प्रकरण-47
रणछोड़ दास को लगा कि यदि भिखाभा कह रहे हैं तो काम होना ही है। लेकिन उसे मालूम ही नहीं था कि केतकी इतनी जल्दी इस घर से विदा होने वाली नहीं थी, और शादी करके तो बिलकुल भी नहीं। इसके अलावा भिखाभा के लिए राजनीतिक दौड़भाग करते हुए उसे खुद को भी केतकी के लिए वर तलाशने का समय नहीं मिल रहा था और न उसके पास इस समय इतना समय था कि इस बात का बुरा मानते बैठे।
केतकी इन सब बातों से अनजान और लापरवाह होकर अपनी शाला के काम में गले तक डूब चुकी थी। तारिका चिनॉय के साथ उसकी दोस्ती दिनोंदिन मजबूत होती जा रही थी। केतकी जो कुछ भी करती उसमें तारिका साथ देती और तारिका जो कुछ करती उसमें केतकी। शाला में केतकी को ऑलराउंडर के नाम से पहचाना जाने लगा था। जहां भी कोई कमी हो, वहां वह पहुंच जाती थी और काम संभाल लेती थी। वह भी खुशी-खुशी। सच पूछा जाए तो केतकी के लिए यह नौकरी नहीं, उसके जीने का कारण था।
घर में ही अब केतकी का उत्पीड़न कम हो गया था। लेकिन वह खुद को होकर घर के काम टालती नहीं थी। उसे मालूम था कि यदि उसने काम नहीं किए तो काम का बोझा मां पर गिरेगा।
इतना तो तय था कि केतकी का आत्मविश्वास अब बढ़ने लगा था। वह खुद भी नहीं जान पा रही थी कि वह अब विद्रोही हो चली थी और बगावत का कोई न कोई मौका तलाशती ही रहती थी। शाला के वार्षिक महोत्सव में केतकी के उत्साही व्यक्तित्व की झलक सबने देखी। प्राचार्या मेहता के साफ मना करने के बावजूद उसने बच्चों से ‘फिल्म नारी’ शीर्षक से एक कार्यक्रम तैयार करवाया। इसमें पहली सवाक फिल्म ‘आलमआरा’ से लेकर आज तक की फिल्म तारिकाओं की जानकारी फिल्मी गीतों और दो-दो पंक्तियों में उनके जीवन परिचय को प्रस्तुत किया गया था। शाला के नियमानुसार वार्षिक कार्यक्रम के एक दिन पहले कार्यक्रम का ड्रेस रिहर्सल किया गया। उसमें सभी ट्रस्टी और शिक्षकों द्वारा किये गये गुप्त मतदान में ‘फिल्मी नारी’ को दूसरा स्थान मिला। पहले स्थान पर ‘मैं गांधी बन जाऊं तो?’ लघु नाटक था। इस नाटक को शहर के जाने-माने नाटककार प्रवीण शुक्ला ने तैयार करवाया था। तो स्वाभाविक ही था उसका पहले स्थान पर रहना। लेकिन केतकी का कार्यक्रम दूसरे स्थान पर? स्वयं ट्रस्टी कीर्ति चंदाराणा और वरिष्ठ नाटककार प्रवीण शुक्ला ने भी उसके कार्यक्रम की संकल्पना और कार्यक्रम को तैयार करने के लिए की गई मेहनत की तारीफ की। प्राचार्य मेहता ने जम्हाई लेने के बहाने मुंह पर हाथ रखकर गुस्से से ओठ चबा लिए। अब सभी को वार्षिकोत्सव की प्रतीक्षा थी। केतकी बड़े उत्साह के साथ घर से जल्दबाजी में निकलने की तैयारी कर रही थी। उसने आज सफेद ड्रेस के साथ काले रंग की लंबे बेल्ट वाली पर्स कंधे पर टांग रखी थी। अंदर के कमरे से गुस्से में भुनभुनाती हुई बाहर आ रही जयश्री ने उसे देखा। वह बहुत दिनों से ऐसी ही पर्स तलाश रही थी पर उसे मिल नहीं रही थी, और केतकी वही पर्स लेकर निकल रही थी। उसको बहुत गुस्सा आया। उसने नीचे पड़ी हुई नीली रंग की हाईहील सैंडिल उठाई और केतकी को फेंक कर मारी। केतकी को वह माथे पर जाकर लगी और वहां से खून बहने लगा। बाद में पता लगा कि वह पर्स जयश्री की थी ही नहीं। खून से सनी हुए दुपट्टे को बदल कर केतकी ने माथे पर हल्दी लगाई और पट्टी बांधकर वह अपनी स्कूटी पर बैठ कर शाला की ओर निकल गई।
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वार्षिक उत्सव में केतकी को उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए ईनाम मिला। केतकी अब अपनी शाला की युवा स्टार के रूप में ख्याति प्राप्त करती जा रही थी। सभी की बातचीत में उसके नाम की चर्चा होती थी, उनमें से अधिकतर तो उसकी तारीफ ही करते थे, पर कुछ बचे-खुचे लोग चुप रहने की बजाय टीका-टिप्पणी करने से बाज नहीं आते थे। संक्षेप में कहें तो किसी न किसी बहाने से उसकी ही बात होती रहती थी।
वार्षिक उत्सव समाप्त हो गया, उसके दूसरे ही दिन बस स्टैंड में कोई उपद्रव हो गया और सभी बस वाले हड़ताल पर चले गए। उस दिन तो रिक्शा मिलना भी मुश्किल हो गया था। केतकी अपनी स्कूटी लेकर निकली। रास्ते में उसे प्रसन्न शर्मा रिक्शे की प्रतीक्षा में खड़े दिखाई दिए। प्रसन्न ने थोड़ा मजाक और थोड़ी आवश्यकता के हिसाब से केतकी के स्कूटर को लिफ्ट के लिए अंगूठा दिखाया। केतकी ने दुविधा मनःस्थिति में स्कूटी रोकी। धन्यवाद की मुद्रा में मुस्कराते हुए प्रसन्न पीछे बैठ गया। स्कूटी चालू हुई। गति बढ़ने लगी। प्रसन्न को कुछ कहने की तीव्र इच्छा हो रही थी। पर सवाल था कहा क्या जाए? और रास्ते की भीड़भाड़ और शोरगुल में उसे सुनाई भी देगा क्या कुछ? और, सुन भी लिया तो क्या वह कोई उत्तर देगी?
अचानक सामने पानी भरा गड्ढा आ जाने से स्कूटी थोड़ी टेढ़ी-मेढ़ी हो गई। अपना संतुलन संभालने के प्रयास में प्रसन्न का हाथ अनजाने ही केतकी की कमर तक चला गया। वास्तव में उसने ऐसा जानबूझ कर नहीं किया था, अपने आप ही हुआ। पर उसके उस स्पर्श का जादू प्रसन्न पर चल गया। उसकी मुलायम कमर के स्पर्श का वह एक क्षण मात्र...लेकिन प्रसन्न का अपना अस्तित्व उस क्षण में खो गया। वह अनजाने ही किसी का हो गया। कुछ कहना-सुनना नहीं, किसी बात का विचार नहीं, कोई प्रस्ताव नहीं, और प्रेम भी नहीं....तो, क्या दो-चार क्षणों के स्पर्श से इतना बड़ा जादू हो सकता है? वह गंभीर विचारों में खो गया। केतकी ने उसका गंतव्य आने पर दो-चार बार हॉर्न बजाया तब कहीं जाकर वह भाव-समाधि से वापस आया। थोड़ा लज्जित होते हुए वह नीचे उतरा। केतकी के सामने आया। उसके चेहरे की तरफ देखा,“वैसे तो मुझे आपका आभार मानना चाहिए, लेकिन नहीं मानूंगा, लेकिन यह उपकार और यह अनुभव मैं जीवन-भर नहीं भूलूंगा।” उसने स्कूटी आगे बढ़ा दी। प्रसन्न ब़ी देर तक उसे जाते हुए देखता रहा।
“ऐसे गुमसुम रहने की बजाय कुछ विचार करो। चुनाव की तिथि घोषित होने से पहले मेरा नाम घर-घर तक पहुंच जाना चाहिए। उसके बाद मुझे सभाएं करनी पड़ेंगी। भाषण देने पड़ेंगे। ज्यादातर लोग तो इतने भर से ही मुझे वोट दे देंगे। लेकिन फिर भी कोई आशंका हो तो मतदान से पहली रात एक बोतल, एक साड़ी और नकद रकम बांटनी पड़ेगी। मतदान के दिन हमारे आदमियों को घर-घर पहुंचना होगा। लेकिन अब शुरुआत तो करनी ही पड़ेगी। देखो, आसपास की झोपड़पट्टी से शुरुआत करते हैं। लेकिन वहां के आदमी दिन में कारखाने में नहीं तो इधर-उधर काम पर जाते हैं। औरतों के साथ बातचीत कर सके, ऐसा कोई व्यक्ति अपने पास नहीं है...” भिखाभा सिर खुजलाने लगे और फिर अचानक जैसे कुछ स्मरण हो आया हो, जोर-जोर से हंसने लगे। अपने हथेलियों को आपस में रगड़ते हुए बोले, “अरे पगले, मैं तो पचासों काम में उलझा रहता हूं, लेकिन तुमको तो ध्यान में रहना चाहिए न..अरे औरतों से बातचीत करने के लिए अपने पास हुकुम का इक्का है...हुकुम का... ”
“साहब...हुकुम का इक्का?”
“सुन, गरीब बच्चों की शाला, वहां तेरी बेटी पढाती है और मुझे ऐसा मालूम हुआ है कि तेरी बेटी वहां बड़ी लोकप्रिय शिक्षिका है। उसकी बात सभी मानेंगे।”
“हां साहेब...ये बात तो मेरे ध्यान में ही नहीं आई, सच है...”
“चुनाव होते तक उसे सुबह-शाम मेरे प्रचार के काम के लिए लगा दे। एक दिन का हजार रुपया दूंगा मैं उसको...”
“अरे साहेब....पैसे काहे के दोगे...यह तो अपने घर का काम है...”
भिखाभा खुश होकर बोले, “लेकिन ये काम वह करेगी न..?”
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“नहीं...मैं किसी भी हालत में ये काम नहीं करूंगी...” केतकी ने साफ-साफ उत्तर दिया। रणछोड़ दास के तन-बदन में आग लग गई। शांति बहन ने जब इसका कारण पूछा तो केतकी ने कठोर शब्दों में कहा, “मुझे राजनीति में कोई रुचि नहीं।”
रणछोड़ दास ने माथे पर हाथ मारा,“तो तुमको कौन सा चुनाव लड़ना है...?”
“लेकिन, आपके उस भिखाभा ने नगरसेवक के रूप में भ्रष्टाचार करने के सिवाय और कुछ नहीं किया है। पहले गैरकानूनी तरीके से दारू बेचता था। ऐसे आदमी का प्रचार मैं नहीं कर सकती। ”
रणछोड़ दास चिल्लाया, “मैंने तुम्हारे लिए इतना कुछ किया, और तुम मेरी एक बात नहीं मान रही?”
“हां, आपने मेरे लिए बहुत किया। क्या-क्या गिन कर बताऊँ...? अब जाने भी दीजिए....मेरी मां पर किए गए अत्याचार...? कभी उसको एक इंसान समझा? उसके रहते हुए दूसरी औरत के साथ....” आगे कुछ और न कहते हुए केतकी वहां से निकल गई। रणछोड़ दास दांत पीसते हुए बड़बड़ाया, “इस घर से अब तेरा ठिकाना उठ गया समझ...”
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह