"मुझे तीन दिन के लिए बैंगलोर एक मेडिकल कोन्फ्रेंस में जाना है।"
"चली जा, अना को मेरे पास छोड़ जाना।"
"अना को तो तू सम्हाल ही लेगी पर तेरी शादी..."
"तेरी शादी के नतीजे हम मिल कर ही भुगत रहे हैं, फिर भी..."
"तेरी शादी भी मेरे जैसी ही हो यह तो जरूरी नहीं!"
"फिर भी अभी तो नहीं ..."
"यार, फिर कब? तुझे पता है हर दूसरे दिन आंटी का फोन आता है। तेरे लिए रिश्ते भी आ रहे हैं। नहीं तो तू अपनी पसंद...”
“बस कर यार, ये नहीं झेला जायेगा।”
"आज तुझे बताना पड़ेगा क्या कारण है? हर इंसान एक उम्र के बाद शादी कर ही लेता है।"
"क्यों करता है? उसके पहले यह सवाल जरूर करना चाहिए!"
"सब करते हैं!"
"तो सब गड्ढे में गिर रहे हैं तो हम भी..."
"यही समझ ले...!"
"नहीं, इसका नाम शादी नहीं है, यह तो एक बेरोजगार लड़की की मज़बूरी हो सकती है कि अब उसका परिवार उसके खर्चे नहीं उठा सकता है। या फिर एक सेल्फ डिपेंड लड़की की नासमझी कि वो ये ही नहीं जानती कि वो एक अनजान के साथ अपना जीवन क्यों शुरू कर रही है? जो भी हो ऐसी शादी नहीं हो पायेगी मुझसे! बिना प्रेम या इच्छा के।"
"तू बोल ना मीरा... कोई बात है...? इस सोच के पीछे कोई तो है।"
"हां... है।"
"क्या…, बेवकूफ अभी तक बोला क्यों नहीं! हम बैंड लेकर चले जाते।"
"बोलने या बताने जैसा कुछ भी नहीं है।"
"क्यों, शाहरुख़ ख़ान या अमिताभ बच्चन है क्या?"
"चुप... सिल्वर स्क्रीन नहीं, बदनावर की बात है।"
"दस- पंद्रह साल से भी पहले? जब तेरे दादा- दादी वहां थे।"
“हां, तब मैं नाइंथ में थी। गांव में हर बुधवार को हाट लगता था। आसपास के इलाकों के लोग अपनी सब्जी, अनाज, पशु, खेती का सामान बेचने - खरीदने आते थे। तब गर्मी की छुट्टियां मार्च से जून तक होती थी। हम तीन महीने के लिए दादी के पास जाते थे। उस दिन भी बुधवार ही था। हमारे घर के बाहर ही पूरा हाट बाजार लगता था। लोग हमारे और आसपास के लोगों के घरों के ओटले पर दिनभर बैठे रहते थे। बरगद के पेड़ के नीचे हमारा ओटला था। उस दिन शाम के समय लोगों के जाने के बाद मैं झाड़ू लगाने बाहर गई थी। कुछ लोग बैठे थे। मैंने उनसे कहा - "मुझे झाड़ू लगानी है। आप दूसरे ओटले पर बैठ जाओ।"
"बिटिया, बस थोड़ी देर रूक जा। आणि सामान ने बांध ले। म्हारो पोतो आई रियो है। विका आता ही अठे से जावांगा।"
उनके साथ एक बूढ़ी औरत भी थी। उन्होंने उसे देखकर कहा -"ऊबी हो, चल सामान हटा इठे से।"
अचानक मुझे लगा मैंने नाहक ही इन बुजुर्गों को परेशान किया है। मैंने कहा - “आप बैठे रहो! जब पोता आए तब ही..."
"ऐ ले, यो प्रताप अई ग्यो!"
“वो प्रताप ऐसा मन में बैठा की... हाथ में झाड़ू लिए मैं उसे कब तक देखती रही, यही याद नहीं... मैं जम गई थी। प्रेम पहली नज़र में ही होता है। ये उस दिन साबित हो गया था।
बहुत बड़ी काली आंखें, कितनी बोलती हुई ... भेदती हुई, कुछ कहती हुई। बहुत मस्ती, नशा था, उन निगाहों में। जब भी याद करूं तो लगता है बोल उठेगी। मैंने ऐसी आंखें फिर कभी नहीं देखी। धोती - कुर्ता और सर पर पगड़ी बांधे कोई इतना आकर्षक लग सकता है कि उसे हम अपलक देखते ही रहें...?"
उसके दादाजी की आवाज़ "बिटिया, हम जई रिया हा।"
मैं उसके बाद हर बुधवार और शाम तक ही सिमट गई थी। झाड़ू हाथ में लिए बगैर तो जा ही नहीं सकती थी। आज याद करूं तो आश्चर्य होता है वह क्या सोचता होगा? कभी भी किसी के मुंह से एक शब्द नहीं निकला। पर उस बुधवार के बाद अगले तीन साल तक मार्च से जून तक हर बुधवार प्रताप अपने दादा - दादी को हमारे ही ओटले पर बिठा कर जाता था। बस यही एक संकेत था मेरे लिए की शायद वह भी..."
"पागल, अब क्या बोलूं? कैसे ढूंढे तेरे प्रताप को?"
"ज़रूरी ही नहीं है। कोई नहीं समझ पाएगा मैं उन निगाहों के साथ जीकर कितनी तृप्त..."
"एक बार ढूंढने की कोशिश तो की जा सकती है। क्या पता तेरा प्रताप भी ..."
"चुप ... अब इन बेवकूफियों के लिए समय नहीं है। किसी की जिंदगी में आग नहीं लगा सकते हैं।”
“पता नहीं, वह भी इसी आग में जल…”
“बिल्कुल नहीं, अपना और किसी का तमाशा नहीं बनाना है ...कल के अहसास सिर्फ मेरा सरमाया है। किसी दूसरे के पास इसके लिए क्या सोच है? इन सब बातों का वक़्त अब नहीं रहा। वो किस गांव से आते थे, मैं यह भी नहीं जानती।"
“आज के जमाने में लोग प्रेमी को स्टेपनी की तरह बदलते और एक्स्ट्रा के साथ जीते हैं। इस दौर में तूने अपनी जिंदगी यादों के हवाले कर दी। एक बार उसे देखने का, ढूंढने का मन भी नहीं करता तेरा?” इरम एकदम से तड़फ कर बोल उठी।
"सब जाने दे, एक बार उस ओटले को देखने का मन करता है या नहीं? किसी से कुछ नहीं कहना, ना बताना है पर अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए उस गांव तो जा सकते हैं ना?! जो भी करना है जीते जी ही करना होता है।" इरम ने मीरा को मनाते हुए कहा।
"बड़ा अजीब लग रहा है।" मीरा के अंदर एक कशमकश चल रही थी। जो बात आज तक अपने मन के दायरे से बाहर नहीं आई। उसको इरम को बता तो दिया पर…
"जिसके नाम जिंदगी कर दी, उसके लिए? मैंने किसी से प्रेम किया नहीं, मुझे मिला भी नहीं। मेरी शादी का हाल तुझसे ज्यादा कौन जानता है फिर भी... प्रेम है तो उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता..."
"इरम! मेरे प्रेम की बात से तू खुद को दुःख दे रही है। अपने आप को परेशान मत कर! छोड़ ना यह सब!”
"कालिदास की शकुंतला अपने दुष्यंत से मिलने जा सकती थी, तो तू क्यों नहीं? भारतीय नारी के इतिहास से तूने कुछ भी नहीं सीखा। बहुत कुछ है जो प्रेरणा देता है। अभिज्ञान शाकुन्तलम सिर्फ एक प्रेम कहानी नहीं है। उसका एक सन्देश यह भी है कि कोई वादा करके भूल जाए तो, श्राप मिलने के बाद भी उससे मिलने की कोशिश की जाए तो भूली बात भी याद आती है। श्राप भी अपना प्रभाव ख़तम कर देता है। यह कायनात भी उस मिलन के जतन करती है। मछली के पेट से अंगूठी का मिलना इसका प्रमाण है।” इरम अपनी ही धुन में बोल रही थी। वह मीरा को यह अहसास करवाना चाहती थी कि उसने किसी को चाह कर कोई गुनाह नहीं किया है पर अपनी चाहत को यूं ही छोड़ देना ठीक नहीं…
“यहां किसी का किसी से कोई वादा नहीं हुआ था!” मीरा ने उसे रोकते हुए कहा।
“तो हम भी कुछ नहीं मांग कर रहे थे। पर उस जगह जाने से…”
"नहीं यार, क्या हो गया है तुझे? नशा चढ़ गया है क्या?"
"हां, तेरे प्रताप को देखना है। उस ओटले को भी देखना है…अच्छा बता, मीरा को हम कैसे याद करते हैं?”
“उनके भजन और कृष्ण प्रेम से!”
“एक बात और है जो इसके साथ ही चलती है पर कही नहीं जाती है।”
“क्या?”
“एक विधवा रानी, पैदल अपने कृष्ण से मिलने को निकल पड़ती है। उससे, जो निराकार है। भक्तों का, जोगियों का टोला उसके साथ जुड़ता चला जाता है। जाति के गहरे बन्धन के बाद भी वह रैदास को अपना गुरू मानती है। मीरा का जीवन कृष्ण भक्ति का ही नहीं, नारी की अविचल सोच, अदम्य साहस की बात भी कहता है।”
“तेरा दर्शन तो बड़ा गहरा है शकुन्तला, मीरा…। लोगों को एनस्थीसिया देने वाली डॉक्टर इतनी जागी हुई है?” मीरा ने आश्चर्य से पूछा।
“प्रेम न मिले तो उसकी समझ गहरी हो जाती है। या जिसके पास जो न हो उसकी कशिश ज्यादा होती है अब वो रूप हो या रोटी या कुछ और… जब एक सुंदर, गरीब घर की लड़की का एक बहुत अमीर से रिश्ता हो तो पूरा परिवार अंधा हो जाता है। उन्हें सब कुछ दिखना और सुनाई देना बंद हो जाता है। बस मुझे ही ज्यादा दिखने लगा है। मीरा, युग कैसे थे? इससे बड़ी बात है कि हमारा संकल्प कितना दृढ़ है। उसी पर आगे की यात्रा टिकी है।”
थोड़ा रुककर वह बोली – “यह सुन,
हे री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाने कोय।
घायल की गति घायल जाने जो कोई घायल होय।
जौहरी की गति जौहरी जाने की जिन जौहरी होय।
सूली उपर सेज हमारी सोवन किस बिध होय।
गगन मंडल पर सेज पिया की किस बिध मिल्या होय।
दरद की मीरा बन बन डोलूं बैद मिल्या न कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी जद बैद सांवरिया होय। ”
“बालिके, कितना सुंदर स्वर है तेरा! बहुत दर्द है तेरी आवाज़ में।” कहते हुए मीरा का मन भी भीग गया।
उसने अपने आपको सम्हाला और बोली -“ यह सब छोड़, तू अभी बैंगलोर जाने की तैयारी कर। हम फिर सोचते हैं।"
"सोचना कुछ भी नहीं, कल हम बदनावर का रहे हैं।"
"क्या?"
"तेरा शौहर?"
“जो होगा देखेंगे, पर हम बदनावर जायेंगे।”
अगले दिन… इरम का फोन स्वीच ऑफ था। मीरा ने दिन में कई बार कोशिश की पर बात न हो पाई।
दो दिन बाद इरम का फोन आया। “कल जाने की बात पर ज़रा हाथ -पैर चल गए थे। हम दो दिन बाद ही बदनावर चल पायेंगे।”
“अरे यार, क्या कर लिया तूने? मैं घर आ रही हूं तुझसे मिलने।”
“आज मत आ! तू परेशान हो जायेगी।”
“इरम… हम कहीं भी नहीं जायेंगे।”
“हम ज़रूर जायेंगे! तुझे चलना हो तो ठीक नहीं तो मैं अकेली ही जाऊंगी!”
चार दिन बाद मार के निशान बाहर से तो हल्के हो ही गए थे। मीरा ने इरम को छुआ। “कुछ नहीं, अचानक यू टर्न लेने से गाड़ी स्लिप तो हो ही जाती है। अब इतना डर कर नहीं जिया जायेगा। मेरे शौहर के शक के बाहर भी मेरी दुनिया हो सकती है। यह अब उसे समझाना जरूरी हो गया है।”
“तू सेपरेट…?”
“ कई बार सोचा है पर उसका अहसान बहुत बड़ा है। वह अब्बू की डायलिसिस का खर्च, दोनों भाई बहन की पढ़ाई का खर्च उठा रहा है। मेरे रिश्ता तोड़ने से यह सब कौन करेगा? मेरी 50 हज़ार की सैलेरी से क्या - क्या होगा? तीन जीवन को दुःख में डालने से बेहतर है कि यह सब ऐसे ही चलता रहे। तीन मौत से तो एक मौत ही बेहतर है। अचानक बड़े भाईजान के इंतकाल से बहुत कुछ बदल गया है मीरा।”
पैसे से जुड़ी मज़बूरी को सिर्फ वो व्यक्ति ही समझ सकता है जो इससे गुजरता है। मीरा इरम के आगे कुछ भी नहीं बोल पाई। एकदम चुप हो गई थी। इरम के परिवार का दर्द बहुत बड़ा था।
मीरा और इरम बदनावर पहुंची। अना को साथ में लेकर। गांव की तस्वीर एकदम बदल चुकी थी। रास्ते भी नए से लग रहे थे। बहुत बड़ी – बड़ी बिल्डिंग, मार्केट सब कुछ नया- सा लग रहा था। अपने घर के रास्ते भी बदले हुए ही लग रहे थे। जब घर के सामने पहुंचे तो सामने बड़ा- सा फैला हुआ बरगद का पेड़… वह आज भी वैसा ही खड़ा था… गर्व से अपनी बाहें फैलाए।
“उस पेड़ के आगे गाड़ी रोक देना।” मीरा ने ड्राइवर से कहा।
बरगद के पेड़ के पीछे की तरफ एक नया बड़ा मकान खड़ा था। मीरा के दादाजी का मकान, एक नया रूप ले चुका था। उस बड़े मकान को देखकर जब मीरा ने नीचे नजर की तो उसकी आंखे आश्चर्य से फैल गई।
दो सीढ़ियां और उसके बाद हरा- सा फर्श बिछा ओटला, चार बड़े काले खंबे जिनके ऊपर टिन की छत, ओटले के बाद एक तरफ काली सी खिड़की और दो बड़े बड़े दरवाज़े जो सिर्फ रात के समय ही बन्द किए जाते थे।
“यही वो जगह है जिस पर हम पांचें (कनेर के बीज) , अंग - बंग -चौक - चंग (इमली के बीज से), चूड़ियों वाला खेल और लंगड़ी खेलते थे। इसी ओटले पर बुआ की शादी से पहले ग्यारह दिन का महिला संगीत हुआ था। तब दादी ने कहा था “अब इससे ज्यादा दिन के गीत नहीं कर सकते हैं।" नाईन तेड़े (बुलावा) लगाने जाती थी। और रात को पूरा ओटला गांव की औरतों से भर जाता था। रिश्तेदार, पड़ोसी सब एक से ही लगते थे। लहंगा लुगड़ा पहने, सर पर पल्लू डाले, पूरा चेहरा ढके, बन्ना - बन्नी बड़ी शिद्दत से गाए जाते थे। कुछ महिलाएं घूमर नृत्य भी करती थी। जाते समय हम बच्चे टोकरी में रखे दो- दो बताशे सबको देते थे। एक चूड़ी के जितने बड़े बताशे, सीधे हाथ में रख दिए जाते थे। और वो उसी सरलता से लिए भी जाते थे। कितना सरल समय था वो, जिसे आज के दिखावटी महिला संगीत के कार्यक्रम से बिलकुल नहीं जोड़ सकते हैं। यही वो जगह है जहां मैं जम जाती थी... उसको देखने के लिए... "
“मीरा...” इरम ने हल्के से उसे छू कर कहा।
“ये क्या, यह तो हमारा ओटला… आज भी वैसा ही है…”
“यहां कौन रहता है?”
“कैसे पता करें?”
“लोग डोर बेल बजा लेते हैं?” इरम ने शरारत से कहा।
“ बेवकूफ, यहां तो ताला लगा है।”
पास के घर में जाकर जब पूछा तो पता चला कि “यह किसी का गोदाम है। वो लोग पेटलावद में रहते हैं। यहां कभी- कभी ही आते हैं।”
“छोड़ यार, वापस घर चल! हम भी क्या कर रहे हैं? नाम, पता कुछ भी नहीं और निकले हैं…”
“ऐसा कर तू कार ले, अना को भी ले जा। मैं थोड़ा घूम कर, आसपास के एक दो गांव देख कर आ जाऊंगी।”
“क्या?”
“हां, सही कह रही हूं। पति की मार खाई, सिर्फ इसलिए क्योंकि उसकी मर्ज़ी के खिलाफ कहीं जा नहीं सकते। वो साथ न हो तो उसे शक होता है। आज हम किसी को ढूंढने निकले हैं या मैं अपने आप को भी ढूंढ़ रही हूं। इसका जवाब मुझे चाहिए। जब तू अपनी चाहत को, खुद को भी बताने में डरती है। तो तुझे कोई कैसे मिलेगा? मीरा के साहस को अपनेआप से तोल तो तुझे मन की शक्ति का सबसे बड़ा फ़र्क नजर आयेगा। क्या जरूरी था कि मीरा को कृष्ण मिलते? यह उसकी चाहत, हिम्मत ही तो थी कि पत्थर भी इंसान बन गया। यह कहानी नहीं जीवन का एक बहुत बड़ा संदेश है मीरा। मुझे नहीं लगता तूने इसे समझा है। तूने प्रेम किया, नाम भी तेरे पास है पर भाव नहीं है। मुझे तो इसी ओटले पर बैठ कर खाना खाना है। फिर आगे क्या करना है, बाद में सोचेंगे।" कहते हुए उस खाली ओटले पर इरम खाना खोलकर बैठ गई। मीरा और अना भी उसके पीछे जाकर उसके पास बैठ गए।
मीरा भीतर से खामोश हो गई। उसे वो सुनाई देने लगा जो उसने अपने भीतर कभी सुना ही नहीं था। चाहत और शिद्दत में शायद यही फर्क है जो आज इरम ने मीरा को समझा दिया। दिल की ये गूंज जब तक बाहर नहीं आयेगी, कायनात नहीं सुनेगी तो रास्ते कैसे बनेंगे?
उस ओटले पर बैठकर, खाना खाते हुए मीरा बोली "हम साल में एक बार इस जगह जरूर आयेंगे। हर बार किसी एक गांव भी जायेंगे।"
थोड़ा रुककर वह आगे बोली "प्रताप कभी मिले या न मिले इस जगह से इन यादों से तो जुड़े रह सकते हैं। उससे तो हमें कोई जुदा नहीं..."
"हम हर साल यहां जरूर आयेंगे।" कहते हुए इरम ने मीरा का हाथ पकड़ लिया था।
आज दस साल बीत गए। किसे पता था प्रताप को ढूंढने निकली, मीरा का साथ देने वाली इरम दूसरे साल तो क्या दूसरे दिन का सूरज भी नहीं देख पायेगी।
उस बार पेटलावद में प्रताप को ढूंढने की नाकाम कोशिश के बाद घर जाने के दो घंटे के अंदर ही इरम को उसके पति ने गला घोंटकर, स्विमिंग पूल में फेंक दिया था। मीरा सब जानती थी। पर उसके पास कोई सबूत नहीं थे। और पैसे वाले पति के सबूत पैसों से ही मिट गए थे।
इरम का घर पहुंचने के आधे घंटे बाद ही मैसेज आया था कि "मुझे लगता है उसके सर पर खून सवार है। क्या होगा कुछ समझ नहीं आ रहा है। अना को मेड के साथ कहीं भेज दिया..." एक अधूरा मैसेज जिसे पूरा होने का वक़्त ही नहीं मिला। उससे पहले ही लिखने वाले की सांसें टूट ...
इरम के परिवार वाले किसी भी झमेले में उलझना नहीं चाहते थे। उन्हें तो अना से भी कोई मतलब नहीं था। आज भी उनका यही सोचना था कि पैसे वाला पिता अपनी बेटी को ठीक से पाल ही लेगा। दूसरी शादी, सौतेली मां से जुड़ा कोई डर या चिंता उनके अंदर नहीं थी।
मीरा ने बेहिसाब मिन्नतें की, विश्वास दिलाया कि वे लोग अना को अपने पास बुला लें। उसकी परवरिश ही अब उसकी जिंदगी का अरमान है। अना के पिता को इससे कोई आपत्ति नहीं थी। चालीस दिन बाद दूसरी शादी करने वाला व्यक्ति एक अच्छा पिता क्या बनता?
अना को अपनाकर मीरा का जीवन जैसे पूर्ण हो गया था। मीरा ने अना को समझाया था कि वह उसकी मासी मां है। पर अना उसे मासी न कह पाई। वह कहती “आपको मैं मॉम ही कहूंगी। वही मेरे मुंह से निकलता है।”
अब अना पन्द्रह साल की हो गई है। वो मां - बेटी हर साल की तरह इस बार भी फिर बदनावर आई हैं। अपनी यादों के फूल को चुनना और इरम के स्पर्श को याद करना मीरा के जीवन के लक्ष्य थे।
अना की परवरिश की जिम्मेदारी, उसका साथ उसके जीवन को एक नई दिशा और एक नया रंग दे चुका था। मगर जब भी वह अना को देखती, यह कभी नहीं भूल पाती कि इरम की मौत का कारण, कहीं ना कहीं उसकी चाहत ही है। प्रताप से मिलने की, उसे देखने की चाहत ही इरम की मौत का कारण बनी थी। उसकी बहुत इच्छा थी कि हम प्रताप को खोजें।
अब हर साल मीरा, अना को लेकर गांव जरूर जाती। वहीं बैठती, वहीं खाना खाना खाती। यह उसकी इरम के लिए एक ऐसी श्रद्धांजलि थी जिसे वह जब तक जिंदा है, उसे इरम के लिए जरूर करना है और वह करेगी भी!
यही चाहत उसे हर बार गांव खींच लाती थी। वह आस-पास के गांव भी जाती मगर उसका मन अब वह नहीं ढूंढ़ता था जो कभी ढूंढ़ता था। उसका मन इरम की मौत के बाद मर गया था। अब वो जिंदा थी तो सिर्फ एक मां के रूप में। आज अना के साथ उसी ओटले पर बैठे - बैठे पता चला की यह जगह बिक गई है।
अब यहां एक मकान बनेगा। आखिरी बार इस जमीन को छूकर मीरा के आंसू उसी जगह गिर गए... जहां कभी प्रताप खड़ा होता था…उसे देखता...और वह भी ... "मीरा अना के साथ गाड़ी में बैठने जा ही रही थी कि वही पड़ोसी व्यक्ति उसके पास आया और बोला "बहन जी, यह जगह इन्होंने खरीदी है।
एक व्यक्ति की तरफ इशारा करते हुए वह बोला “अपने …. गांव से डॉ. ...प्रताप ...." उस व्यक्ति की तरफ आंख उठाकर मीरा ने देखा… बाहर की आवाज़, चेहरे सब गुम हो गए। मीरा पूरी बात सुन भी न पाई और वहीं गिर पड़ी।
अस्पताल में उसके पास अना बैठी थी, उसके माथे पर हाथ रखे।
“मॉम, आप कैसे हो? क्या हो गया था?”
"मैं ठीक हूं बेटा, बस ज़रा- सा चक्कर आ गया था।"
"हम किसी हॉस्पिटल में हैं?"
"उस घर के बाहर जिनको आप देखकर बेहोश हो गई थीं, यह उनका ही हॉस्पिटल है। आज यहां सेलिब्रेशन है। इस हॉस्पिटल को बने आज बारह साल पूरे हुए हैं। डॉक्टर ने कहा था कि जब आपको होश आ जाए तो उनको बुला लिया जाए। मॉम, उनको बुला लें?"
"आप क्यों रो रहे हो? क्या हो गया मॉम?”
"आज इरम की याद आ गई बेटा। बारह जुलाई, आज बारह साल पूरे हो गए। इस हॉस्पिटल को और आज के 12 साल पहले उस दिन हम यहीं थे। जब यह शुरू हुआ था। हमने अपनी खोज उस घर से शुरू की थी। किसे पता था कि यह मंजिल तो यहीं खड़ी थी। तेरह को इरम की सांसे… उसके साथ जो खोज शुरू की थी वो आज पूरी हो गई।"
अना ने मीरा के हाथ पर अपना हाथ रख दिया। वह कुछ नहीं कह पाई। उसकी आंखों में भी आंसू आ गए थे।
"जिस जगह आपने अम्मी के साथ पहली बार खाना खाया था। उस जगह से आपका यही रिश्ता था?"
"नहीं बेटा, वो घर मेरे दादाजी का घर था। हम जहां बैठते थे वहां कभी मैंने झाड़ू लगाई थी। तब हर बुधवार को हाट लगता था। मेरा उस घर से बहुत पुराना…” कहते कहते मीरा की आंख एक बार फिर भर गई। उसकी आवाज़ भीग गई वह अपनी बात पूरी न कर पाई। अना को बहुत आश्चर्य हुआ कि इस घर के लिए मॉम इतनी इमोशनल थी। हाट का मतलब भी नहीं समझी पर वह बोली कुछ नहीं। अपनी बात कहते हुए मीरा की आंखों से आंसुओं की धारा बह चली।
कमरे में डॉक्टर प्रताप कब आ गए पता ही नहीं चला। जिसे सुनना था, उसने सुन लिया। वह भी कहना चाहता था कि उस साल के बाद वह कोलकता पढ़ने चला गया था। जब यहां आया तो यह मकान बिक चुका था और उसके परिवार से जुड़ी जानकारी उसे नहीं मिल पाई।
पढ़ाई पूरी होने के बाद शादी उसे करनी पड़ी थी। वो अपने खानदान का इकलौता पोता था। जिसकी शादी का फैसला उसके दादा- दादी के जीवन मृत्यु से जुड़ा था। शादी तो हुई, मगर उसने किसी की बात नहीं मानी और इसी गांव में अपना अस्पताल खोला।
इस ओटले को बने रहने के लिए उसने अपने छोटे दादा के दोस्त को कितनी मुश्किल से मनाया था। और अब जब उनका परिवार हमेशा के लिए कोलकता जा रहा है तब ही वह इस घर को खरीद पाया। सिर्फ उस ओटले के लिए…
अब चार आंखों से नीर बह रहे थे। आज उन आंखों की यात्रा भी पूरी हुई। क्या पता आज वो भी यहीं हो जिसके कारण आज यह मिलन हो सका। आत्मा अमर है! वो न कभी जन्म लेती है न ही कभी मरती है…
दरद की मीरा बन बन डोलूं बैद मिल्या न कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी जद बैद सांवरिया होय।
सीमा जैन ' भारत'