बिस्तरबंद ROHIT CHATURVEDI द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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बिस्तरबंद

बिस्तरबंद

ये उस समय की बात है जब मेरी राजस्थान पुलिस में नई-नई नौकरी लगी। मैं रहने वाला उत्तर प्रदेश का और नौकरी लगी राजस्थान में। नई जगह, नए लोग और नई बोली, सब अलग था और ये भी नहीं पता कि कहाँ पोस्टिंग मिले। इसलिए जाने की तैयारी में मैंने अपने जरूरी सामानों के साथ-साथ बिस्तर और कपड़ों को रखने के लिए एक बिस्तरबंद खरीदा। मुझे पता नहीं था कि ये बिस्तरबंद मेरे जीवन में क्या नए गुल खिलायेगा। लाने के बाद पोस्टिंग के इन्तजार में जिस दिन मैंने अपने बिस्तर को बिस्तरबंद में जमाया, उसी दिन बांसवाडा में पोस्टिंग का ऑर्डर भी डाक से प्राप्त हो गया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि आज ही सामान रखना शुरू किया और आज ही पोस्टिंग ऑर्डर आ गया । कुछ दिन तो चैन से रह लेता अपने गाँव में, पर कोई बात नहीं, नई नौकरी की ख़ुशी में जाने की तैयारी में जुट गया और अगले ही दिन बस से आगरा और आगरा से ट्रेन से कोटा पहुंचा और कोटा से फिर बस से बांसवाडा । वहां रिपोर्ट करने के बाद कुछ दिन की ट्रेनिंग हुई और उसके बाद एक थाने में भेज दिया गया और नौकरी शुरू। नयी जगह ना तो खाना समझ में आ रहा था और ना ही भाषा। जैसे-तैसे समय के साथ दोनों चीजें समझ में आना शुरू हुए. नौकरी की तरह मेरी उम्र भी नयी थी। मैं तब सिर्फ 21 साल का था। कम उम्र में नौकरी लग जाना आजकल के दौर में बहुत कठिन सा लगता है। हमारे समय में शारीरिक परीक्षण ही नौकरी की कसौटी होती थी और थोड़ी सी जान-पहचान हो तो नौकरी लगना और आसान हो जाता। आज की तरह ना कोई लिखित परीक्षा और ना कोई साक्षात्कार।
मैं ठहरा गाँव का आदमी, ना कोई तजुर्बा और ना किसी की बात मानने का आदी. नौकरी तो लग गयी पर निभानी बड़ी कठिन। मैं अपनी ईमानदारी और अकड़ की वजह से हमेशा अधिकारियों की नजर में चुभता रहता। मैं अपनी समझ से सब सही करता, पर अधिकारियों की नजर में सब गलत। इसलिए नौकरी में एक जगह टिक कर नहीं रह सका। जब तक किसी जगह अपने आप को ढाल पाता तब तक किसी और जगह तबादला हो जाता, नहीं तो लाइन हाजिर होना तो आम बात थी। इसी बीच मेरी शादी के लिए रिश्ता आया। मां के बचपन में ही गुजर जाने की वजह से घर में रोटी पकाने वाला कोई नहीं था, हम भाई-बहन ही उल्टा सीधा पका लेते थे। बड़े भाई-बहनों की शादी हो गई थी सब अपने काम-धंधों की वजह से गांव से शहरों में चले गए थे। ऐसी परिस्थिति में पिताजी ने बिना सोचे समझे हां कर दी और चट मंगनी और पट ब्याह हो गया। शादी के लिए मैंने कुछ दिन की छुट्टी ली थी। शादी के बाद पत्नी को पिता जी की देखभाल के लिए गाँव में छोड़ कर मैं वापस आ गया। उसी दौरान मेरी नयी पोस्टिंग कोटा जिले में हो गयी । यहाँ पर अधिकारी भी अच्छे थे और साथी भी । स्टाफ ज्यादा होने की वजह से हर किसी पर अधिकारी का ध्यान भी नहीं जाता था। मजे से नौकरी चलने लगी और सबसे लम्बे समय तक मैं यहाँ रहा। इसी बीच मेरी बडी बेटी का जन्म हुआ. उसके जन्म के बाद लगा कि बार-बार घर तो जाना संभव होगा नहीं, इसलिए एक जगह स्थायी व्यवस्था बनानी ही पड़ेगी, तो मैं पिताजी, पत्नी और अपनी बेटी को लेकर कोटा आ गया और थाने के पास ही किराये से एक मकान ले लिया। मकान में कई किरायेदार थे, सभी मिलजुल कर परिवार की तरह रहते थे। कभी लगा ही नहीं कि अपना घर छोड़कर कहीं बाहर रहने आए हैं। सब सही चल रहा था तभी मेरे थानाधिकारी का तबादला हो गया और नए अधिकारी की पोस्टिंग हुई ये महाशय लोभी किस्म के थे। हर केस में किसी एक पक्ष को डरा धमका कर इन्हें पैसे ठगने ही रहते। मुझे भी लोगों को परेशान कर पैसा वसूलने को दबाव बनाते और मेरे मना कर देने पर मुझे परेशान करते। अकारण इधर-उधर फील्ड में भगाते रहते ताकि मैं उनकी बात मान कर उनके कुकर्मों में भागीदार बन जाऊं। इन महाशय के क्रियाकलापों की वजह से एक बार मेरी बीट के ही किसी केस के सिलसिले में बड़े अधिकारी जाँच के लिए जयपुर से हमारे थाने में आये। तो उसकी जांच के लिए मेरे बयान भी लिए जानें थे। मेरी ड्यूटी ऑफ हो चुकी थी। मैं घर चला गया था, फिर भी थाने से एक सिपाही को मेरे घर पर बुलाने के लिए भेजा गया । मैं घर पर मेरे इधर-उधर फैले बिस्तर और कपड़ों को इकठ्ठा करके खाली पड़े बिस्तरबंद में जमा रहा था। बाहर से उसकी आवाज सुनकर मैंने ड्रेस पहनी और थाने में अधिकारी के सामने पेश हो गया। मुझसे पूछे जाने पर मैंने जो सच था वो अधिकारी को बता दिया इस मामले में भी थानाधिकारी महोदय ने एक पक्ष से माल खीच लिया था। जिसकी वजह से थानाधिकारी महोदय को जयपुर से आए अधिकारी से अच्छी खासी डांट पड़ गयी। अधिकारी के सामने थानाधिकारी की शिकायत करने की सजा के तौर पर अगले ही दिन मुझे बारां जिले के जंगली इलाके के एक छोटे से थाने में भेज दिया गया. जहां कोई भी जाना नहीं चाहता था। मैं अपना बोरी-बिस्तर बांधकर निकल पड़ा। ईमानदारी और अधिकारी से दुश्मनी की कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी, हमेशा की तरह। यह मध्यप्रदेश और राजस्थान के बॉर्डर का क्षेत्र था। जब तक मैं ट्रेन से यात्रा कर वहां पहुंचा तब तक बहुत रात हो चुकी थी, बारिश का समय था, बादलों की वजह से चारों तरफ घनघोर अंधेरा था, हल्की बारिश भी हो रही थी। छोटा सा रेलवे स्टेशन था, मैं ट्रेन से उतरा तो मेरे साथ ही उस ट्रेन से उतरे 2-4 लोग भी मेरे साथ चल दिए। लोगों से पूछने पर पता चला कि थाना नदी पार है और बारिश की बजह से नदी का पानी पुल के ऊपर से गुजर रहा था। मेरे साथ चले लोग भी अपने-अपने गंतव्य को चले गए। अब मैं अकेला ही रह गया था। उस अँधेरी रात में नदी की तरफ मैं ही अकेला आगे बढ़ रहा था. कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. पूछते-करते मैं नदी के पास पँहुच गया, नदी की आवाज मन में डर पैदा कर रही थी. पुल का कोई पता नहीं था. उस पर मेरे बिस्तरबंद और सामान मेरे मनोबल को और कमजोर कर रहे थे. बारिश बंद हो चुकी थी. आस-पास कोई दुकान-मकान भी नहीं था, जहाँ रात गुजारी जा सके। अब और चलने की ताकत भी नहीं थी। पास ही एक घने से पेड़ में नीचे मैंने अपना बक्सा और बिस्तरबंद रखा और वहीँ पड़े पत्थर पर मैं भी बैठ गया। रात काफी हो चुकी थी। पेड़ से पानी की बूंदे टपक रही थी। पेड़ से टिककर सोने की कोशिश कर रहा था तभी पास के पेड़ के चारों तरफ कुछ लोग बैठे दिखाई दिए। दूर से वो इंसान ही लग रहे थे पर जब मैंने ध्यान से देखा तो वह बड़े-बड़े लंगूर बंदर थे। मेरे पास ही बैठे होने के बाद भी वो कोई हलचल नहीं कर रहे थे। सारे के सारे बेसुध से वहां पड़े थे। मेरी समझ में नहीं आया कि ये यहां ऐसे क्यों बैठे हुए हैं। डर की वजह से मैंने पूरी रात उसी पेड़ के नीचे नदी के तेज बहाव और उन लंगूर बंदरों को को देखते हुए बिता दी। हल्की-हल्की रोशनी होने लगी थी पर बन्दर टस से मस नहीं हो रहे थे। मेरे लिए यह अजीब बात थी। बारिश बंद होने की वजह से नदी का बहाव भी कम हो गया था. हल्की- हल्की हवा चल रही थी. मैंने हिम्मत जुटा कर अपना बिस्तरबंद और बक्सा उठाया और चल दिया नदी के उस पार अपनी मंजिल की तरफ। जब मैं थाने पंहुचा तो थाने में शांति छाई हुई थी। कोई कुर्सी पर कोई जमीन पर सो रहा था। मेरे बक्से रखने की आवाज से बाहर ही सो रहा लांगरी अर्थात खाना बनाने और अन्य कार्य करने वाला, उठ गया मैं ड्रेस में था तो उठकर सलाम करके बोला “साहब आप कब आये”। उसे पहले से पता था कि मैं आने वाला हूं। मैंने उत्तर दिया – “ आ तो कल ही गया था पर नदी के बहाव की वजह से यहाँ तक नहीं आ सका, रात नदी पार ही गुजारनी पड़ी। लांगरी झट-पट उठा और थानाधिकारी को भी उठा दिया और चाय बनाने चला गया। थानाधिकारी भी अकेले ही रहते थे इसलिए खाना और अन्य काम के लिए उन्होंने लांगरी को रखा हुआ था. मेरे आने से उन्हें लगा चलो एक से दो भले. नित्य क्रिया से निवृत होकर तीनों ने बैठकर चाय पी और बात-चीत करने लगे। मैं रात भर का जगा हुआ था सो मैं पास ही बने क्वाटर में जाकर सो गया। दोपहर हुई तो लांगरी ने खाना खाने उठाया। खाना खा कर थाने पंहुचा तो लोग आ-जा रहे थे अपनी शिकायतें लेकर, किसी की बकरी चोरी हो गयी तो किसी की साईकिल। मैंने भी रोजनामचा, एफ़आईआर रजिस्टरों का अवलोकन किया और काम समझना शुरू किया। पर रात के बन्दर मेरे दिमाग से जा ही नहीं रहे थे. मैंने लांगरी को बुलाया और उससे पूछा कि कल रात जब मैं नदी पार पेड़ के पास बैठा था तो कुछ बंदर बेसुध हालत में देखे थे उनका क्या माजरा है। तब लांगरी बहुत तेज हँसा और बोला वो सब नशेडी बन्दर हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, बंदर और नशेड़ी ऐसा कैसे हो सकता है। मैंने पूछा- वो कैसे? तो उसने मुझे बताया कि यहां आस-पास अफीम की खेती होती है और किसान रात में अफीम के पौधों में चीरा लगाकर चले जाते हैं ताकि सुबह तक रस इकठ्ठा हो जाए। ये लंगूर मौका देखकर वही रस चाट कर आ जाते हैं और फिर इनकी सुध- बुध सब खो जाती है और यूँ`ही नशे में दो-तीन दिन तक पड़े रहते हैं और होश में आते ही फिर नशा कर लेते हैं। तब जाकर मुझे समझ आया कि कल रात में क्या चल रहा था उस पेड़ के नीचे। काम करते-करते शाम हो गयी, लोगों का आना-जाना भी कम हो गया था। मैं नयी जगह का परिचय लेने की इच्छा से आस-पास घूमने के लिए निकल पड़ा. थोड़ी दूर ही फिर वैसे ही कुछ बन्दर पड़े दिखाई दिए, अब यह मेरे लिए आश्चर्यजनक ना था। चारों तरफ अफीम के खेत और जंगल था। आवादी बहुत कम थी, गिने-चुने लोग ही दिखाई दे रहे थे। राजस्थान और मध्य प्रदेश का बॉर्डर होने के कारण अपराध करके लोग बॉर्डर पार कर भाग जाते और उधर के लोग इधर आ जाते, इसलिए मध्य प्रदेश के थाने से लगातार संपर्क बना रहता था। ताकि अपराधियों को पकड़ा जा सके। पर थाने में गिना-चुना स्टाफ ही था और बॉर्डर होने की वजह से कोई आना भी नहीं चाहता था। इसलिए अपराधी मजे कर रहे थे। मेरे पास किसी की सिफारिश थी नहीं, सो मैं आ गया इस थाने में। सजा काटने मुझे यहाँ भेजा गया था। खाने की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। लांगरी को दाल-बाटी और बेसन की सब्जी ही बनानी आती थी। उससे ही काम चलाना पड़ता, घर का खाना बड़ा याद आता। मन बहुत विचलित था, पूरा परिवार भी दूर था। पिताजी और बच्चों की चिंता भी दिन-रात सताती रहती। धीरे-धीरे २ महीने बीत गए। इसी सब के बीच एक दिन गुस्से में मैंने अपना बिस्तर उठा कर बिस्तरबंद में रख दिया। अगले ही दिन थाने में खबर आई कि मुझे कोटा बापस बुलाया गया है। मेरी प्रसन्नता की कोई सीमा ना रही। बिस्तर तो बिस्तरबंद में था ही, बाकी सामान भी जल्दी से बक्से में जमा लिया और साथियों से बिदा लेकर स्टेशन आ गया। ट्रेन आ गयी और ट्रेन में सवार होने के बाद बिस्तरबंद को ऊपर की सीट पर रखकर मैं नीचे बैठ गया. नीचे बैठा मैं बिस्तरबंद को देख रहा था । देखते-देखते ये ख्याल आया कि जब से ये बिस्तरबंद मैंने लिया है और जब-जब मैंने इसमें कपडे बिस्तर कुछ भी रखे तभी मुझे नयी जगह के लिए प्रस्थान करना पड़ता है। ऐसा क्या है इस बिस्तरबंद में। मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा था यह सब सोचकर। अगर यह सब इस बिस्तरबंद की वजह से ही हो रहा है तो ये बात मेरे दिमाग में पहले आ गयी होती कि इसमें बिस्तर रखने से ही मेरी नयी जगह की यात्रा शुरु हो जाती है, तो मैं कभी का बार-बार इधर-उधर पोस्टिंग के झंझट से मुक्त हो गया होता । कभी इसमें अपना बिस्तर रखता ही नहीं। पर अगर पहली बार बिस्तर रखा ही ना होता, तो राजस्थान के अलग-अलग शहरों में जाकर नौकरी करने का मौका भी नहीं मिलता। बिस्तरबंद के साथ की यह यात्रा भी बहुत कुछ नया सिखाकर मेरे रिटायरमेंट के साथ समाप्त हुई। रिटायर होने के बाद मैं अपने गाँव अपनी पत्नी के साथ बापस आ गया और मेरी पत्नी मेरा बिस्तरबंद यहाँ भी साथ ले आई। पर अब वो बिस्तरबंद खाली घर के एक कोने में पड़ा है. शायद किसी नयी यात्रा के इन्तजार में या फ़िर चिर विश्राम में......
कैसी लगी आपको यह कहानी, आपकी प्रतिक्रिया के माध्यम से जरूर बताएं.
जल्द मिलते है किसी और कहानी के साथ .......