अग्निजा - 79 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अग्निजा - 79

प्रकरण-79

“मेरी समस्या मुझे सुलझाने दें... इसे स्वावलंबन कहा जाए या घमंड? कुछ दिनों पहले वह लड़का हॉस्पिटल में भर्ती था और उसकी पढ़ाई का नुकसान हो रहा था, तब तो उसकी समस्या उसे ही सुलझाने देनी चाहिए थी... आपने क्यों उस पर अपना प्रेम दिखाया..? मैंने बताया है इस लिए नहीं जाना हो, तो वैसा कहें। ”

“नहीं, वैसा कुछ नहीं है...”

“आप जाएं या न जाएं। लेकिन मैं इस एलोपेशिया, केशनाग, इंद्रमुख या गंजापन होना, जो कुछ भी है उससे हारने या निराश होने वाला आदमी नहीं हूं।”

“एक मिनट, ये नागकेश, इंद्रमुख...ये सब क्या है, समझ में नहीं आया। ”

“अरे सभी वही हैं...अंगरेज़ी में एलोपेशिया कहते हैं...गुजराती में उंदरी, संस्कृत में केशनाग या इंद्रलुप्त...कहते हैं।”

“अरे बाप रे, इसके बारे में आपको बड़ी जानकारी है।”

“जानकारी तो बिलकुल ही नहीं थी। जब से आपको यह परेशानी शुरू हुई, उसके बाद से मैंने जुटानी शुरू की।”

केतकी ने कृतज्ञता महसूस की। उसके बारे में यह कितना विचार करता है। “लेकिन आपको इस सबमें पड़ने की क्या आवश्यकता थी?”

“देखिए, आपको क्या करना है ये आप तय कीजिए, लेकिन मुझे क्या करना है यह मुझे तय करने दीजिए। ”

“थैंक यू...और सॉरी...मैंने आपके साथ बदतमीजी से बात की।”

“सॉरी वॉरी कहने की आवश्यकता नहीं है। मैं आपकी मानसिक स्थिति को समझ सकता हूं। इस इंद्रलुप्त शब्द के कारण मुझमें आशा जगी कि आपके बाल फिर से आ सकते हैं।”

केतकी के चेहरे पर मुस्कान छा गई। “इस शब्द में ऐसा क्या है?”

“देखिए, पुराने टीवी सीरियल या धार्मिक सिनेमा को याद कीजिए। उसमें इंद्र देवता अचानक अदृश्य यानी लुप्त हो जाते हैं और फिर अचानक प्रकट भी होते हैं। तो यदि आपके बाल अचानक गायब हुए हैं तो वापस क्यों नहीं आ सकते?”

“बात में कुछ दम है...” गांधीनगर वाले डॉक्टर से मिलने के लिए मैं जाऊंगी, लेकिन दो शर्तें हैं, मंजूर?

“वाह, मंजूर...मंजूर...मंजूर..अब शर्त बताएं।”

“आपको साथ चलना होगा...मुझे बताइए कब जाना है?”

“जितनी जल्दी हो...अपॉइन्टमेंट ले कर बताता हूं आपको। और दूसरी शर्त?”

“डॉक्टर से मिल कर आने के बाद दक्खन सेंटर में जाकर नाश्ता करना और उसका बिल मैं दूंगी, चलेगा?”

“बाकी सब ओके, लेकिन बिल देने की बात जमी नहीं।”

“तो फिर भूल जाइए सबकुछ। मेरे इंद्र लुप्त रहें तो भी मुझे एतराज नहीं।”

“अरे, नहीं नहीं....बिल तो क्या, आप एडवांस पैसे भी दे डालिए। यानी जब मैं अगली बार वहां जाऊं तो पैसे न देने पड़ें। ”

दोनों हंसने लगे। प्रसन्न से मिल कर केतकी जब घर पहुंची तो उसको बहुत हल्का और आश्वस्त महसूस हो रहा था। उसने अपने आप से प्रश्न किया, “प्रसन्न को मुझमें कुछ अधिक ही रुचि है क्या? किस लिए? नहीं, वैसा नहीं है। वो थोड़ा अधिक परोपकारी व्यक्ति है। किसी की परेशानी उससे देखी नहीं जाती। ”

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उस दिन शाम को जब केतकी घर लौटी तो उसे देख कर भावना को खुशी हुई। “कितने दिनों बाद इतनी रिलैक्स दिख रही हो दीदी।” भावना ने इसका कारण पूछा तो केतकी ने सारी बात उसे बता दी। “गांधीनगर वाले डॉक्टर के पास मैं भी चलूंगी।” इतना कह कर भावना ने केतकी को खुशी से गले लगा लिया। मानो केतकी की बीमारी खत्म हो गयी और उसके सारे बाल पहले की तरह आ गए हों, और पहले से भी अधिक लंबे, घने, रेशमी और काले।

 

खुद पर अचानक आ पड़ी इस मुसीबत और लगातार न चूकने वाली चिंताओं, दुःखों के बीच भी केतकी यथासंभव शांत रह कर पढ़ाई, लिखाई, मनन-चिंतन करती ही रहती थी। उसके भीतर की व्यथा और अधिक परिपक्व होती जा रही थी। उसके बहुत सारे विचार और मान्यताएं मजबूत होती जा रही थीं। खुद पर आ पड़े इस संकट के बीच भी वह लगातार यशोदा का विचार करती रहती थी, ‘मां अपने लिए कभी कुछ क्यों नहीं कर पायी, अपने लिए कुछ क्यों नहीं मांग पायी? अपने बारे में कभी उसने क्यों विचार नहीं किया, लाचारी प्रम, समाज, परंपरा, लड़कियों की चिंता-इन सबमें से कौन-सा ऐसा कारण था जिसकी वजह से वह अपने व्यक्तित्व को भुला कर सबकुछ सहन करती रही होगी? मेरे भीतर एक आग सतत जलती रहती है, वह मेरी वेदनाओं की न होकर मां के दुःखों, अनंत काल की वेदनाओं की है। कोई व्यक्ति रणछोड़ दास जैसे व्यक्ति के लिए अपना पूरा जीवन आखिर कैसे बरबाद कर सकता है? इस दुःख, अत्याचार से बाहर निकलने के लिए उसने जरा भी प्रयास नहीं किया होगा क्या? हम दोनों कितनी लाचार हैं। मेरे भीतर की यह आग का जरा-सा भी अंश अगर मेरी मां के भीतर होता तो कितना अच्छा होता। लेकिन वह तो विषप्राशन करने के बाद ही चिरशांति में लीन भगवान शंकर की तरह जीती रही। एक व्यक्ति की गुलामी ही शायद उसको आदत लग चुकी है अब। हिंसक बाघ के सामने किसी खरगोश की तरह सहमा हुआ जीवन उसने आखिर कैसे बिताया होगा? ’

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यह विचार करते हुए बड़ी देर बाद उसे यह ध्यान में या कि मां के इस नारकीय जीवन का प्रभाव उनके पिता यानी उसके नाना पर अधिक पड़ा था। इसी वजह से नाना निराश हो गए थे। भूत और भविष्य की अगाध जानकारी होने के बावजूद अपनी इकलौती लाड़ली बेटी के लिए कुछ भी न कर पाने की लाचारी उनको लगातार खा रही थी। इसका उनके मस्तिष्क पर भी परिणाम हुआ था। दिन रात उनको मां की चिंता सताती थी, लेकिन वह किसी से कह नहीं सकते थे। मां कोई भी कदम नहीं उठा सकी, शायद इसी वजह से। उसे नाना के साथ-साथ हम दोनों बहनों की भी चिंता सताती होगी। नाना को और अधिक तकलीफ न हो इस वजह से तो मां ने इतने कष्ट सहन नही किये? उनको दुःख न पहुंचे इसलिए मां इस नर्क में सड़ती रही, लेकिन इस कारण न तो नाना सुखी रहे न वह खुद। आई के इस पितृप्रेम और सहनशीलता की वंदना करूं? नहीं। इसके उलट यदि मां अपने पति को छोड़ कर अपने पैरों पर खड़ी होती तो नाना को अधिक खुशी मिलती। या फिर नाना और मां की नियति में ही ये दुःख बदा था। मां को समझ पाने के लिए वह अभी छोटी है या फिर मां की तरह सोचने-समझने की ताकत ही नहीं है उसमें?

इन विचारों के बीच उसके सिर से बाल धीरे-धीरे निकलने लगे थे। भावना एक दिन उसे जबरदस्ती एक बहुत पुराने डर्मेटोलॉजिस्ट के पास ले गई। उनकी उम्र 75 के आसपास होगी। वह बहुत व्यस्त रहते थे इस लिए हमेशा परेशान भी रहते थे। उन्होंने फटाफट केतकी की समस्या पूछी। उसके बाद बिना सहानुभूति जताए कह दिया, “इस बीमारी के लिए कोई दवा नहीं है। निश्चितता के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ”

“डॉक्टर साहब, कोई न कोई तो दवा होगी ही न?”

“हां, दो रास्ते हैं। विग पहनना शुरू करिए और पहले की तरह घर से बाहर निकलने लगिए, या फिर बिना बालों के इसी तरह घर में हमेशा के लिए बैठे रहिए।” डॉक्टर ने घंटी बजा कर दूसरे मरीज को अंदर बुलाया।

भावना को बड़ा गुस्सा आया। कोई व्यक्ति, उस पर से डॉक्टर, इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है?  लेकिन इस वास्तविकता को जान कर केतकी का मन घायल हो गया। वह टूट गई। उसका मन क्रंदन करने लगा। वह चुपचाप थी। भावना को उससे कुछ कहना था। लेकिन दीदी का चेहरा देख कर वह चुप ही रही। दोनों मौन रहते हुए ही जैसे-तैसे घर पुहंचीं।

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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