बिल्ला नंबर 64 Ramesh Yadav द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बिल्ला नंबर 64

 

     कहानी              

 बिल्ला नंबर – 64

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शनिवार की वह रात… सारे काम निपटाकर कम्प्यूटर खोला और फेसबुक देखने लगा। पत्रकार मित्र, हरीश जी की वाल पर दिल को दहला देने वाली ख़बर थी… I

“यह तो गद्दारी है कॉमरेड, तुम इस तरह अचानक हमें छोड़कर नहीं जा सकते, यह धोखा है, इस तरह खेल आधा छोड़कर कोई भागता है क्या, लौट आओ कॉम्रेड, अभी वाद - विवाद बाकी है ….."

वाल पर आलोक जी की तस्वीर लगी थी। रात्रि के बारह बज रहे थे मुसलधार बारिश हो रही थी और ठीक उसी समय मित्र परमानंद जी का फोन आया। उन्होंने इस मनहूस खबर की पुष्टि की और मैं सन्न हो गया। किसी हादसे से कम ना थी यह ख़बर।

पर हकीकत को आखिर कौन बदल सकता था ! एक ओजस्वी चिराग बुझ चुका था। चेतना के पार जा चुका था,अपनी तमाम यादों को छोड़कर…फिर कभी ना लौटने के लिए। ना जाने क्यों, बार-बार लग रहा था कि काबिलियत होने के बावजूद भी इस व्यक्ति को वो मुकाम नहीं मिला, जिसका वो सही हकदार था। शायद इसे ही किस्मत कहते हैं। अब तो सब निशेष हो चुका था। ओहदा, पद, मंच, प्रतिष्ठा, शब्द, संघर्ष, रिश्ते और ना जाने क्या-क्या! शांत हो गई थी एक बुलंद आवाज। तेजस्वी चेहरा.. ओजस्वी कविताओं का धनी, कुशल मंच संचालक, लेखक, पत्रकार, प्रभावी वक्ता, उदीयमानों का मसीहा, यारों का यार....आलोक दा, अब हमारे बीच नहीं रहे, इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था। नियति ने अपना खेल कर दिया था। 

कानों में आवाज गूँज रही थी… 'चिट्ठी ना कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश, जहां तुम चले गए…I' गए भी ऐसे कि किसी को खोज खबर लेने का भी कोई मौका ही नहीं दियाI ऐसे जहां में गए कि जहां से लौट भी नहीं सकते थेI सबकी आँखों में अपना इंतजार छोड़ गए l ये भी जाने की कोई उम्र थी? अभी-अभी तो जीवन की दूसरी पारी खेलने के लिए नया गार्ड लिया था l सेंचुरी हो जाने के बाद शायद धुंआधार पारी खेलने के लिए l उफ्फ…    

दूसरे दिन अर्थात रविवार की सुबह उठा, तो सिर भारी था। बुखार-सा लग रहा था। बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। एक बेहद जरूरी काम से बाहर जाना था अत: घर से निकलना मजबूरी थी। वहां से लौटा तो दोपहर के दो बज रहे थे। बरसात अब भी जारी थी। चिंचपोकली से डोंबिवली जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। दो दिन पहले ही बरसात ने मुंबई को ठप्प कर दिया था अत: लोकल से सफर करने से मन हिचकिचा रहा था। अचानक फोन बजा, बताया कि - आलोक जी ने देहदान किया है अत: बॉड़ी हॉस्पिटल से 3 बजे ही आयेगी और अंतिम दर्शन के लिए 5 बजे तक डोंबिवली में आलोक जी के घर पर रखी जाएगी। उसके बाद शायद जे.जे. हॉस्पिटल ले जाया जाएगा। मैंने अपनी समस्या बताई। सामने साहित्यिक पत्रिका ‘आसरा मुक्तांगन’ के मालिक शिरकर जी थे, उन्होंने आगे कहा, "मैं चाहता हूँ कि आप मुंबई में ही रुकें और जे.जे.अस्पताल की प्रक्रियाओं में सहायता करें। अपने सम्पादक के लिए यह आखिरी सलाम होगाl अभी कुछ देर में मैं अस्पताल के बारे में आपको पक्की सूचना देता हूँ।"  

'देहदान मतलब महादान', मैंने मन ही मन दादा को सलाम किया।

खैर, शिरकर जी की बात को मानकर मैं घर पर ही उनकी अगली सूचना मिलने तक इंतजार करने लगा। 'आसरा मुक्तांगन' वही पत्रिका थी, आलोक जी जिसके सम्पादक थे और बहुत ही उम्दा काम कर रहे थेI कई नए रचनाकारों को उन्होंने पत्रिका से जोड़ा था, पुराने लोग तो थे हीI दादा की यही खासियत थी, उभरते हुए अच्छे रचनाकारों को मौका देना, उनकी हौसलाअफजाई करना, फिर चाहे लेखन का क्षेत्र हो या काव्य मंच l फक्कडी तो थे पर अपने उसूलों से कभी समझौता नहीं किया l शायद इसीलिए किसी भी पत्र-पत्रिका की नौकरी में अधिक समय तक नहीं टिक सके l

शाम को पांच बजे शिरकर जी का पुनः फोन आया कि बॉड़ी जे.जे. अस्पताल के लिए निकल चुकी है। डेढ़-दो घंटे में वहां पहुंच जाएगी और उन्होंने एम्बुलेंस के बारे में मुझे बताया। 

दो-तीन कॉमन मित्रों को फोन किया पर सबने किसी ना किसी कारण से आने से मना कर दियाI अब और किसी को फोन करने की हिम्मत नहीं हो रही थीI

शाम ढल चुकी थी, 7.30 बज रहे थे। जे.जे. अस्पताल के पिछले प्रवेश द्वार पर मैं टैक्सी से उतरा। बरसात लगातार जारी थी। मानो आसमान भी शोक मना रहा था। तभी सामने से एक एम्बुलेंस गुजरी। मैंने अंदर झाँकने की कोशिश की पर निराशा ही हाथ लगी, एम्बुलेंस नहीं रूकी। सिक्युरिटी कक्ष की ओर रुख किया, तो उसने हाथ के इशारे से वो दिशा दिखा दी। मेरे कदम अब एनॉटोमी (विक्षति) विभाग की ओर बढ़ रहे थे। अस्पताल के अंतिम छोर पर स्थित उस विभाग का पूरा परिसर भयावह था. 

 साप्ताहिक अवकाश का दिन (रविवार) और रात का समय। नॉर्मली चहल-पहल और भीड़-भाड़ वाला इतना बड़ा अस्पताल इस समय सूनसान हो गया था, जैसे कोई भयानक भूतखाना हो। इक्का, दुक्का लोग आते-जाते दिखाई दे रहे थे।पूछ-ताछ करते जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ रहा था मंजर और डरावना होता जा रहा था, किसी हॉरर फिल्म के दृष्य की तरह। कभी तेज तो कभी हल्की बूंदाबांदी, रातकीड़ों की आवाज और बादलों की गड़गड़ाहट जारी थी। 

आलोक जी की पुरानी यादों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा थाl मन ही मन हनुमान चालीसा का जाप भी शुरू था। जिंदगी में पहली बार इस तरह की स्थिति का सामना कर रहा था अतः हिम्मत से काम लेना जरूरी थाl तभी सामने कुछ लोगों को स्ट्रेचर पर एक बॉड़ी ले जाते हुए देखा। कयास लगाते हुए मैं भी उन्हीं के पीछे हो लिया।

अब मैं वहां पहुँच चुका था, जहां मुझे पहुँचना था। पूछ-ताछ करने पर पता चला कि वह बॉड़ी किसी और की थी, शायद अस्पताल के अंदर से लाई गई थी इसलिए उन्हें किसी खास प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ा। बॉडी कोल्ड स्टोरेज (शवागार) में रख दी गई और वे लोग चले गए। वह इलाका फिर सूनसान हो गयाI

वहां अब हम सिर्फ चार लोग बचे थे। अन्य तीन लोग अस्पताल के ही कर्मचारी थे जो पहले से ही टुन्न थे। मैंने पूछा, "भाई डोंबिवली से एक बॉडी आने वाली थी, क्या वह आ गई ?"  

"अच्छा तो तुम डोंबिवली से आएले क्या ? सूचना तो मिली है पर बॉड़ी अभी नही आयी बाबा। जरा फोन करके पूछो ना, गाड़ी कहां तक पहुंच गईली है? वो क्या है ना ! फिर आपुन लोगो को दूसरा काम भी तो करना है ना, म्हणजे खान-पान वैगैरह… ए गण्या ! ये साहब आ गएले हैं अब ज्यादा टायम नहीं लगेंगा, तू जा जल्दी से सामान लेके आ, नहीं तो दुकान बंद हो जायेंगी, आणि चखना देखकर लाना, आणि हे बाबा..वो जेवण (खाना) का भी देख लेना….।"   

उनका आपस में कुछ संवाद होने लगा। मैंने अपनी तरफ से कुछ नोट पकड़ा दिएl गण्या ने पैसे लिए और अगले मिशन की ओर चल पड़ा। उस सूनसान भयावह जगह को देखकर लगा कि इन लोगो के लिए वह सामान बड़ा जरूरी है, वरना ये लोग यहां ड्यूटी नहीं कर सकते। अब वह व्यक्ति जो पॅन्ट शर्ट में था, मेरी ओर मुड़कर, "साहेब बसा (बैठो) ना ! कब तक खड़े रहेंगे? "

मैं उसके बगल में बैठ गया। उसकी नजरें चुराते हुए सबसे पहले मैंने अपनी अंगुठी और गले की चैन निकालकर पैंट की जेब में रख ली, फिर समय काटने के लिए व्हाट्सअप का सहारा लिया। मगर समय नहीं कट रहा था। अब वह व्यक्ति इधर-उधर की, फिर राजनीति की, फिर समाज सेवा की बातें करने लगा। मैं हां में हां मिलाता रहा। दिमाग कहीं और तो नजरें कुछ और तलाश रही थीं। कुछ देर बाद देखा तो सामने से एक युवक आ रहा था, टी-शर्ट पर सफेद एप्रन, काले रंगे की पैंट, आँखों पर चष्मा और हाथ में पेन।

"डॉक्टर आले (आ गए)" की आवाज ने मेरे बेचैन मन को राहत दी। मैंने लंबी साँस ली और उस अचानक से आए देवदूत की ओर बढ़ गया I

" फोन आया है कि डोंबिवली से एक बॉडी आ रही है, दस-बीस मिनट में पहुँच जाएगी, तुम लोग जल्दी से आगे की तैयारी करो। "

"हो साहेब, आता करतो (अभी करते हैं) ये साहेब पण उसी का इंतजार कर रहे हैं।" 

संवाद खत्म होते ही एक और आदमी पीछे की ओर से आया तथा डोंबिवली से आने वाली बॉड़ी के बारे में पूछ-ताछ करने लगा। मैंने अपना परिचय दिया। अब वह मेरे बगल में आकर बैठ गया और मुझसे संवाद करने लगा।

" जिनकी बॉड़ी आ रही है, वे कोई बड़े साहित्यकार या कवि थे क्या ?"   

"हाँ, उनका नाम आलोक जी है। "

" सर मैं पांगे, अस्पताल का स्टाफ हूँ, मुझे साहब ने भेजा है आप लोगो की मदद के लिए, महापौर के पी.ए. का फोन आया था। मैं आपके साथ हूँ, चिंता मत करोI सर, अभी हम लोग सिर्फ पेपर वर्क करेंगे और बॉड़ी कोल्ड स्टोरेज में रखे लेंगे, बाकी की प्रक्रिया कल सबेरे 9.00 बजे होगी। मैं सुबह फिर आ जाऊंगा, आधे घंटे का काम है। "

उसकी बात को आगे बढ़ाते हुए डॉक्टर बोला, "हाँ, शव विच्छेदन सबेरे होगा, स्टुडेंटस आने के बाद। आवश्यक बॉडी पार्ट लेने के बाद, परिवार वाले यदि चाहें तो धार्मिक विधि के लिए शेष अवशेष ले जा सकते हैं अन्यथा अस्पताल द्वारा आगे की प्रक्रिया भी की जाती है…..। "  

डॉक्टर की बात खत्म हो इसके पहले ही सामने से एक छोटी एम्बुलेंस आई। ये वही गाड़ी थी जिसका हम सबको इंतजार था। गाड़ी में से दो व्यक्ति उतरे। आगे बढ़कर मैंने अपना परिचय दिया, तो पता चला कि उनमें से एक गयाचंद जी और दूसरे तुषार जी (आलोक जी के भाई) थे। 22- 23 साल का एक लड़का… कबीर (आलोक जी का बेटा) बॉड़ी के साथ गाड़ी में बैठे-बैठे पिताजी को टुकुर-टुकुर निहार रहा था। 

मुझे देखकर वे दोनों चकित हो गए। उन्हें इसकी उम्मीद नहीं थीI बिना किसी औपचारिकता के त्रिवेदी जी ने कागजी कार्रवाई के लिए मुझे और तुषार जी को डॉक्टर के चेम्बर में भेज दिया। वहां एक लिपिक ने कागजी कार्रवाई करते हुए एक समस्या उठाई I 

जिस अस्पताल में इलाज चल रहा था, वहां के डॉक्टर ने हस्ताक्षर के नीचे रजिस्ट्रेशन नंबर का छापा नहीं मारा है। हमने गौर से देखा, बात सही थी I मगर इसमें हमारी क्या गलती थी? लेटरहेड पर वह नंबर प्रिंट था। अत: हमने विनती की कि रात के 10 बजे डोंबिवली तक जाकर वापस आना सम्भव नहीं है सर.. कोई रास्ता निकाले I 

कुछ देर तक वह सोचता रहा, फिर बाहर गया, किसी से बात कियाI लौटकर आया तो हमने हाथ जोड़कर पुनः विनती की I हम दोनों को उसने गौर से देखा और अंततः इस आश्वासन के बाद वह लिपिक मान गया कि कल सुबह इस काम को हम लोग करवाकर ले आएंगे, तब आगे की प्रक्रिया होगी ।

डॉक्टर के साथ हम लोग चेंबर से बाहर आए। एम्बुलेंस से बॉड़ी उतारकर स्ट्रेचर पर रखी गई और गण्या उसे कोल्ड स्टोरेज (शवागार) की ओर ले जाने लगा। खान - पान का इंतजाम करके गण्या समय से लौट आया था I स्ट्रेचर अंदर ले जाने से पहले वह गेट पर रूका, तब एक अन्य कर्मचारी ने पीतल का एक बिल्ला निकाला और आलोक जी के हाथों पर बांधते हुए डॉक्टर से बोला,

"साहेब, बिल्ला नंबर 64 नोट करा (करो) और बॉड़ी पर कोई मूल्यवान वस्तु है कि नहीं, इसकी भी खात्री करके लेओ, हे सरकारी नियम हाय।" और उसने बॉडी से कफन हटा दिया।

हरे रंग का कुर्ता, उस पर पतली सफेद धारियां तथा पायजामा पहने आलोक जी मौन थे, बेफिक्री से सो रहे थे। नाक और मुँह में कापूस ठूंसा गया था। चेहरा बिल्कुल भी मुरझाया नहीं था। लग रहा था जैसे अभी उठेंगे और एक ओजस्वी कविता हम सबको सुना देंगेI ये लंबी-लंबी, कठिन और छंदमुक्त की दो-दो पन्ने की कविताएं उन्हें कंठस्थ रहती थीं I दुनियाभर के सन्दर्भ उनकी जुबां पर होते थेI 

वह युवा डॉक्टर हम लोगो की ओर देखने लगा। कबीर और तुषार आगे बढ़े। कबीर ने कुर्ते की जेब टटोली और उसमें से निकली एक कलम….।

 कबीर फफक पड़ा। एक बार फिर घुमड़ती पीड़ा की गठरी खुल ही गई थी। हम सबकी आँखें फिर से नम हो गई थीं। एक लेखक के पास इससे मौल्यवान वस्तु भला और क्या हो सकती थी ! उस ओजस्वी कवि को हमने अंतिम सलाम किया और कबीर को सँभालते हुए बाहर आ गए।

“कल सबेरे आने के बाद बिल्ला नंबर 64 बोलने का, फिर बॉड़ी मिलेंगी।” और गण्या ट्रॉली को ढ़केलते हुए अंदर की ओर बढ़ गया।

डॉ. रमेश यादव.  मुंबई.  

(फोन -9820759088 / 7977992381)