रैदास के माता-पिता बहुत प्रसन्न थे। घर मे सुख-संपत्ति की कमी नही थी पर संतो की सेवा में अधिक धन रैदास द्वारा व्यय होते देखकर उनके माता-पिता चिढ़ गये। यद्यपि रैदास गृहस्थी में अनासक्त थे, जल में कमल की तरह रहते थे तो भी उनके माता-पिता को यह बात अच्छी नही लगी कि वे मेहनत से पैसा कमाए और रैदास उसे घर बैठे साधु-संत की सेवा में उड़ा दे। उन्होंने रैदास दंपत्ति को घर से बाहर निकाल दिया। रैदास अपने घर के पीछे ही एक वृक्ष के नीचे झोपड़ी डाल कर अपनी पत्नी के साथ रहने लगे। उन्होंने पिता और माता का तनिक भी विरोध नही किया और हरि-भजन में लग गये।
धीरे-धीरे उनकी ख्याति दूर-दूर तक संत मण्डली में पहुंच गई। वे पतित पावन हरि की भक्ति करने लगे। वे एकांत में बैठ कर अपनी रसना को संबोधित कर कहा करते थे कि हे रसना, तुम राम-नाम का जप करो, इससे यम के बंधन से निसंदेह मुक्ति मिलेगी। वे रुपये-पैसे के अभाव की तनिक भी चिंता नही करते थे। सन्त रैदास परमात्मा के पूर्ण शरणागत हो गये। उन्होंने प्रभु के पादपद्मों से चिर-संबंध जोड़ लिया। उनके निवासस्थान पर संतो का समागम होने लगा। कबीर आदि उनके बड़े प्रशंसक थे। रामानंद के शिष्यों में उनके लिये विशेष आदर का भाव था, श्रद्धा और भक्ति थी। संत रैदास की साधना पर संत गनी मामूर की वाणी का भी प्रभाव था। वे ऐसे नगर के अधिवासी हो गये जिसमे चिंता का नाम ही नही था।
उनकी उक्ति है–
बेगमपुर शहर का नाम, फिकर अदेस नाहिं तेहिं ग्राम।
कह 'रैदास' खलास चमारा, जो उस शहर सो मीत हमारा।।
वे निश्चिंत होकर संतो के संग में रहने को धन्य जीवन समझते थे। यथाशक्ति अपने आराध्य निर्गुण राम की पूजा में व्यस्त रहते थे, कहा करते थे कि प्रभु आपकी पूजा किस प्रकार करूँ, अनूप फल-फूल नही मिलते हैं, गाय के बछड़े ने दूध जूठा कर दिया है, ऐसी स्थिति में मन ही आपकी पूजा के लिए धूप दीप है। वे सदा रामरस की मादकता में मत्त रहते थे। उनका विश्वास था कि उनके राम उन्हें भवसागर से अवश्य पार उतार देंगे।
रैदास को माता-पिता से एक कोड़ी भी नही मिलती थी। जो कुछ दिनभर में कमा लेते थे उसी से संतोष करते थे। वैष्णवो और संतो को बिना मूल्य लिए ही जूते पहना दिया करते थे। कभी-कभी रात में फाका करना पड़ता था। एक छोटी-सी झोपड़ी ही उनकी संपत्ति थी, उसमे भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित थी, स्वयं तो वे पेड़ के नीचे पत्नी के साथ रहते थे।
एक दिन वे पेड़ के नीचे बैठ कर जूते सील रहे थे। सत्संग हो रहा था। बहुत से संत एकत्र थे। सन्त रैदास ने साधुवेष में अपरिचित व्यक्ति को आते देखा, उन्होंने अतिथि की चरणधूलि मस्तक पर चढ़ा ली, भोजन कराया, यथाशक्ति सेवा की। अतिथि ने जाते समय उन्हें पारसमणि देनी चाही पर सन्त रैदास ने मणि के प्रति तनिक भी उत्सुकता नही दिखायी, साधु ने लोहे को सोना बनाकर प्रभावित करना चाहा पर रैदास का परम धन तो राम-नाम था। वे पारस रखना नही चाहते थे, अतिथि ने पारस झोपड़ी में खोस दिया, कहा कि यदि आवश्यकता पड़े तो इसका उपयोग कर लीजियेगा। जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति चाहने वाले रैदास का मन पारस में नही उलझ सका। उनके नयन तो सदा प्रभु को निहारा करते थे, भयानक दुःख आने पर वे हरि नाम का स्मरण करते थे, पारस का उन्हें सपने में भी ध्यान न रहा। कुछ दिनों बाद साधुवेष वाले अतिथि ने आकर उनसे पारस के संबंध में बात की। रैदास ने कहा कि मुझे तो इतना भी ध्यान न था कि झोपड़ी में पारस है, अच्छा हुआ, आप आ गये। उसे ले जाइये। अतिथि ने पारस लेकर बात-की-बात में अपनी राह पकड़ ली, रैदास को विस्मय हुआ कि वह कहाँ चला गया। उन्हें क्या पता था कि स्वयं मायापति भगवान ही उनकी परख करने चल पड़े थे पर लाभ की बात यह थी कि उनकी माया पराजित हो गयी और संत रैदास ने अपने उपास्य देव का दर्शन कर लिया।
परमात्मा की लीला विचित्र है, वे अपने भक्तों और सेवको की रक्षा में विशेष तत्पर रहते है, उन्हें इन तत्परता में आनंद मिलता है। नित्य प्रातःकाल पूजा की पिटारी में उन्हें पांच स्वर्ण मुद्रायें मिलने लगी। रैदास ने आत्मनिवेदन की भाषा मे कहा कि प्रभु अपनी माया से मेरी रक्षा कीजिये, मैं तो केवल आपके नाम का वनजारा हूँ, मुझे कुछ नही चाहिये। भगवान ने स्वप्न में आदेश दिया कि मैं तुम्हारे निर्मल हृदय की बात जानता हूँ, मुझे ज्ञात है कि तुम्हे कुछ नही चाहिए पर मेरी रीझ और प्रसन्नता इसी में है। संत रैदास ने प्रभु से प्राप्त धन का सदुपयोग मन्दिर-निर्माण में किया, मन्दिर में भगवान की पूजा के लिए एक पुजारी नियुक्त किया। संत रैदास मंदिर के शिखर और ध्वजा का दर्शन पाकर नित्यप्रति अपने आपको धन्य मानने लगे।
एक बार एक धनी व्यक्ति उनके सत्संग में आये। सत्संग समाप्त होने पर संतो ने भगवान का चरणामृतपान किया। धनी व्यक्ति ने चरणामृत की उपेक्षा कर दी। चरणामृत उन्होंने हाथ मे लिया अवश्य पर चमार के घर का जल न पीना पड़े–इस दृष्टि से लोगो की आँख बचाकर चरणामृत फेंक दिया, उसकी कुछ बूंदे कपड़ो पर पड़ी। घर आकर धनी व्यक्ति ने स्नान किया, नये कपड़े पहने और जिन कपड़ो पर चरणामृत पड़ा था उनको भंगी को सौप दिया। भंगी ने कपड़े पहने तो उसका शरीर नित्यप्रति दिव्य होने लगा और धनी व्यक्ति कोढ़ का शिकार हो गया। वह रैदास के निवास स्थान पर कोढ़ ठीक करने की चिन्ता में चरणामृत लेने आया, मन मे श्रद्धा और आदर की कमी थी। सन्त रैदास ने कहा कि अब जो चरणामृत मिलेगा वह तो नीरा पानी होगा। धनी व्यक्ति को अपनी करनी पर बड़ा पश्चाताप हुआ और क्षमा माँगी। संत रैदास की कृपा से तथा सत्संग की महिमा से कोढ़ ठीक हो गया।
रैदास की वाणी का प्रभाव राजरानी माँ मीराबाई पर विशेष रूप से पड़ा था। मां मीरा ने उनको अपना गुरु स्वीकार किया है, उनके पदों में संत रैदास की महिमा का वर्णन मिलता है। महाराणा सांगा के राजमहल को अपनी उपस्थिति से रैदास ने ही पवित्र किया था। रैदास की आयु बड़ी लंबी थी, उनके सामने कबीर की इहलीला समाप्त हुई थी। यह निश्चित बात है कि महाराणा सांगा की पुत्रवधू मीरा को उन्होंने शिष्य के रूप में स्वीकार किया था। चित्तोड़ की झाली रानी भी उनसे प्रभावित थी। काशी यात्रा के समय झाली रानी ने उनको चित्तोड़ आने का निमंत्रण दिया था। वे चित्तोड़ आये थे। माँ मीरा ने अपने एक पद में "गुरु रैदास मिले मोहि पूरे" कह कर उनके प्रति सम्मान प्रकट किया है।
रैदास ने कठौती के जल मैं गंगा का दर्शन किया। एक ब्राह्मण किसी की ओर से गंगाजी की पूजा करने नित्य जाया करते थे। एक दिन रैदास ने उन्हें बिना मूल्य लिए जूते पहना दिये और निवेदन किया कि भगवती भागीरथी को मेरी ओर से एक सुपारी अर्पित कीजियेगा। उन्होंने सुपारी दी। ब्राह्मण ने गंगाजी की यथाविधि पूजा की और चलते समय उपेक्षापूर्वक उन्होंने रैदास की सुपारी दूर ही से गंगा जल में फेंक दी पर वह यह देखकर आश्चर्यचकित हो गए कि गंगाजी ने हाथ बढ़ाकर सुपारी ली। वे संत रैदास की सराहना करने लगे कि उनकी कृपा से माँ गंगा का दर्शन हुआ। इस बात की प्रसिद्धि समस्त काशी में हो गयी। पर माँ गंगा ने रैदास पर साक्षात कृपा की। सत्संग हो रहा था, रैदास को घेर कर संत मण्डली बैठी हुई थी, सामने कठौती (यहां पर कठौती से मतलब चमड़ा भिगोने के लिए पानी से भरे पात्र से है) में जल रखा हुआ था। रैदास और अन्य संतो ने देखा कि स्वयं गंगाजी कठौती के जल में प्रकट होकर कंकण दे रही है। रैदास ने गंगाजी को प्रणाम किया और उनकी कृपा के प्रतिकरूप में दिव्य कंकण स्वीकार कर लिया।
रैदास केवल उच्च कोटि के सन्त ही नही महान कवि भी थे। उन्होंने भगवान के निरञ्जन, अलख और निर्गुण तत्व का वर्णन किया। उनकी संत वाणी ने आध्यात्मिक और बौद्धिक कान्ति के साथ-ही-साथ सामाजिक कान्ति भी की। उन्होंने अंतरस्थ राम को ही परम ज्योति के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने कहा है कि 'मैं तो सर्वथा अपूज्य था, हरि की कृपा से मेरे जैसे अधम भी पूज्य हो गये।' उन्होंने निर्गुण वस्तु-तत्व का अमित मौलिक निरूपण किया है। उनका सिद्धांत था कि अच्छी करनी से भगवान की भक्ति मिलती है और भक्ति से मनुष्य भवसागर से पार उतर जाता है। संत रैदास रसिक कवि और राजयोगी थे। उनकी उक्ति है–
'नरपति एक सेज सुख सूता सपने भयो भिखारी।
आछत राज बहुत दुःख पायो-सो गति भयी हमारी।।'
|| जय सियाराम ||