मुल्ला नसरुद्दीन के चंद छोटे किस्से - 4 - अंतिम भाग MB (Official) द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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मुल्ला नसरुद्दीन के चंद छोटे किस्से - 4 - अंतिम भाग

भाग - 4

मुल्ला नसरुद्दीन और गरीब का झोला

एक दिन मुल्ला कहीं जा रहा था कि उसने सड़क पर एक दुखी आदमी को देखा जो ऊपरवाले को अपने खोटे नसीब के लिए कोस रहा था. मुल्ला ने उसके करीब जाकर उससे पूछा — ”क्यों भाई, इतने दुखी क्यों हो?“

वह आदमी मुल्ला को अपना फटा—पुराना झोला दिखाते हुए बोला — ”इस द्‌नुनिया में मेरे पास इतना कुछ भी नहीं है जो मेरे इस फटे—पुराने झोले में समा जाये.“

”बहुत बुरी बात है“ — मुल्ला बोला और उस आदमी के हाथ से झोला झपटकर सरपट भाग लिया.

अपना एकमात्र माल—असबाब छीन लिए जाने पर वह आदमी रो पड़ा. वह अब पहले से भी ज्यादा दुखी था. अब वह क्या करता! वह अपनी राह चलता रहा.

दूसरी ओर, मुल्ला उसका झोला लेकर भागता हुआ सड़क के एक मोड़ पर आ गया और मोड़ के पीछे उसने वह झोला सड़क के बीचोंबीच रख दिया ताकि उस आदमी को जरा दूर चलने पर अपना झोला मिल जाए.

दुखी आदमी ने जब सड़क के मोड़ पर अपना झोला पड़ा पाया तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा . वह खुशी से रो पड़ा और उसने झोले को उठाकर अपने सीने से लगा लिया और बोला — ”मेरे झोले, मुझे लगा मैंने तुम्हें सदा के लिए खो दिया!“

झाड़ियों में छुपा मुल्ला यह नजारा देख रहा था. वह हंसते हुए खुद से बोला — ”ये भी किसी को खुश करने का शानदार तरीका है!“

मुल्ला नसरुद्दीन का भाषण

एक बार शहर के लोगों ने मुल्ला नसरुद्दीन को किसी विषय पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया. मुल्ला जब बोलने के लिए मंच पर गया तो उसने देखा कि वहां उसे सुनने के लिए आये लोग उत्साह में नहीं दिख रहे थे.

मुल्ला ने उनसे पूछा — ”क्या आप लोग जानते हैं कि मैं आपको किस विषय पर बताने जा रहा हूँ?“

श्रोताओं ने कहा — ”नहीं.“

मुल्ला चिढ़ते हुए बोला — ”मैं उन लोगों को कुछ भी नहीं सुनाना चाहता जो ये तक नहीं जानते कि मैं किस विषय पर बात करनेवाला हूँ.“ — यह कहकर मुल्ला वहां से चलता बना.

भीड़ में मौजूद लोग यह सुनकर शमिर्ंदा हुए और अगले हफ्ते मुल्ला को एक बार और भाषण देने के लिए बुलाया. मुल्ला ने उनसे दुबारा वही सवाल पूछा — ”क्या आप लोग जानते हैं कि मैं आपको किस विषय पर बताने जा रहा हूँ?“

लोग इस बार कोई गलती नहीं करना चाहते थे. सबने एक स्वर में कहा — ”हाँ.“

मुल्ला फिर से चिढ़कर बोला — ”यदि आप लोग इतने ही जानकार हैं तो मैं यहाँ आप सबका और अपना वक्‌त बर्बाद नहीं करना चाहता.“ मुल्ला वापस चला गया.

लोगों ने आपस में बातचीत की और मुल्ला को तीसरी बार भाषण देने के लिए बुलाया. मुल्ला ने तीसरी बार उनसे वही सवाल पूछा. भीड़ में मौजूद लोग पहले ही तय कर चुके थे कि वे क्या जवाब देंगे. इस बार आधे लोगों ने ‘हां' कहा और आधे लोगों ने ‘नहीं' कहा.

मुल्ला ने उनका जवाब सुनकर कहा — ”ऐसा है तो जो लोग जानते हैं वे बाकी लोगों को बता दें कि मैं किस बारे में बात करनेवाला था.“ यह कहकर मुल्ला अपने घर चला गया.

मुल्ला नसरुद्दीन और भिखारी

एक दिन एक भिखारी ने मुल्ला नसरुद्दीन का दरवाजा खटखटाया. मुल्ला उस समय अपने घर की ऊपरी मंजिल पर था. उसने खिड़की खोली और भिखारी से कहा — ”क्या चाहिए?“

”आप नीचे आइये तो मैं आपको बताऊँगा“ — भिखारी ने कहा.

मुल्ला नीचे उतरकर आया और दरवाजा खोलकर बोला — ”अब बताओ क्या चाहते हो.“

”एक सिक्का दे दो, बड़ी मेहरबानी होगी“ — भिखारी ने फरियाद की. मुल्ला को बड़ी खीझ हुई. वह घर में ऊपर गया और खिड़की से झाँककर भिखारी से बोला — ”यहाँ ऊपर आओ“.

भिखारी सीढियाँ चढ़कर ऊपर गया और मुल्ला के सामने जा खडा हुआ. मुल्ला ने कहा — ”माफ करना भाई, अभी मेरे पास खुले पैसे नहीं हैं.“

”आपने ये बात मुझे नीचे ही क्यों नहीं बता दी? मुझे बेवजह इतनी सारी सीढियाँ चढ़नी पड़ गईं!“ — भिखारी चिढ़कर बोला.

”तो फिर तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया“ — मुल्ला ने पूछा — ”जब मैंने ऊपर से तुमसे पूछा था कि तुम्हें क्या चाहिए!?“

मुल्ला नसरुद्दीन रू दावत

खुशी की बात यह है की मुल्ला नसरुद्दीन खुद हमें यह कहानी सुना रहे हैंरू—

”एक दिन ऐसा हुआ कि किसी ने किसी से कुछ कहा, उसने किसी और से कुछ कहा और इसी कुछ—के—कुछ के चक्कर में ऐसा कुछ हो गया कि सब और यह बात फैल गई कि मैं बहुत खास आदमी हूँ. जब बात हद से भी ज्यादा फैल गई तो मुझे पास के शहर में एक दावत में खास मेहमान के तौर पर बुलाया गया.

मुझे तो दावत का न्योता पाकर बड़ी हैरत हुई. खैर, खाने—पीने के मामले में मैं कोई तकल्लुफ नहीं रखता इसीलिए तय समय पर मैं दावतखाने पहुँच गया. अपने रोजमर्रा के जिस लिबास में मैं रहता हूँ, उसी लिबास को पहनकर दिनभर सड़कों की धूल फांकते हुए मैं वहां पहुंचा था. मुझे रास्ते में रूककर कहीं पर थोडा साफ—सुथरा हो लेना चाहिए था लेकिन मैंने उसे तवज्जोह नहीं दी. जब मैं वहां पहुंचा तो दरबान ने मुझे भीतर आने से मना कर दिया.

”लेकिन मैं तो नसरुद्दीन हूँ! मैं दावत का खास मेहमान हूँ!“

”वो तो मैं देख ही रहा हूँ“ — दरबान हंसते हुए बोला. वह मेरी तरफ झुका और धीरे से बोला — ”और मैं खलीफा हूँ.“ यह सुनकर उसके बाकी दरबान दोस्त जोरों से हंस पड़े. फिर वे बोले — ”दफा हो जाओ बड़े मियां, और यहाँ दोबारा मत आना!“

कुछ सोचकर मैं वहां से चल दिया. दावतखाना शहर के चौराहे पर था और उससे थोड़ी दूरी पर मेरे एक दोस्त का घर था. मैं अपने दोस्त के घर गया.

”नसरुद्दीन! तुम यहाँ!“ — दोस्त ने मुझे गले से लगाया और हमने साथ बैठकर इस मुलाकात के लिए अल्लाह का शुक्र अदा किया. फिर मैं काम की बात पर आ गया.

”तुम्हें वो लाल कढ़ाईदार शेरवानी याद है जो तुम मुझे पिछले साल तोहफे में देना चाहते थे?“ — मैंने दोस्त से पूछा.

”बेशक! वह अभी भी आलमारी में टंगी हुई तुम्हारा इंतजार कर रही है. तुम्हें वह चाहिए?

”हाँ, मैं तुम्हारा अहसानमंद हूँ. लेकिन क्या तुम उसे कभी मुझसे वापस मांगोगे? — मैंने पूछा.

”नहीं, मियां! जो चीज मैं तुम्हें तोहफे में दे रहा हूँ उसे भला मैं वापस क्यों मांगूंगा?

”शुक्रिया मेरे दोस्त“ — मैं वहां कुछ देर रुका और फिर वह शेरवानी पहनकर वहां से चल दिया. शेरवानी में किया हुआ सोने का बारीक काम और शानदार कढ़ाई देखते ही बनती थी. उसके बटन हाथीदांत के थे और बैल्ट उम्दा चमड़े की. उसे पहनने के बाद मैं खानदानी आदमी लगने लगा था.

दरबानों ने मुझे देखकर सलाम किया और बाइज्जत से मुझे दावतखाने ले गए. दस्तरखान बिछा हुआ था और तरह—तरह के लजीज पकवान अपनी खुशबू फैला रहे थे और बड़े—बड़े ओहदेवाले लोग मेरे लिए ही खड़े हुए इंतजार कर रहे थे. किसी ने मुझे खास मेहमान के लिए लगाई गई कुर्सी पर बैठने को कहा. लोग फुसफुसा रहे थे — ”सबसे बड़े आलिम मुल्ला नसरुद्दीन यही हैं“. मैं बैठा और सारे लोग मेरे बैठने के बाद ही खाने के लिए बैठे.

वे सब मेरी और देख रहे थे कि मैं अब क्या करूँगा. खाने से पहले मुझे बेहतरीन शोरबा परोसा गया. वे सब इस इंतजार में थे कि मैं अपना प्याला उठाकर शोरबा चखूँ. मैं शोरबा का प्याला हाथ में लेकर खड़ा हो गया. और फिर एक रस्म के माफिक मैंने शोरबा अपनी शेरवानी पर हर तरफ उड़ेल दिया.

वे सब तो सन्न रह गए! किसी का मुंह खुला रह गया तो किसी की सांस ही थम गई. फिर वे बोले — ”आपने ये क्या किया, हजरत! आपकी तबियत तो ठीक है!?“

मैंने चुपचाप उनकी बातें सुनी. उन्होंने जब बोलना बंद कर दिया तो मैंने अपनी शेरवानी से कहा — ”मेरी प्यारी शेरवानी. मुझे उम्मीद है कि तुम्हें यह लजीज शोरबा बहुत अच्छा लगा होगा. अब यह बात साबित हो गई है कि यहाँ दावत पर तुम्हें ही बुलाया गया था, मुझे नहीं.“

रोटी क्या है?

एक बार मुल्ला नसीरुद्दीन पर राजदरबार में मुकदमा चला की वे राज्य की सुरक्षा के लिए खतरा बन गए हैं और राज्य भर में घूमकर दार्शनिकों, धर्मगुरुओं, राजनीतिज्ञों और प्रशासनिक अधिकारियों के बारे में लोगों से कह रहे हैं की वे सभी अज्ञानी, अनिश्चयी और सत्य से अनभिज्ञ हैं. मुकदमे की कार्रवाई में भाग लेने के लिए राज्य के दार्शनिकों, धर्मगुरुओं, नेताओं, और अधिकारियों को भी बुलाया गया.

दरबार में राजा ने मुल्ला से कहा — ”पहले तुम अपनी बात दरबार के सामने रखो“.

मुल्ला ने कहा — ”कुछ कागज और कलमें मंगा लीजिये.“ कागज और कलमें मंगा ली गईं.

”सात बुद्धिमान व्यक्तियों को एक—एक कागज और कलम दे दीजिये“ — मुल्ला ने कहा. ऐसा ही किया गया.

”अब सातों तथाकथित बुद्धिमान सज्जन अपने—अपने कागज पर इस प्रश्न का उत्तर लिख दें — ‘रोटी क्या है?श्“

बुद्धिमान सज्जनों ने अपने—अपने उत्तर कागज पर लिख दिए. सभी उत्तर राजा और दरबार में उपस्थित जनता को पढ़कर सुनाए गए.

पहले ने लिखा — ”रोटी भोजन है“.

दूसरे ने लिखा — ”यह आटे और पानी का मिश्रण है“.

तीसरे ने लिखा — ”यह ईश्वर का वरदान है“.

चौथे ने लिखा — ”यह पकाया हुआ आटे का लौंदा है“.

पाँचवे ने लिखा — ”इसका उत्तर इसपर निर्भर करता है कि ‘रोटी' से आपका अभिप्राय क्या है?“

छठवें ने लिखा — ”यह पौष्टिक आहार है“.

और सातवें ने लिखा — ”कुछ कहा नहीं जा सकता“.

मुल्ला ने सभी उपस्थितों से कहा — ”यदि इतने विद्वान और गुणी लोग इसपर एकमत नहीं हैं कि रोटी क्या है तो वे और दूसरी बातों पर निर्णय कैसे दे सकते हैं? वे यह कैसे कह सकते हैं कि मैं लोगों को गलत बातें सिखाता हूँ? क्या आप महत्वपूर्ण मामलों में परामर्श और निर्णय देने का अधिकार ऐसे लोगों को दे सकते हैं? जिस चीज को वे रोज खाते हैं उसपर वे एकमत नहीं हैं फिर भी वे एकस्वर में कहते हैं कि मैं लोगों की मति भ्रष्ट करता हूँ!“

हाजिरजवाबी

मुल्ला नसीरुद्दीन ने एक दिन अपने शिष्यों से कहा — ”मैं अंधेरे में भी देख सकता हूँ“।

एक विद्यार्थी ने कौतूहलवश उससे पूछा — ”ऐसा है तो आप रात में लालटेन लेकर क्यों चलते हैं?“

”ओह, वो तो इसलिए कि दूसरे लोग मुझसे टकरा न जायें“ — मुल्ला ने मुस्कुराते हुए कहा।

ताबूत

एक स्थान पर कई मुस्लिम धर्मगुरु एकत्र हुए और कई विषयों पर चर्चा करते—करते उनमें इस बात पर विवाद होने लगा कि शवयात्रा के दौरान ताबूत के दायीं ओर चलना चाहिए या बायीं ओर चलना चाहिए।

इस बात पर समूह दो भागों में बाँट गया। आधे लोगों का कहना था की ताबूत के बायीं ओर चलना चाहिए जबकि बाकी लोग कह रहे थे कि बायीं ओर चलना चाहिए। उन्होंने मुल्ला नसीरुद्दीन को वहां आते देखा और उससे भी इस विषय पर अपनी राय देने के लिए कहा। मुल्ला ने उनकी बात को गौर से सुना और फिर हँसते हुए कहा — ”ताबूत के दायीं ओर चलो या बायीं और चलो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सबसे जरूरी बात यह है कि ताबूत के भीतर मत रहो!“

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