खाली हाथ वाली अम्मा -3 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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खाली हाथ वाली अम्मा -3

एक दिन अम्मा दोपहर को घर से गायब हो गई। मैंने सारे में देखा। घबरा कर बुआ को बताया तो बुआ और दादी भी बौखलाई सी सारे घर में इधर - उधर तलाशने देखने लगीं। काम पर से लौटने पर पिता को भी पता चला। वह विचलित से बैठे बाबा से बात करने लगे। मगर जब बाबा के कान में यह बात पड़ी कि बहू न जाने कहां चली गई है तो उनकी आंखों में भी हैरत के जंजाल के बीच प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया।
तभी दरवाज़े पर खड़का हुआ। देखा, अम्मा थी। किसी से बोले - चाले बिना सीधी भीतर गई और अपना कमरा बंद कर लिया। सब लोग बहुत बिगड़े। पिता ने सख्ती से डांट लगाकर दरवाज़ा खुलवाया और कमरे में घुसे तो मैं भी पीछे - पीछे चला गया। पिता के गर्म होकर डांटने का अम्मा पर कोई असर नहीं पड़ा। वह खामोश बैठी रही। फिर धीरे से बुदबुदा कर जवाब दिया - किरण के घर गई थी।
- क्यों?
- ऐसे ही, काम करने।
- काम करने? क्या काम करने? क्रोध में थरथरा रही थी पिता की जबान।
- बर्तन साफ़ करने, झाड़ू लगाने।
- तेरा दिमाग़ तो ठिकाने है? किसने कहा था ये सब करने को?
- किसी ने नहीं कहा। रोज़ ही तो मांजी कहती हैं कि कंगालों के घर से खाली हाथ उठकर चली आई,अब यहां मुफ़्त की रोटियां तोड़ने को मिलती हैं... इसी से काम करने गई थी।
पिताजी ने कस कर एक लात जमाई। बोले - कमीनी, कुतिया, हरामजादी, तेरी ये औकात? तू मोहल्ले भर में घर के टंटों पर बतकहियां उछलवाने गई थी? वह प्रहार करते गुस्से से कांप रहे थे। अम्मा निढाल होकर गिर पड़ी। बुआ भी पीछे आकर चुपचाप खड़ी हो गई।
बाहर से दादी की आवाज़ आ रही थी - लो, और सुनो, मेरे कहने से ये लाजवंती कमाने गई थी। इतनी ही हया- शरम बाकी है तो कहीं डूब क्यों नहीं मरती। मैंने जो कह दिया तो क्या गलत कहा।
उस दिन शाम को किरण, जिसे मैं बुआ ही कहता था, आई। वह आते ही खाट पर दादी के पास बैठ गई। बोली - क्या हो गया था अम्माजी आज?
- कुछ भी तो नहीं, क्यों?
- भाभी इस तरह, महरियों की तरह काम मांग रही थी हमारे घर आकर। मैं कॉलेज से लौटी ही थी। मां ने कहा, पूछ तो सही क्या बात है? किसी बात पर लड़- झगड़ कर चली आई है क्या? जा घर पहुंचा दे, नहीं तो बैठा,चाय बना दे। लेकिन तब तक तो भाभी ने कोने में पड़ी झाड़ू उठा ली और बोली - कुछ मत देना, सुबह की रोटी दे देना, बगीची साफ़ कर देती हूं।
यह सब सुन कर दादी ने माथा पीट लिया। पिताजी को भी ये सब जानकर बहुत क्रोध आया।
उस दिन से अम्मा हमेशा कमरे में बंद करके रखी जाने लगी। अब मुझे भी उसके पास नहीं जाने दिया जाता था। अम्मा चुपचाप बिस्तर पर पड़ी रहती थी, और ऊपर देखती रहती थी। अब वह पहले की तरह रोती भी नहीं थी।
हां, कभी - कभी मुझे भी अब लगने लगता कि ये सब ठीक कह रहे हैं, अम्मा सचमुच पागल हो गई है।
अब अम्मा के कमरे में कोई नहीं जाता था। मैं भी बुआ के पास या दादा के पास सोता था। अम्मा कब सोती है, कब जागती है, क्या खाती है किसी को नहीं पता चलता। हां, पिता कभी- कभी जब रात को बहुत देर से आते तो अम्मा की कोठरी में घुस जाते। कभी - कभी वहां से चीखने - पुकारने की आवाजें आती थीं, कभी नीरव खामोशी बंद कमरे पर चिपकी रहती।
कैसा हो गया था घर! घर से जैसे अम्मा का साया ही किसी अंधेरे में लीन होकर छिप गया था। जैसे घर की क़िताब से अम्मा नाम का सफा ही फट कर गायब हो गया था। अम्मा के बारे में अब कोई बातचीत भी नहीं करता था।
थोड़े दिन बाद एक दिन मैंने सुना कि मेरी अम्मा को बच्चा होने वाला है। सचमुच अम्मा का पेट बहुत बड़ा हो गया था। अम्मा सोई रहती, या कै करती रहती। सुबह का खाना दोपहर तक, शाम का अगली सुबह तक, कमरे में बिखरा पड़ा रहता। आधा खाती, आधा छोड़ती।
घर पर जो औरतें मिलने आती थीं उनकी और दादी की बातों से मुझे पता चला कि अम्मा को जो बच्चा होने वाला था वह मेरा भाई नहीं है।
मुझे बड़ा अचरज हुआ। ये बात मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आई कि मेरी अम्मा के पेट से पैदा होने वाला बच्चा मेरा बहन या भाई क्यों नहीं होगा? किसी की मां को कोई बच्चा होता है तो वो उसका भाई ही तो होता है। फिर..
- ये इस हाल में और फिर क्या हो गया? कोई औरत पूछती।
दादी कहती - अब कोई क्या करे? इसका क्या कोई ठिकाना है? पागल जात है। चौबीसों घंटे बांध कर भी तो नहीं रख सकते। कौन इसके पीछे पीछे फिरे।
- तो क्या...? औरतें आश्चर्य से देखती थीं।
- डाक्टरों को दिखाया। इतना इलाज करवाया। सैंकड़ों रुपए की दवा आ गई, पर घर की बहू को पागल खाने छुड़वाने की हिम्मत भी तो नहीं होती...
दादी ने सफ़ेद झूठ बोला। मैंने आज तक घर में कभी डॉक्टर या वैद्य को आते नहीं देखा। कभी एक पैसे की भी दवा - गोली अम्मा के लिए लाते घर में किसी को नहीं सुना। मैं बीच में बोलने ही वाला था कि बुआ ने किसी काम से आवाज़ दे ली।
( ... क्रमशः)