क्योटो टू काशी- सौरभ शर्मा राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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क्योटो टू काशी- सौरभ शर्मा

धार्मिक नज़रिए से भारत में बनारस की काशी नगरी और जापान में वहाँ का क्योटो शहर काफ़ी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। जैसे काशी में मंदिरों की भरमार है ठीक वैसे ही क्योटो भी बौद्ध मंदिरों से भरा पड़ा है। मगर सुविधाओं के मामले में दोनों शहरों के बीच ज़मीन आसमान का फ़र्क नज़र आता है। एक तरफ़ अफरातफरी के माहौल में बुनियादी सुविधाओं को तरसती काशी की गोबर -मूत्र से अटी पड़ी बजबजाती सँकरी गलियाँ तो वहीं दूसरी तरफ़ चौबीसों घँटे.. बारहों महीने बिजलो की सुविधा से लैस क्योटो शहर और उसकी एकदम साफसुथरी.. महकती सी ऐसी सड़कें.. मकान कि बस..वाह करने को मन करे।

2014 में सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वाराणसी को परंपरा और आधुनिकता का संगम बनाने के लिए जापान सरकार के साथ इसी काशी को क्योटो जैसा सभी सुविधाओं से लैस स्मार्ट शहर बनाने का एग्रीमेंट किया। अब इतने सालों बाद ये तो ख़ैर.. विवाद का विषय है कि इस सिलसिले में कितना काम हुआ और कितना नहीं। या कितने लोगों को अपने पुरखों की पुश्तैनी जगह से उजड़ कर विस्थापितों की भांति दर दर भटकते हुए अपने अधिकारों के लिए लड़ना पड़ा। या फ़िर काशी के पुनरोद्धार की मुहिम में कितने ठेकेदारों और अफ़सरों ने बतौर कमीशन कितने प्रतिशत माल अपनी तिजोरी के अंदर किया?

दोस्तों आज काशी और क्योटो की बातें इसलिए कि आज मैं इन्हीं नामों से जुड़े एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'क्योटो टू काशी' के नाम से लिखा है सौरभ शर्मा ने। काशी में गंगा के विभिन्न घाटों के इर्दगिर्द घूमती एक ऐसी कहानी जो कभी प्रेम त्रिकोण की ओर अग्रसर होती दिखाई देती है तो कहीं काशी के पुनरोद्धार की तरफ़ अचानक ही बढ़ती दिखाई देती है।


इस उपन्यास में कहीं बनारस और इलाहाबाद के बीच के फ़र्क को इंगित किया जाता दिखाई देता है तो कहीं कुछ हलके फुल्के क्षणों में कठिन सैन्य जीवन की भी बातें की जाती दिखाई देती है। कहीं भारतीय रेलों के जनरल डिब्बों में ठुसी भीड़ से होने वाली दिक्कतों की बात नज़र आती है। तो कहीं इसमें प्रसिद्ध रॉक बैंड बीटल्स के सदस्य जॉर्ज हरिसन के कृष्ण प्रेम और उसकी अस्थियों को बनारस में बहाए जाने की बात होती नज़र आती है।
इसी उपन्यास में कहीं गोधरा काण्ड के बाद पूरे देश में दंगों के भड़कने का जिक्र नज़र आता है। तो कहीं लेखक धर्मवीर भारती के उपन्यास 'अँधायुग' के मंचन के ज़रिए अपने उपन्यास को आगे बढ़ाता नज़र आता है। इसी उपन्यास में कहीं दिल्ली दर्शन के बहाने से ग़ालिब की हवेली की सैर कराई जाती दिखाई देती है। तो कहीं काशी पर दक्षिण के बढ़ते असर की बात इस उदाहरण के साथ दी जाती दिखाई देती है कि जहाँ एक ओर उत्तर भारत में गणेशोत्सव..दुर्गा पूजा और होली- दिवाली जैसे कुछ न चुने त्योहारों को ही सक्रियता दिखाई देती है तो वहीं दूसरी ओर दक्षिण भारत में आम दिनों में भी वेणी पहने महिलाएँ और त्रिपुंड लगाए पुरूष दिखाई दे जाते हैं।

इस उपन्यास के ज़रिए कहीं लेखक अपने पाठकों को बौद्धिकता एवं दर्शन से जुड़ी बातों से परिचित करवाता नज़र आता है। तो कहीं आयुर्वेद की महत्ता बताता नज़र आता है। कहीं ग़ालिब और फ़िराक की शायरी के ज़रिए अपने मन के उद्भाव प्रकट करता नज़र आता है। तो कहीं बीटल से ले कर गिरिजा देवी और साहिर..शैलेन्द्र और गुलज़ार से ले कर एस डी बर्मन तक की बातें करता नज़र आता है। इसी उपन्यास में कहीं लेखक प्रसिद्ध अमेरीकी साहित्यकार मार्क ट्वेन के काशी को ले कर कहे शब्दों को उद्धत करता नज़र आता है कि..

"बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किवदंतियों से भी प्राचीन है।'
इस उपन्यास के पात्र कहीं बॉलीवुड के फिल्मी गीतों के ज़रिए अपने मनोभाव व्यक्त करते नज़र आते हैं। तो कहीं सामान्य ज्ञान एवं लोक व्यवहार की बातों के ज़रिए अपनी..अपने मन की बात कहते नज़र आते हैं।


सीधे..सरल शब्दों में लिखे गए इस उपन्यास के किरदार मुझे एक तरह से औपचारिकता का आवरण रूपी दामन ओढ़े दिखाई दिए। तो कहीं इस उपन्यास की कहानी 60-70 के दशकों की बॉलीवुडीय प्रेम कहानी की तरफ़ भी बढ़ती दिखाई दी जो अंततः ना प्रेम कहानी बन पायी और ना ही किसी अन्य तय ठौर ठिकाने या मंज़िल पर पहुँच पायी।

उपन्यास पढ़ने के बाद ऐसा भी प्रतीत हुआ कि या तो लेखक ने इस उपन्यास का शीर्षक 'क्योटो टू काशी' पहले ही रख लिया था। जिसकी वजह से एक सीधी चलती प्रेम कहानी को उसने अचानक से क्योटो जाने वाली दूसरी पटरी पर दौड़ाना पड़ा। या फिर कहानी लिखते लिखते इस क्योटो वाले ताज़ातरीन मुद्दे को भुनाने.. फिट करने के चक्कर में कहानी में ऐसे बदलाव किए कि कुछ अनजाने किरदार अचानक से टपकते दिखाई दिए एवं श्रीकांत और तनु जैसे करैक्टर जो महत्त्वपूर्ण हो सकते थे, बिना किसी ज़रूरत या अंदेशे के बेमौत मारे गए।

एक आध जगह वर्तनी की त्रुटि के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर कुछ कमियां दिखाई दीं जैसे कि..
पेज नंबर 34 के अंतिम पंक्तियों में लिखे गए एक रेलयात्रा के प्रसंग के दौरान एक सहयात्री, जो कि सैनिक है, शुभ से कहता दिखाई दिया कि..

'पहले एनडीए दिलाया, कोचिंग नहीं कर पाया था और अपने पर भरोसा भी नहीं था। फिर सीडीएस दिलाया और सफ़ल रहा'

यहाँ ये ध्यान देने वाली बात है कि यहाँ पहले एनडीए और बाद में सीडीएस दिलाने की बात की जा रही है जबकि यहाँ सैनिक दिनेश ने किसी को एनडीए या सीडीएस नहीं दिलाया है बल्कि खुद लिया है। इसलिए सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

पहले एनडीए लिया, कोचिंग नहीं कर पाया था और अपने पर भरोसा भी नहीं था। फिर सीडीएस लिया और सफ़ल रहा'

इसी तरह पेज नंबर 41 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'तुमसे घर तो सँभलता नहीं, दुनिया जहान का ठेका लिए हो; घर -परिवार में शोक कार्यक्रम में तो जाते नहीं हो फिरंगियों के लिए जान दिए जाते हो'

यहाँ 'घर-परिवार में शोक कार्यक्रम में' की जगह 'घर-परिवार के शोक कार्यक्रम में' आएगा।

इस उपन्यास में तथ्यात्मक ग़लती के रूप में एक जगह रविवार को दिल्ली के दरियागंज इलाके में लगने वाले पुरानी किताबों के बाज़ार का जिक्र नज़र आया कि ये बाज़ार दरियागंज की बन्द दुकानों के आगे लगा हुआ था जबकि सच्चाई ये है कि ऐसा बहुत साल पहले हुआ करता था। आजकल ये बाज़ार दरियागंज से ही सटे दिल्लीगेट मेट्रो स्टेशन के नज़दीक बने महिला हाट बाज़ार में पिछले कुछ सालों से लगातार लगता आ रहा है।

उम्दा कवर डिज़ायन..बड़े फ़ॉन्ट्स एवं बढ़िया पेपर क्वालिटी में छपे इस 150 पृष्ठीय उपन्यास को छापा है अंजुमन प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 125/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बिल्कुल भी ज़्यादा नहीं है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।