पिछले पाठ में हमने गुमनाम राजाओं की सूची में शामिल राजा बप्पा रावल के जीवन तथा उनकी उपलब्धियों के बारे में जाना था । आइए अब अन्य ऐसे राजाओं के बारे में जानते हैं जो भारतीय इतिहास में गुमनाम रह गए :-
3) ललितादित्य मुक्तपदि :
ललितादित्य मुक्तपदि कश्मीर के करकोट राजघराने के
शासक थे । कश्मीर के मशहूर लेखक व कवि कल्हण
ने अपनी किताब 'राजतरंगिनी' में इनका तथा इनके
साम्राज्य का जिक्र किया है । कई विद्वानों तथा
इतिहासकारों के अनुसार ललितादित्य का साम्राज्य
विश्व के सबसे विशाल साम्राज्य में से एक था ।
एक विदेशी इतिहासकार के कथनानुसार इनका
साम्राज्य मुग्ल साम्राज्य की अपेक्षा दोगुना बड़ा था ।
इनके पिता प्रतापादित्य करकोट राजघराने के
23वें शासक थे । जब प्रतापादित्य की मृत्यु हुई थी तब
ललितदित्य की उम् 12 साल की थी । प्रतापादित्य की
मौत के पश्चात उनके एक मंत्री ने ललितादित्य को
कश्मीर के सिंहासन पर बैठाया । चूँकि वो अभी मात्र
12 साल के थे इसलिए कश्मीर की शासन व्यवस्था
की बागडोर प्रतापादित्य के विश्वास पात्र मंत्रियों ने
अपने ही हाथों में संभाले रक्खी । जब उनकी उम्र
18 साल की हो गई तब उन्हें मंत्रियों द्वारा संपूर्ण
राज्य की शासन व्यवस्था सौंप दी गई । अब यहाँ
से शुरू हुई ललितादित्य के गौरव और शूरवीरता
की गाथा । कल्हण के अनुसार अपने 27 वर्षों के
शासन काल में ललितादित्य ने भारत के ही नहीं
ब्लकि अफ़गानिस्तान तथा मध्य एशिया के भी कई
हिस्सों पर कब्जा किया था । उन्होंने अपने जीवन
का ज्यादातर समय मुहिमों में ही बिताया ।
उनके जीवन की पहली मुहिम पर वो मात्र 19 साल
की उम्र में गए थे और ये मुहिम थी कन्नौज के राजा
यशोवर्मन के खिलाफ़ । यशोवर्मन का साम्राज्य
बहुत ही विशाल था इसलिए उसपर कब्जा करने के
लिए ललितादित्य को लगातार 4 युद्ध लड़ने पड़े ।
शुरूआती दो युद्धों में उन्होंने मालवा तथा कलिंग
के प्रांतों पर कब्जा कर लिया । तीसरे युद्ध में
राजा यशोवर्मन ने अपने साम्राज्य का अधिकतर
हिस्सा ललितादित्य के हाथों गँवा दिया । चौथे
तथा निर्णायक युद्ध में ललितादित्य ने यशोवर्मन की
रिजधानी कन्नौज पर कब्जा कर लिया और इसी के
साथ ललितादित्य ने अपने जीवन के सर्वप्रथम
युद्ध में ही गौरवशाली विजय हासिल की ।
यशोधर्मन की परास्त करके ललितादित्य ने उत्तर
तथा मध्य भारत के अधिकतर हिस्सों पर कब्जा
कर लिया । उसके बाद वे दक्षिण की तरफ रवाना हो
गए । वहाँ उनकी भेंट हुई रानी रत्ता से जो कि
राष्ट्रकूतों के राजा दंतिदुर्ग की माँ थीं । रानी रत्ता
बहुत ही महान शासिका थी इसके बावजूद भी
ललितादित्य ने उन्हें घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया ।
इस युद्ध के पश्चात रानी रत्ता ने राजा ललितादित्य
के साथ संधी कर ली । राष्ट्रकूतों से संधी करने के
पश्चात अब ललितादित्य गुजरात के लिए रवाना हो
गए । वहाँ के स्थानिय शासकों के साथ कई युद्ध करने के पश्चात उन्होंने लगभग-लगभग संपूर्ण गुजरात पर जीत हासिल कर ली । गुजरात फ़तह के बाद उन्होंने कश्मीर अपने मंत्रियों के पास संदेश भिजवाया जिसमें लिखा था कि वे अपनी अंतिम साँस तक युद्ध तथा मुहिमों में व्यस्त रहना चाहते हैं इसलिए उनके सबसे ज्येष्ठ पुत्र को करकोट राजवंश का शासक घोषित कर दिया जाए । ऐसा कहा जाता है कि जब ललितादित्य अपने पुत्र के युवराजाभिषेक में जा रहे तभी एक पुल पार करते समय इनके रथ का एक पहया निकल गया जिसकी वजह से रथ का संतुलन बिगड़ गया और ललितादित्य सीधा नदी में जा गिरे । वहाँ से बस थोड़ी ही दूरी पर एक झड़ना
था और नदी के पानी का बहाव भी बहुत तेज़ था ।
तो इसके पहले कि उनके सैनिक उन्हें बाहर निकालने का
प्रयास करते वे नदी के पाने के साथ बहते चले गए और अंत में झड़ने से नीचे गिर गए ।
ललितादित्य की मृत्यु के मात्र दो सालों के भीतर-भीतर ही करकोट राजवंश का पतन हो गया ।