डाली की कोयल GOLDI MISHRA द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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डाली की कोयल

मेरा नाम रीत हैं। रीत जिसका जन्म पाखीपुर में हुआ हैं। एक छोटा सा गांव । जहां की हर सड़क हर गली महकती हैं। हर एक कोना दीप सा रौशन रहता हैं। हर घर के चूले की आंच में पुरखों की सीख उस चिंगारी की तरह जीवित हैं जो कभी भी ठंडी नही होती। मेरे गांव में कच्ची सड़क हैं पर यहां की नीव सदियों पुरानी हैं। रोज़ हजारों लोग इस सड़क से गुज़रते हैं कोई दुखी होता है कोई सुखी किसी के घर खुशखबरी होती हैं किसी की बछिया मर गई हैं।तो किसी की नई फसल में कीड़े पड़ गए हैं। इन्ही छोटी छोटी कहानियां किस्सों के बीच मेरा भी एक किस्सा था जो कहानी बनना चाहता था। मैं कुंजकिशोर जी की पोती थी। मेरा दादा जी का नाम था कुंज किशोर। मेरे घर में मेरे दादा जी थे, मेरी दादी जी , मेरे पिता जी, मेरी माता जी, और मेरे चाचा –चाची जी। उनके दो बेटे रवि और उमेश। पूरे घर की मैं लाडली। मेरी दादी से मैने जीवन का बहुत बड़े बड़े सबक सीखे । जिसमें एक सबक था की एक औरत के जीवन में एक आदमी बहुत अहम भूमिका निभाता है। एक औरत एक आदमी के बिना अधूरी हैं। उन्होंने कहा था कि एक लड़की को बहुत से रिश्ते बनाने होते हैं जिनमें एक आदमी अभिन्न भाग हैं जैसे–पिता, फिर अपने पति, और उसके बाद  बेटे का रिश्ता। मैने भी उनकी इस बात को सच मानना शुरू कर दिया था।और अपने घर के मर्दों के प्रति मेरी इज्ज़त और बड़ गई थी। बचपन से ही मैने घर के हर फैसले को हमारे घर के मर्दों को ही लेते देखा था। औरतों की उसमें कोई भूमिका नहीं थी। औरतें तो केवल रसोई घर से जुड़े फैसले लेने का हक था जिस में शामिल था की सुबह क्या बनेगा, और रात में क्या बनेगा। पर उसमें भी शर्तें थी। जैसे तीखा खाना दादा जी को नही पसंद फीका खाना पिता जी को नही पसंद और खाने के बाद कुछ मीठा चाचा जी को जरूर चाहिए। बस फ़िर क्या यहां भी घर के मर्दों का ही राज सा था। मैं अपने दोनो चचेरे भाइयों के साथ ही पली बढ़ी थी। पर उनकी और मेरी परवरिश में फर्क था जो फर्क होना अनिवार्य था। क्योंकि मैं एक लड़की थी। उनके हिस्से पाबंदियों से परे आसमान था। और मेरे हिस्से सोने का पिंजरा। हा सोने का पिंजरा इस पिंजरे में मै खा पी सकती थी, सो सकती थी पर सपने नही देख सकती थी। और इस बात का पता मुझे अब धीरे धीरे चल रहा था। मैं सोलह साल की होगी जब मैंने एक पिंजरे में कैद पंछी की तरह खुद को महसूस किया । हुआ कुछ यूं की मुझे गाने लिखने का शौक था। और उन्हे मैं अपनी कापी पर लिखा करती थी। एक रोज़ उस कापी का गीत मैं रोसोई में सबको सुना रही थी। तभी दादा जी रसोई में आ गए और उन्होने मेरी कापी को चूल्हे में फेक दिया और सख्ती से कह दिया की आज के बाद इस आंगन में गीत, कविता, शायरी सब बंद। उस रात चूल्हे के पास बैठ कर मैने अपनी उस कापी को जल कर राख होते देखा। और अपने एक एक आसूं को पीती गई। उस दिन दादी ने एक बात कही थी की हम लड़कियों का खुद का कुछ नही होता जब तक मायके में रहो तब तक हमसे ये कहा जाता है की हमे तो पराए घर जाना हैं। और जब हम ससुराल आ जाती हैं तब हमसे ये कहा जाता है को हम पराए घर से आई हैं। हमारा खुद का कुछ नही हैं। और इन मर्दों ने हमारे सपने देखने का हक भी हमसे छीन लिया हैं।बेटा रो मत। उस दिन एहसास हुआ कि सपने मरते नहीं हैं वो बस एक गहरी नींद सो जाते हैं।मैने लिखना छोड़ा नही मैं छुप छुप कर लिखती थी। घर में ये बात किसी को नहीं पता थी। सिर्फ दादी को ये बात पता थी । क्योंकि वो चाहती थी की मैं सपने देखू चाहे वो पूरे हो या ना हो। मां ने मुझे सिलाई, कड़ाई, घर काम, आदि सब सीखना शुरू कर दिया। क्योंकि वो चाहती थी की मैं एक सवगूर्ण संपन्न गृहणी बनू। ग्रेजुएशन के बाद ही मेरी शादी हेमंत से कर दी गई। हेमंत के साथ मेरी शादी परिवार की रजामंदी से हुई। मेरी मर्जी तो उसमें शामिल भी नहीं थी। एक साल के अंदर मेरी शादी हो गई । और मैं बसंतपुर में बहु बन कर आ गई। सारी रस्में सारे रिवाज़ हमने निभाए।  शादी की पहली रात को मैने हेमंत से सब कह दिया की मैं गाने लिखना चाहती हूं। मैं चाहती हू की मेरे लिखे गाने गीतकार गाए। हेमंत मुस्कुराए और उन्होंने बस इतना कहा कि एक गीत मुझे भी सुनाओ। मैने अपना लिखा एक गाना उन्हे सुनाया। उन्हे बहुत पसंद आया था। उस दिन हेमंत ने मुझसे कहा की मैं बहुत अच्छा लिखती हूं और कभी लिखना ना छोड़ दूं। बस इतना सुनकर मुझे लगा की मेरे इस पिंजरे में एक खिड़की खुली । मैं शादी के बाद हर तीज त्यौहार पर खुद गाने लिखती थी और उन्हें गाती थी। एक दिन घर पर डाकिया एक चिट्ठी फेक गया। मैने चिट्ठी उठाई और कमरे में ले जाकर उसको पढ़ने लगी। उस चिट्ठी में लिख था की –

"आदरणीय रीत,

हमने आपका गाना पढ़ा। हमारी कंपनी आपके लिखे गाने  को मशहूर गायिका मनोरमा रंजन से गवाना चाहती थीं । कृपया इस पते पर हमे अपनी मंजूरी दे। "..

मैं हैरान थी। मैने पत्र को चुपचाप अपने बिस्तर के नीचे छुपा दिया। शाम को हेमंत को सब बता दिया। मैं हैरान थी मेरा गाना उन तक कैसे पहुंचा। हेमंत ने वो गाना म्यूजिक कंपनी को डाक द्वारा भेजा था। मैं ये सुनकर फूली ना समाई। और नम आंखों को लिए हेमंत को अपनी बाहों में भर लिया। हेमंत चाहते थे की मैं अपने सपनो की उड़ान भरू। उन्होंने मुझे मेरे पंख दे दिए। मैने अपनी मंजूरी खत के जवाब में लिख दी। और दो हफ्तों बाद उस गाने के पैसे भी डाक द्वारा आ गए। हेमंत के साथ से मैं अपना पहला गाना मनोरमा जी द्वारा गाते हुए सुन पा रही हूं। मेरा लिखा हुआ गाना "डाल की कोयल" सबको बहुत पसंद आया।  धीरे धीरे रेडियों के हर स्टेशन पर वो गाना हर घंटे आया करता। मुझे एक लिरिसिस्ट की पहचान मिलने लगी। फिर मैने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। हेमंत ने मेरे लिए इस समाज से एक लड़ाई लड़ी।सबने कहा की ये शायरी, गाने,कविता आदि सब अच्छे घर की बहु बेटियां नही करती। पर जब उस परमात्मा ने हुनर दिया तब उसने कोई फर्क नही किया। तो फिर ये समाज क्यूं ये फ़र्क करता हैं। मैने हर खोखली रीत को तोड़ने की ठानी वो रीत जिसने हम लड़कियों को सपने देखने से रोका था। वो रिवाज़ जिसने हमें पिंजरे का पंछी बनाया था। आखिर सपने देखनें का हक तो हमारे हिस्से होना चाहिए ना। मैने अपने सपनो की उड़ान भरी और गाने लिखे। मेरे परिवार वाले मेरे ससुराल आदि कोई मुझसे वास्ता नहीं रखता अब । उन्हे लगता हैं की मैने उनकी बात ना मान कर गलत किया हैं । पर हेमंत के साथ ने मुझे एहसास दिलाया की अपने सपनो को पूरा करना गलत नहीं हैं। आज मुझे रेडियों स्टेशन पर बुलाया जाता हैं।मेरे लिखे गाने लोग सुनना चाहते हैं। 

एक खुशी महसूस होती है। और एक फर्क भी। दादी अब इस दुनिया में नही थी। पर उनकी कही सीख ने मुझे आज ये मुकाम दिलाया था। अगर उस दिन मैंने अपने सपनो को भी उस चूल्हे में जला दिया होता तो मैं पुरानी रीत ही रह जाती । नई रीत तो लिख ही ना पाती।

कुछ सालों बाद हमारी एक बेटी पैदा हुई। हमने उसका नाम मीरा रखा जो की मेरी दादी का नाम था। और मैने उसी दिन ठान ली की मेरी मीरा सपने देखेगी । और अपनी उड़ान भरेगी। उसके पंखों पर कोई पाबंदी नहीं होगी।