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अग्निजा - 88

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-88

केतकी से रहा नहीं गया। वह चुंबक भी तरह उस ओर खिंचती चली गयी। उनके पास जाकर उसने उनके कंधे पर हाथ रखा, “कल्पना बहन?”

उन्होंने पीछे मुड़ कर केतकी की तरफ देखा। पहले तो पहचान ही नहीं पायीं लेकिन जब ध्यान से देखा तो उनको आश्चर्य हुआ, “केतकी बहन आप?”

दोनों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ एकदूसरे का हाथ थामा। दोनों के चेहरे पर इस मुलाकात का आनंद झलक रहा था। “हां, आपकी केतकी बहन। चलिए कहीं आराम से बैठ कर बातें करें?”

एक होटल के फैमिली रूम में दोनों जाकर बैठ गयीं। उनसे मिल कर केतकी को ऐसा आनंद हुआ मानो कोई अपना, बहुत पास का व्यक्ति मिल गया हो। इस समय उसको ऐसे ही व्यक्ति की आवश्यकता थी। कल्पना मेहता शिक्षिका थीं। मुंबई घाटकोपर के जानी-मानी राम जी आशर स्कूल में मुख्याध्यापिका थीं। उन्होंने अपना पूरा जीवन अविवाहित रह कर शिक्षण कार्य को समर्पित कर दिया था। एक शैक्षणिक शिविरमें उनसे पहली बार मुलाकात हुई थी। तीन दिनों तक दोनों साथ-साथ रही थीं। वह केतकी से उम्र में बहुत बड़ी और अनुभवी थीं। वैसे तो शिविर में अनेक लोगों भेंट-पहचान हुई थी लेकिन कल्पना बहन के कार्य के प्रति निष्ठा, हिम्मत और उनके द्वारा किये गये कार्यों ने केतकी का मन जीत लिया था। शिविर का समय सुबह 10 से शाम 6 तक निर्धारित होने के कारण बहुत सारे लोग पांच-साढ़े पांच बजे ही निकल जाने की मनःस्थिति में सबकुछ निपटा कर बैठ जाते थे। लेकिन कल्पना बहन काम पूरा किये बिना उठती नहीं थीं। शिविर में विचार विमर्श के लिए एक विषय रखा जाना था, इस लिए रात भर उस पर पढ़ने के बाद नोट्स निकालते बैठी थीं। सच कहा जाए तो उन्हें इतनी मेहनत करने की जरूरत ही नहीं थी। लेकिन विद्यार्थियों के फायदे के लिए हमेशा कुछ नया सीखने, नया करने की छटपटाहट उनके भीतर दिखाई पड़ती थी। ऐसे समय में वह भूख-प्यास भी भूल जाती थीं। दूसरे दिन जब उन्होंने अपना पर्चा पढ़ा, सभी हतप्रभ रह गये। इतनी तैयारी? वह भी इतने अच्छे तरीके से?

उस समय सबसे अधिक तालियां केतकी ने ही बजायी थीं। रिसेस में कल्पना बहन को बधाई देते समय उसने उन्हें गले से लगा लिया। तब से उन दोनों के बीच अपनेपन का बंधन बन गया था।

वेटर बड़ी देर से आकर खड़ा था। कल्पना बहन केतकी के विचारमग्न चेहरे की ओर देख रही थीं। “केतकी, क्या सोच रही हो?”

केतकी वर्तमान में लौटी, “अपने शिविर की यादों में खो गयी थी।” फिर वेटर की ओर देख कर बोली, “पहले दो चाय ले कर आइए, फिर खाने का ऑर्डर दूंगी।”

कल्पना बहन ने धीरे से केतकी का हाथ पकड़ा “आपकी तबीयत तो ठीक है न?” उनके स्वर में अपनापन था। ममता और चिंता थी।

“हां, मुझे क्या होना था? ” केतकी ने उत्तर तो दिया, लेकिन उसकी आवाज में निराशा थी।

“बढ़िया, सुन कर अच्छा लगा। लेकिन शिविर समाप्त होने के बाद मैंने जो विचार किया था वह गलत था?”

“कौन-सा विचार?”

“वही कि अब केतकी से अपना बहुत नजदीक का संबंध बन गया है। और वह हमेशा ही वैसा रहेगा। मैं आज दोपहर को बस से अहमदाबाद आई। शाम को तुमको फोन लगाने ही वाली थी और अपने काम से मुक्त होते ही तुमसे आराम से बात करने का विचार था। लेकिन तुमसे मुलाकात का संयोग आज ही बन गया। लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि भेंट न हुई होती तो अच्छा होता। शिविर के उस प्रेम, उस अपनेपन का कम से कम भ्रम बना तो रहता।”

“ऐसा कुछ भी नहीं है, कल्पना बहन प्लीज...”

“तो फिर यदि मुझे पराया नहीं मानती होगी तो खुलेपन से बोलो। तुम कहोगी नहीं तो भी तुम्हारा चेहरा, और तुम्हारी तरफ देख कर ही मैं समझ गयी हूं कि मेरी केतकी परेशानी में है।”

केतकी ने कल्पना बहन की तरफ देखा। दोनों एकदूसरे की तरफ देखती रहीं। वेटर दो कप चाय ले कर आ गया। केतकी ने अपनी बीमारी के बारे में बताया। भूलवश लिये गये स्टेरॉयड्स् की कहानी सुनायी। कल्पना बहन ने सबकुछ शांति से ध्यानपूर्वक सुना। फिर केतकी का हाथ पकड़ कर उसकी तरफ देखते हुए बोलीं, “बालों पर किसी उपचार के बारे में तो मुझे नहीं पता लेकिन शरीर की देखभाल करने की एक पद्धति के बारे में मैं बड़े दिनों से सुनती आ रही हूं। मैंने आज ही उस विषय की एक किताब खरीदी है। उसे तुम ले जाओ। पढ़ो और यदि भरोसा जम जाये तो उस पर अमल शुरू कर दो। ”

“थैंक यू। पर मुझे पता दे दीजिए, मैं मंगवा लूंगी न।”

“उसमें मेरे अपनेपन का स्पर्श नहीं होगा। चलेगा?”

केतकी रुंआसी हो गयी। “नहीं...बिलकुल नहीं चलेगा...बड़ी आईँ...”

वेटरने आ कर पूछा, “दीदी चाय गरम कर के लाऊं क्या?” दोनों ने उस ठंडी चाय के कप उठाये और एक सांस में पी गयीं। कप नीचे रख कर केतकी बोली, “दो स्पेशल थालियां लाइए।” वेटर देखता रह गया। इतनी ठंडी चाय पी गयीं, और अब चाय के बाद खाना?

कल्पना बहन हंसती हुई बोलीं, “ये चाय हम दोनों के लिए कितनी जरूरी थी, ये उस बेचारे को मालूम नहीं। ये चाय हमारे रिश्ते के विश्वास को मिली हुई संजीवनी थी।” उन्होंने अपने बैग से किताब निकाली। “इसके लेखक बीवी चौहान हमारे अमरेली के हैं। ‘आहार की नयी पद्धति और निरोगी जीवन’ उनके सिद्धांत से कई लोगों को जल्दी सहमत नहीं होते, लेकिन पढ़ कर तो देखो। ”

इसके बाद दोनों ने बड़ी देर तक बातें कीं। मन भर के खाना खाया। एकदूसरे के साथ का आकर्षण उनमें बना हुआ था। केतकी के मन में एक विचार आया, और उसे खुशी हुई। “कल्पना बहन, आपका काम खत्म हो जाए फिर हम एक पूरा दिन साथ-साथ गुजारेंगे। मेरे घर में तो ये संभव नहीं होगा लेकिन मेरी एक सखी हैं। आपकी ही तरह बड़ी और मेरी शुभचिंतक। वह अकेली ही रहती हैं। उनके घर पर हम पूरा दिन बिताएंगे। मजा आएगा। वह भी शिक्षिका ही हैं। प्रोफेसर थीं। आएंगी न?”

“स्नेह से मिले हुए निमंत्रण को कोई मना कैसे कर सकता है? दो दिन में काम खत्म होते साथ तुमको फोन करूंगी। तुम लोगों के साथ एक दिन रह कर शाम की लग्जरी बस से मुंबई निकल जाऊंगी।” वेटर आया, और केतकी ने दोनों के लिए कॉफी मंगवाई। एकदम स्ट्रॉंग।

केतकी घर पहुंची तो कल्पना बहन से मुलाकात के आनंद में डूबी हुई थी। उसके मन में उस समय कोई भी दूसरा विचार नहीं था। भावना ने यह समझ लिया। “केतकी बहन, आज किसी सुपरमैन से मुलाकात हो गयी क्या?”

“सुपरवुमैन। मुंबई की कल्पना मेहता मिली थीं आज।”

“ये कौन हैं, मुझे तो इनका नाम याद नहीं?”

“अरे, ये मुझे शिविर में मिली थीं। हमने वहां तीन दिन साथ-साथ बिताए थे। तुमको बताया ही होगा मैंने, तुम भूल गयी होगी। कोई बात नहीं। हम दोनों एक दिन उपाध्याय मैडम के घर रहने वाली हैं, पूरा दिन। तब तुम भी चलना।” केतकी के चेहरे पर झलक रही खुशी देख कर भावना समझ गयी कि कल्पना बहन कोई खास व्यक्तित्व होगा।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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