सात फेरे Vaidehi Vaishnav द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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सात फेरे

(नमस्कार प्रिय पाठकों (मित्रों) मेरे द्वारा लिखी यह कहानी पूरी तरह काल्पनिक हैं । किसी भी व्यक्ति का नाम या कहानी का कोई क़िस्सा सयोंग ही होगा। कहानी के शीर्षक के आधार पर जो सात वचन मैंने लिए हैं वो वास्तविक हैं । कहानी का उद्देश्य समाज में महिलाओं की स्थिति को दर्शाना हैं किसी भी वर्ग की भावना को ठेस पहुँचाना नहीं हैं। )

तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्याः।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी।।

कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा पर जाएं तो मुझे साथ लेकर जाइए। किसी भी व्रत-उपवास या अन्य धार्मिक संस्कारों में मुझे आज की तरह ही अपने वाम भाग में स्थान दीजिए। यदि आप जीवन-यात्रा के लिए मुझे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वाम अंग में आना स्वीकार करती हूं।

" स्वीकार हैं " .....

यज्ञवेदि की लपलपाती हुईं अग्नि को साक्षी मानकर जब शास्वत ने " स्वीकार हैं " कहा था तब अग्नि की लपटें भी मानो चंदन सी शीतल हो गई थीं औऱ यह सुनकर मेरे मन के मंजीरे बजने लगें थें।

आज वहीं मन ज्वालामुखी सा धधक रहा हैं , गर्म आँसू लावा की तरह मेरे गालों को जला रहें हैं ।
आज जो शब्दों के ख़ंजर शाश्वत ने भोंके हैं उनसे मेरा सीना छलनी हो गया हैं ।

" तलाक क्यों नहीं ले लेतीं हों तुम "

अब भी तलाक शब्द गूंज रहा हैं मेरे कानों में ।
कितना भारीपन हैं इस शब्द में ? जीवन यात्रा के लिए स्वीकार करने वाले वचन क्या बस यूँ ही कह दिए थें ?

" हाँ " - झुठे ही हैं वो सारे वचन जो सात फेरों के समय वर द्वारा वधू को दिए जाते हैं। झूठ के पुलिंदों पर गढ़े जाते हैं रिश्ते जिन्हें बंधन की तरह सिर्फ़ औरत ही निभाती हैं। क्योंकि औरत तो बनी ही बंधनो में बंधने के लिए हैं । उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व कहाँ होता हैं ?

स्त्री तो किसी कठपुतली की तरह होतीं हैं न ?
या फिर कसाई के खूंटे से बँधी हुईं भेड़ या बकरी ? जिसके जीवन की डोर किसी औऱ के हाथ में होतीं हैं , जिसे जैसे चाहें रखों या नचा लो अपने इशारों पर । वह कैसे उठेंगी , बैठेंगी , चलेंगी , बोलेंगी , हँसेंगी सब कुछ तयशुदा होता हैं। अगर वह ज़्यादा हँस दें , बोल दें , अपनी मर्जी से जी ले तो वह सभ्य समाज में रहने लायक नहीं होतीं हैं। कौन तय करता हैं यह पैमाने ? भले घर की लड़कियों की परिभाषा कहाँ पर औऱ किसने लिखीं ?

आज मेरा कसूर बस यहीं था कि शाश्वत की ऑफिस पार्टी में जाने का मेरा मन नहीं था फिर भी शाश्वत का मन रखने के लिए बेमन से मैं चली गई थीं । पार्टी में शामिल होने के बाद भी मेरा मन बोझिल ही रहा क्योंकि मेरे पति को इस बात से समस्या हो गई कि उनके बॉस ने मेरी तारीफ़ क्यों कर दीं ? फिर जनाब आ गए मेरे पहनावें पर की मैंने स्लीवलेस ब्लाउज क्यों पहना ? मेरे पति के अनुसार सब लोग मुझें इसलिए देख रहें थे क्योंकि मैंने स्लीवलेस ब्लाउज पहना हुआ था इसलिए नहीं कि मैं सुंदर हुँ। मेरे पति मिनी स्कर्ट पहनें हुए कॉलीग महिला साथी के साथ डांस कर रहें थें तब वह जायज़ था लेक़िन मेरा उनके किसी साथी मित्र से जवाबी तौर पर मुस्कुराहट के साथ बात करना भीं मेरे पति के लिए नागवार गुजरा । इस बात से शाश्वत ने जमानेभर की बातें मुझें सुना दी थीं । औऱ मेरे इतना सा कहने भर से वह बिफ़र गए थे कि वह भी तो पार्टी में मौजूद हर महिला से गले मिलकर उनका अभिवादन कर रहे थे , मैंने तो कोई प्रतिक्रिया नहीं दीं औऱ मैं तो उस पार्टी का हिस्सा बनना भी नहीं चाहतीं थी उन्हीं की ज़िद थीं मुझें वहाँ ले जाने की।

कटाक्ष औऱ कुटिल हँसी हँसते हुए शाश्वत ने कहा था - " मेरा तो यहीं स्वभाव हैं और रहेगा। आगे भी हर पार्टी में मैं अपनी महिला मित्र से ऐसे ही मिलूँगा। तुम्हें कोई समस्या हो तो तलाक़ क्यों नहीं ले लेतीं हों तुम ? "

औरत कोई सामान नहीं हैं जिसे जब चाहा अपनाया औऱ छोड़ दिया। आज पहली बार महसूस हुआ था कि मैं बहुत अकेली हुँ इस दुनिया में। किसी के साथ होकर भी अकेला महसूस करना बहुत तकलीफ देता हैं। क्या मुझें वाकई अब इस जंग लगें रिश्ते से निजात पा लेनी चाहिए ? क्या मुझें सच में तलाक ले लेना चाहिए ?

ऐसे अनगिनत सवालों का बोझ लिए अपनी ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी मैं अपने गहने उतारने लगीं । गले की कंठी को मैंने ऐसे खींच कर निकाला जैसे वो गले में पड़ा कोई फंदा हो , उसी के साथ मेरा मंगलसूत्र भी खींच गया था। मैंने मंगलसूत्र को अपनी मुट्ठी में रख लिया औऱ मैं अतीत के घने सायो में खो गई।

वह रामनवमी का दिन था जब शाश्वत का परिवार मेरे घर रिश्ता लेकर आया था। हॉल में देश - विदेश की चर्चा के साथ ठहाके गूँज रहें थे। मैं औऱ शाश्वत बॉलकनी में खड़े थें । मैंने अपने बारे में लभभग सभी जरूरी बातें शाश्वत को बता दी थीं मसलन मुझें साड़ी पहनना नहीं आता हैं , खाना बना लेतीं हुँ लेक़िन स्वादिष्ट ही बने इसकी कोई गारंटी नहीं हैं। मैं मॉर्डन विचार की जरुर हुँ लेकिन हुँ विशुद्ध भारतीय। मैं किताबी कीड़ा हुँ औऱ मुझें चाय बहुत पसंद हैं। मेरी बातों को सुनकर शाश्वत मुस्कुरा दिया था।

वह बोला - " मुझें चाय पसन्द नहीं हैं लेक़िन चाय को पसंद करने वाली लड़की बहुत पसन्द हैं ।
शाश्वत की बात सुनकर मेरी आँखें शर्म से झुक गई।

शाश्वत ने धीमें से कहा - तुम्हें मेरे बारे में कुछ नहीं पूछना हैं ?

मैंने ना में सिर हिला दिया था। मेरा रिश्ता तय हो गया था। दादी कहने लगीं राम नवमी पर जानकी के लिए राम आए हैं ।अगले ही महीने मेरी शादी हो गई औऱ मैं अपने ससुराल में थीं । शुरूआती दिन ऐसे गुजरे जैसे मैं परियों की दुनियां में हूँ। ज़िंदगी इंद्रधनुष सी सतरँगी हो गईं थीं । पर इंद्रधनुष कहाँ हमेशा रहता हैं ? धीरे - धीरे मेरी ज़िंदगी भी बेरंग होने लगीं थीं । जैसे परियों की कहानी महज सपना होतीं हैं वैसे ही मेरी ज़िंदगी एक सपने की तरह हो गईं। सपनों की दुनिया आँख खुलते ही ग़ायब हो जाती हैं। ऐसे ही एक सुबह मेरी आँखें खुली या यूँ कहूँ की फटी की फटी रह गई औऱ सच्चाई के धरातल पर खड़ी मैं ख़ुद को ठगा सा महसूस कर रही थीं।

सुबह का समय था । मैं किचन में शाश्वत के लिए टिफिन तैयार कर रहीं थीं। तभी सासु माँ आई औऱ मुझसें बोली - बेटा जल्दी से जा औऱ देख शाश्वत क्या ढूंढ रहा हैं ? पूरा घर सिर पर उठा लिया हैं लड़के ने । मैं तेज़ी से अपने रूम की औऱ गईं। रूम में सामान बिखरा पड़ा था। मैंने ड़रते - सहमते हुए शाश्वत से पूछा - " आप क्या ढूंढ़ रहें हैं " ?

शाश्वत ने ग़ुस्से से मुझें घूरा औऱ बिना कुछ कहे कसकर एक तमाचा मेरे गाल पर जड़ दिया । यह पहली बार था जब शाश्वत ने मुझ पर हाथ उठाया था। वह बोले कितनी बार कहा हैं मेरे सामान को हाथ मत लगाया करों । लेपटॉप के साथ मेरे जरूरी कागजात भी रखें थे , कहाँ हैं वह ?

थप्पड़ का असर था या मैं निष्प्राण हो गई थीं । मेरे मुहँ से शब्द नहीं निकलें। शाश्वत ग़ुस्से में शब्दों की मर्यादा को लाँघता गया , मुझसें लेकर मेरे माता- पिता यहाँ तक की खानदान पर पहुँच गये। उनके शब्द तीर की तरह चुभ रहें थे। थप्पड़ से भी ज़्यादा तकलीफ़देह थे हर वो शब्द जो उन्होंने मेरे परिवार के लिए कहें । मेरा मन अतीत में जा पहुँचा औऱ ठहर गया शादी के मंडप में। पंडित जी के शब्द गूँजने लगें ।

पूज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्याः
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम।।

कन्या अपने वर से दूसरा वचन मांगते हुए कहती है - जिस तरह आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी तरह मेरे माता-पिता का भी सम्मान करेंगे ।।

आज शाश्वत ने पहली बार सात फेरों का दूसरा वचन तोड़ा था। शाश्वत ने मेरे माता - पिता , भाई - बहन सबके लिए ज़हर उगला था। जिसके दंश से मैं सिहर उठी औऱ अतीत से वर्तमान में आ गई ।

मैं बुत बनी खड़ी रहीं औऱ चुपचाप सुनती रहीं । मैं वहीं लड़की थीं जो अपने माता - पिता के ख़िलाफ़ एक शब्द भी सुन लेने पर सामने वाले का सिर फोड़ देतीं थीं ।

पर आज मैं चुप हूँ क्योंकि मैं अब विवाहित हूँ । अगर मैं प्रतिक्रिया दूँगी तो मैं संस्कारहीन हो जाऊँगी। चुप रहकर सहने वाली लड़कियाँ ही तो अच्छे घर की लड़कियां कहलाती हैं। जो अपने अस्तित्व के लिए लड़ ले वो तो बदचलन औऱ कुल्टा मानी जाती हैं । क्योंकि वो स्त्री हैं उसे कोई हक नहीं हैं अपने लिए लड़ने का , उसे तो सब कुछ चुपचाप सहना होगा। इसीलिए तो हर महिला ने अपनी आकांक्षाओ की , भावनाओं की , सपनों की सीमाएं बाँध ली हैं औऱ समाज के हर आदमी ने इन सीमाओं पर कंटीली रूढ़ियों रूपी झाड़ियों को बाँधने में बहुत सहायता कीं ।घर की चारदीवारी में ख़ुद को समेंटकर रखने वालीं औरतों को समाज ने ख़ूब शाबाशी दीं। पुरूष प्रधान समाज डरता हैं स्त्री की शक्तियों से इसलिए वह उसे बंधन में रखता हैं । जागरूक महिला को दबाना आसान नहीं होता इसलिए ये समाज चाहता हैं कि महिला हमेशा चारदीवारी में रहें औऱ अपने अधिकारों से वंचित रहें। समाज जानता हैं कि हर स्त्री में यह ताकत होतीं हैं कि वह अपने दम पर अपना जीवन निर्वाह कर सकती हैं। औऱ अगर ऐसा हो गया तो पुरुषों का सहारा छीन जाएगा इसीलिए स्त्री को बचपन से पुरुषों के अधीन करके रखा जाता हैं औऱ यह प्रयास किया जाता हैं कि वह बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक पुरुषों की छत्रछाया में रहें। पहले पिता.. फिर पति..फिर बेटे के अधीन ।

हमारे समाज में चाहे अनचाहे शुरू से स्त्रियों को दोयम दर्ज़ा दिया गया और अगर वे नौकरीपेशा हैं तब भी परिवार की ज़िम्मेदारी का बोझ उन पर डाल कर उन्हें केयर-टेकर बना दिया जाता है।
मैं भी शाश्वत के लिए एक केअर - टेकर ही थीं।

शाश्वत भनभनता हुआ कमरे से चला गया । उनके जाते ही सासु माँ कमरे में आईं औऱ मुझें समझाते हुए बोलीं - बेटा , किसी भी बात को दिल पर मत लेना। पता नहीं शाश्वत को आज क्या हो गया वर्ना वो ऐसा क़भी नहीं करता। पति - पत्नि के बीच तो यह चलता हैं ।

" चलता हैं "... यहीं चलता हैं ही तो सारी मुसीबतों की जड़ हैं । तभी तो महिलाओं पर अत्याचार होंते हैं औऱ होंते हीं रहेंगे। शाश्वत का हाथ खुल गया था औऱ यह सिलसिला भी चलता ही रहा। अपनी कमजोरी को वो अक़्सर मुझ पर हाथ उठा कर जाहिर करता औऱ समझता था कि वह ताक़तवर हैं।

सारा दिन मैं गुमसुम सी रहीं । मुझें लगा जैसे मेरा मन मुझमें हैं ही नहीं । उस थप्पड़ के प्रहार से उड़ गया हैं मन किसी वीरान मरुस्थल में। मैं कट रहीं थीं या दिन ?

मेरे फ़ोन की रिंगटोन ने मेरा ध्यान दूर क्षितिज से मेरे फ़ोन पर केंद्रित कर दिया । स्क्रीन पर पतिदेव कॉलिंग ब्लिंग कर रहा था। मैंने कॉल रिसीव किया तो शाश्वत हौले से बोलें - सॉरी जानू डॉक्युमेंट्स कार में ही रह गए थें। मुझें लगा था मैं लेपटॉप के साथ उन्हें भी ले आया था।क्या मुझें माफ़ कर पाओगी ? मैं अपने किये पर बहुत शर्मिंदा हूँ ।

महिला का कोमल ह्रदय प्रेम से पिघल जाता हैं। मैं मुस्कुरा दीं औऱ कहा - मैं आपसे नाराज़ नहीं हूँ।

कोमलता ही तो कुचली जाती हैं । कठोर काँटो से जरा सा भी छू जाओ तो लहूलुहान कर देते हैं लेक़िन कोमल फूल हर बार कुचल दिए जातें हैं।एक बार फ़िर से मेरे कोमल ह्दय को शाश्वत ने रौंद दिया। इस बार शाश्वत ने सात फेरों के तीसरे वचन को तोड़ा था।

जीवनं अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृतीयं।।

कन्या अपने वर से कहती है कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं यानी युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था में मेरा पालन करेंगे, तो मैं आपके वाम अंग में आना स्वीकार करती हूं।

" स्वीकार हैं " - शाश्वत ने पूर्ण आत्मविश्वास से कहा था।

लेकिन उनका यह आत्मविश्वास उस दिन लड़खड़ा गया जब मैं बीमार थीं। पूर्णरूप से स्वस्थ शाश्वत की जो देखभाल मैंने हर दिन की वैसी देखभाल शाश्वत दो दिन भी नहीं कर पाए । मैं शाश्वत को हर सामान उनके हाथ मे देतीं किसी सेवक की भांति उनकी चाकरी करतीं। उनके कपड़े , जूते - मौजे , रुमाल , गाड़ी की चाबी , घड़ी ,ऑफिस से सम्बंधित सारी जरूरी चीजें सब कुछ मैं उनके हाथ में दिया करतीं थीं । किचन से दौड़ - दौड़कर उन्हें गर्म रोटी परोसा करतीं। शाश्वत को ज़रा सा मौसमी बुखार भी आ जाता तो मैं तड़प जाती थीं।उनकी देखभाल किसी नन्हें शिशु की तरह करतीं।पर मेरा बीमार होना भी शाश्वत के लिए नाटक ही रहता। जब मुझें उनकी सबसे ज़्यादा जरूरत महसूस होतीं तब ही उनका रवैया किसी फैक्ट्री के खड़ूस मालिक की तरह हो जाता जैसे मजदूर के बीमार पड़ने से कामकाज ठप्प हो गया हों । मेरा पालन कर पाना शाश्वत के लिए बोझ की तरह था ।

अतीत की कड़वी यादों के झोंके से मैं तिलमिला उठी। मैंने अपनी मुट्ठी कसकर भींच ली। मेरी मुट्ठी में रखा मंगलसूत्र मुझें ठीक वैसे ही चुभा जैसे शाश्वत औऱ मेरा रिश्ता चुभ रहा था।

मैंने एक नजर गहरी नींद सो रहे शाश्वत को देखा
वह किसी मासूम बच्चें की तरह लग रहें थें । मेरा दिल फिर से पिघलने लगा।

मैं आईने में अपने ही अक्स को देखकर बुदबुदाई
आसान नहीं होता हैं रिश्तों के बंधन को तोड़ना ।
एक बार फिर शादी की वेदी पर जा पहुँची थीं मैं...

कुटुंबसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कांतं कुर्याः।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थ।।

कन्या चौथे वचन में अपने वर से कहती है कि अब तक आप (विवाह से पूर्व) घर-परिवार की चिंता आदि से मुक्त थे। चूंकि आप विवाह करने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की आवश्यकताओं का दायित्व आप पर है। यदि आप इस दायित्व को ग्रहण करते हैं तो मैं आपके वाम अंग में आना स्वीकार करती हूं।

क्या वाकई शाश्वत ने अपने दायित्वों को बख़ूबी निभाया ? आवश्यक वस्तुओं के लिए बीसियों बार मैंने इंतज़ार किया था। उन्हें तो आवश्यक ख़र्चे भी फिजूलखर्ची लगतें। कुछ कहने पर शाश्वत का यहीं जवाब रहता - कोल्हू का बेल नहीं हूँ कि बस पिसता रहूँ।

स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मंत्रयेथा।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वचः पंचमत्र कन्या।।

इसमें कन्या वर से कहती है कि विवाह के बाद आप घर के कार्यों में, विवाह व अन्य संस्कारों, वस्तुओं व धन के लेन-देन, किसी भी प्रकार के व्यय आदि में मेरी राय लें तो मैं आपके वाम अंग में आना स्वीकार करती हूं।

"स्वीकार हैं " - शाश्वत ने मुझें देखते हुए यह वचन दिया था। कितना आसान हैं न स्वीकार हैं कह देना पर उतना ही मुश्किल हैं उसे निभाना। शाश्वत यह वचन भी नहीं निभा पाए ।

पाँचवा वचन भी शाश्वत ने किसी तिनके की तरह तोड़ दिया था। वह अक़्सर अपने दोस्तों या ऐसे लोगो पर रुपये ख़र्च कर दिया करते थे जो लोग उनसे सिर्फ मतलब से जुड़ते। मुझें उनकी यह फिजूलखर्ची नापसंद थीं । जिसका विरोध में समय - समय पर कर दिया करतीं । मुझें याद हैं मेरे इकलौते भाई की सगाई के लिए मुझें रुपये देतें समय मुहँ बिचकाकर बड़बड़ाए थे वो - " कौन सा कहीं का राजकुमार हैं कि सगाई के लिए इतनी जोरो - शोरों से तैयारी की जा रहीं हैं "

यह सुनकर मेरा मन तो किया था कि रुपये शाश्वत के मुहँ पर दे मारू, पर फिर हर बार की तरह अपने मन को मार दिया था।

मन को मार देने पर वह किसी घायल परिंदे की तरह फड़फड़ाने लगता हैं। बार - बार आहत होंते मन से प्रेम रिसकर खत्म होनें लगता हैं । प्रेम की कमी रिश्तों के समीकरण बदल देतीं हैं औऱ फिर एक नई प्रमेय की रचना होने लगतीं हैं। रिश्तों की इस प्रमेय की गुत्थी भी ठीक उसी तरह उलझन भरी होतीं हैं जैसे गणित की प्रमेय हुआ करती हैं। मैं अपनी ग़लती न होने पर भी अक़्सर झुक जाया करतीं थीं औऱ रूठे शाश्वत को मना लेतीं थीं । लेकिन जब शाश्वत ने मेरी सहेलियों के सामने मुझें अपमानित किया था तब मैं महीनों नाराज़ रहीं थीं शाश्वत से। इस बार शाश्वत ने सात फेरों का छठा वचन तोड़ा था ....

न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुव्र्यसनं भंजश्चेत।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम।।

कन्या अपने वर से कहती है कि जब मैं मेरी सखियों अथवा अन्य महिलाओं के बीच बैठी हूं तो आप उनके सामने किसी भी कारण से मेरा अपमान कभी नहीं करेंगे।

यदि आप जुआ और किसी भी प्रकार की अन्य बुरी आदतों (व्यसनों) से दूर रहें तो ही मैं आपके वाम अंग में आना स्वीकार करती हूं।

" स्वीकार हैं " - शाश्वत के कहते ही पीछे बैठी सहेलियां एक साथ बोली थीं - क्या बात हैं जीजू सारी शर्ते स्वीकार हैं। उनकी इस बात पर मंडप में मौजूद सभी लोग हँस दिए थे।

जब यहीं सहेलियां पहली बार मेरे ससुराल मुझसें मिलने आई थीं। वो सभी बहुत खुश थीं यह देखकर की मेरी शादी अच्छे घर में हुई हैं औऱ मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ कि मुझें जीवनसाथी के रूप में शाश्वत मिले । चंद मिनटों बाद ही जब डोरबेल बजी औऱ सासु माँ ने दरवाजा खोला तो तूफ़ान की तरह शाश्वत ने घर में प्रवेश किया और वह तेज़ी से कमरे में चले गए । उन्होंने दरवाजा इतनी जोर से बंद किया जिसके शोर से मेरी सहेलियां सहम गईं।

तुम लोग नाश्ता करों ,मैं अभी आई - कहकर मैं रूम में गईं । शाश्वत ने अपने मुहँ को दोनों हाथों से ढक रखा था। मुझें लगा ऑफिस में कोई गड़बड़ हुई हैं उसी से परेशान हैं। जैसे ही मैंने शाश्वत के कँधे पर हाथ रखना चाहा बरबस ही मेरा हाथ पीछे हट गया। शाश्वत के शर्ट पर लेड कलर की लिपस्टिक का मार्क था औऱ वहीं लेडीज़ परफ्यूम की भीनी खुशबू जो हर बार शाश्वत की शर्ट से आती थीं। मेरा मन भर गया ।
मन से उभरता , उफनता दर्द आँखों से छलक गया। ख़ुद को संभालते हुए मैंने हौले से पूछा - सब ठीक तो हैं न ?

बाहर का गुस्सा मुझ पर उतारते हुए शाश्वत चीख़कर बोले - तुम्हारे रहतें कुछ भी ठीक कैसे हो सकता हैं ? तुम जाओ जानकी पार्टी करों अपनी सहेलियों के साथ औऱ भगवान के लिए मुझें अकेला छोड़ दो। यह कह कर शाश्वत ग़ुस्से से उठकर चलें गए ।

मैं अब जानू से जानकी हों गई थीं। यह पहली बार था जब शाश्वत ने मुझें मेरे नाम से बुलाया था।

मैं रूम से बाहर आ गईं । बाहर आकर मैंने आँखों से आँसू पोछे एक गहरी साँस ली औऱ चेहरे पर मुस्कान के साथ फिर से शामिल हो गई अपनी सहेलियों के झुंड में। मेरे लाख खुद को सामान्य दिखाने के बावजूद वे सभी समझ गई थीं कि कुछ तो गड़बड़ हैं जिसे मैं अपनी झूठी हँसी से छुपा रहीं हूँ।

वो सभी एकदम से उठ गई औऱ बोलीं - अच्छा जानकी हम चलते हैं जरूरी काम से मार्केट जाना हैं । फिर कभी फुर्सत में आएंगे औऱ गप्पे लड़ाएंगे। कुछ देर पहले जो सहेलियां मुझें खुशकिस्मत कह रहीं थीं उन्हीं की आँखों मे विदा लेते समय मेरे लिए हमदर्दी के भाव थें।

उस रात शाश्वत देर रात को घर लौटे । मैं उनके इंतज़ार में जाग रहीं थीं। शाश्वत लड़खड़ाए कदमों से आए मैंने उन्हें सँभालने की कोशिश की तो उन्होंने मेरा हाथ झटक दिया बोले - दूर रहो मुझसें। इस बार लेडीज़ परफ्यूम की भीनी खुशबू नहीं थीं बल्कि तेज़ दम घुटा देने वाली बदबू थीं।
मैं हक्की - बक्की रह गईं - " शराब " ?

मैंने शाश्वत से बातचीत करना बंद कर दिया। बहुत ज़रूरी होने पर ही मैं उनसे बात करतीं थीं ।

शाश्वत ने इस बार मुझें मनाने की बहुत कोशिश की। डिनर प्लान किया ,ऑफिस से जल्दी छुट्टी लेकर मूवी देखने जाने की ज़िद की लेकिन मैंने जानें से मना कर दिया।

लिपस्टिक मार्क औऱ परफ्यूम की भीनी खुशबू ने मन में कड़वाहट घोल दी थीं । मैं चाहकर भीं नहीं भूल पा रहीं थीं की मेरे पति का किसी महिला के साथ संबंध हैं । मैंने मन को हर तरह से समझाया कि हो सकता हैं जो मैं सोच रहीं हुँ वह गलत हों। कई बार जो दिखता हैं वह सच नहीं होता। पर मेरे मन को समझाना मुश्किल था। अब मैं औऱ शाश्वत एक रूम में दो अजनबी की तरह रहने लगें थे। उनका छूना भी मुझें तकलीफ़ देने लगा था , ऐसी तकलीफ़ जैसे शरीर पर किसी ने एक साथ हजारों नश्तर चला दिए हों ।

मेरे स्वभाव में आए बदलाव को शाश्वत सहन नहीं कर पाएं। एक दिन वो मुझसें बोलें - जानू मेरे सिर पर हाथ रखकर बताओं की आख़िर बात क्या हैं ? तुम इतनी कटी - कटी सी मुझसे दूर क्यों रहने लगीं हों ?

मैंने कहा - ऐसी तो कोई बात नहीं हैं।

शाश्वत ने मेरे हाथ को अपने सिर पर रखते हुए कहा - अब यहीं बात फिर से कहो ।

मैंने हाथ हटाना चाहा पर शाश्वत ने कसकर मेरा हाथ पकड़े रखा। मैंने लिपस्टिक वाली बात कह दीं । इस बात पर शाश्वत खिलखिलाकर हँसते हुए बोले - अरे पगली ! उस दिन विशाल के घर से अचानक फोन आया कि लड़की वाले देखने आए हैं 15 - 20 मिनट के लिए घर आ जा । उसने मुझसें कहा तेरा शर्ट अच्छा लग रहा हैं बस फिर क्या था हमने शर्ट की अदला - बदली कर लीं। मुझे शाश्वत की बताई कहानी पर यक़ीन तो नहीं हुआ पर फिर भी जिस आत्मविश्वास से उन्होंने कहानी सुनाई थीं उससे मैंने मान लिया कि यहीं सच हैं।

इस घटना के बाद लौट आई थीं खुशियां औऱ वो सारे रंग जो गुम हो गए थे। बेरंग सी ज़िंदगी में खुशियों के रंग घुलने लगें थे। लेकिन काली स्याही ने फिर से अंधेरा उकेर दिया था।

वो जनवरी की सर्द सुबह थीं । मेरे जन्मदिन के ठीक एक दिन बाद कि सुबह । मेरे जन्मदिन पर शाश्वत ने पार्टी का आयोजन रखा था जिसमें उनके ऑफिस का पूरा स्टॉफ , परिवार के सभी क़रीबी लोग औऱ मेरी सभी सहेलियां थीं । शाश्वत ने मेरी सहेलियों से उस दिन के लिए माफ़ी भी माँगी थीं औऱ उन्हें बताया था कि उस दिन ऑफिस के टेंशन में था औऱ मेरा बिहेवियर ठीक नहीं था। मेरी सभी सहेलियों की गलतफहमी दूर हो गई थीं।

शाश्वत ऑफिस चलें गए थे पर उनका लेपटॉप घर पर ही रह गया था। मैंने उनको फ़ोन किया तो वो बोले - अभी तो जरूरत नहीं हैं पर मैं प्यून को भेजता हुँ उसे दे देना।

शाश्वत ने कल की पार्टी के सभी फ़ोटो - वीडियो लेपटॉप में ही सेव किए हुए थे। मैंने फ़ोटो देखने के लिए लेपटॉप के फ़ोल्डर को देखा । पर ये वो फोल्डर नहीं था। इस फ़ोल्डर का नाम जानू था लेक़िन इसमें शाश्वत के साथ मैं नहीं कोई औऱ लड़की थीं। शायद वहीं भीनी खुशबू वाली लड़की।

मेरा सिर चकरा गया । मुझें कुछ नहीं सूझा । तभी डोरबेल बजी। प्यून ही होगा। मैंने लेपटॉप लिया औऱ दरवाजा खोला तो चौंक गई । सामने शाश्वत खड़े थे। वो हड़बड़ी में थे मुझसें लेपटॉप लिया औऱ मुझें एक नजर ऐसे देखा जैसे मेरे मन की थाह ले रहें हों , टटोल रहें हो मेरे मन को की उनके राज के निशान मेरी आँखों में तो नहीं दिख रहें हैं ?

मेरे चेहरे पर जब शाश्वत को कोई भाव नज़र नहीं आए तो वो आश्वस्त हों चलें गए थें।

शादी की वेदी की थरथराती अग्नि की लपटें मेरी आँखों में जलने लगी औऱ कानो में मंत्रोच्चार की ध्वनि गुंज रहीं थीं।

परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कांत कुर्याः।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या।।

और इस वचन में कन्या अपने वर से कहती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगे। पति-पत्नी के प्रेम के रिश्ते के बीच किसी और को कभी भी भागीदार नहीं बनाएंगे। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वाम अंग में आना स्वीकार करती हूं।

शाश्वत ने सात फेरों के सारे वचन तोड़ दिए थे। फिर भी मैं उनके साथ विवाह को पवित्र बंधन मानकर खुद को जोड़े रहीं। औऱ इस राज को भी मन के किसी कोने में दफ़न कर दिया था । मैंने शाश्वत को कभी महसूस नहीं होनें दिया कि मैं जानती हुँ उस दिन शर्ट की अदला - बदली नहीं हुई थीं ।

अतीत के गहरे ज़ख्म उभरकर मुझें पीड़ा देने लगें
मैं घुटन सी महसूस कर रहीं थीं । मुझें अपने हलक में कुछ अटकता हुआ सा महसूस हुआ। शायद दर्द का ग़ुबार था ।

" तलाक " ....व्यंग्यात्मक मुस्कान मेरे चेहरे पर तैर गईं । पूरी रात विचारों में कट गई थीं । सुबह के 4 बज रहें थें । मैंने नोटपैड लिया औऱ शाश्वत के नाम एक ख़त लिखने लगीं ।

तलाक़ क्यों नहीं ले लेतीं हो तुम ?
आपने सच कहा शाश्वत..मुझें तलाक़ ले ही लेंना चाहिए। मुझें इस बात की बेहद ख़ुशी हैं कि आपने इस महत्वपूर्ण फ़ैसले का निर्णय मुझ पर छोड़ा ।
रिश्ते जब शूल से चुभने लगें औऱ जिन में रहक़र दिन रात हम मरते रहें तब ऐसे रिश्तों का बोझ ढोने से अच्छा हैं उनसे निजात पा लेना चाहिए।
आज मैं आपकों सात फेरों के इस बंधन से मुक्त करतीं हूँ ।

अब मैं कोई अग्नि परीक्षा नहीं दूँगी।
सात फेरों की लक्ष्मण रेखा को लाँघती - जानकी

मैंने ख़त शाश्वत के सिरहाने के पास रखा औऱ मैंने शाश्वत का घर छोड़ दिया। कलयुग में राम जानकी को वन जाने का आदेश नहीं देते हैं। जानकी स्वयं अपनी राह ढूंढ लेतीं हैं।

सात महीने बाद.....

सात वचनों को सहजता से तोड़ देने वाले ,बात - बात पर मुझें तलाक़ की धमकियां देने वाले मेरे पति शाश्वत मेरे बिना 7 दिन भी नहीं बिता पाएं। उनके रोज़ कॉल आतें रहें । हर तरह से वो मुझें मनाते रहें। मुझें आत्महत्या करने की धमकी भी देने लगे। जब मेरा मन किसी भी बात से नहीं पसीजा तब 7 महीने बाद शाश्वत मेरे घर आए । इस बार वो बिल्कुल अलग थे ऐसा लग रहा था जैसे वो बहुत बीमार हैं , हमेशा क्लीन शेव में रहने वाले शाश्वत की दाढ़ी ऐसी बढ़ी हुई थी जैसे वो कोई सन्यासी हो। उनको ऐसे देखकर मेरी आँखों से आँसू छलक आए । दरवाज़े की औट से मैं शाश्वत को बहुत गौर से देख रहीं थीं। पापा - मम्मी से बात करतें हुए वो फूटफूट कर रोने लगें । मम्मी ने आवाज़ देकर मुझें बुलाया । मैं मम्मी के पास खड़ी हो गई । शाश्वत मुझसें नज़र भी नहीं मिला पाएं। मैंने ही पहल करतें हुए उन्हें पानी दिया।

रुंधे गले से शाश्वत मुझसें बोलें -"मुझें माफ़ कर दो जानू ! तुम तो जानकी ही रहीं पर मैं राम नहीं बन सका ।"

क्या मेरे साथ फिर से सात फेरें लेना चाहोगी ?
यक़ीन दिलाता हूँ इस बार कोई भी वचन नहीं तोडूंगा ।

भाई सीटी बजाते हुए बोला - क्या बात हैं जीजाजी एक ही तो दिल हैं कितनी बार जीतोगे ।
दुःख की काली बदरी छट गई थीं औऱ रिश्तों पर पड़ी सारी खोखली परतें भी हट गई थीं। मैं ख़ुश थीं कि मेरा घर टूटने से बच गया था ।।

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समाप्त

लेखिका - वैदेही वैष्णव " वाटिका "