अग्निजा - 46 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अग्निजा - 46

प्रकरण-46

केतकी की सांस ऊपर-नीचे हो रही थी। इतनी देर? एक तो बस इतनी देर से आई और आई भी तो इतनी भरी हुई थी कि ड्रायवर ने रोकी ही नहीं। आखिर रिक्शे से जाने का विचार किया। सात-आठ रिक्शे वालों के मना करने पर बड़ी मुश्किल से एक तैयार हुआ तो ट्रैफिक जाम। आज पहली बार केतकी को शाला पहुंचने में इतना विलंब हुआ था। डेढ़ घंटे देर से पहुंची। रिसेस में इसकी चर्चा हो ही गई। प्राचार्य मेहता ने मेमो दिया। केतकी को बहुत बुरा लगा। कुछ ही देर में दरबान ने सूचना दी कि शाला समाप्त होने के बाद चंदाराणा सर से मिलकर जाना है। स्टाफ रूम में गॉसिपिंग शुरू हो गई, “आप भले ही कितनी ही ईमानदारी और उत्साह से काम करते हों लेकिन नियम की अवहेलना कोई कैसे बर्दाश्त करेगा? हम इतने सालों से काम कर रहे हैं तो क्या पागल हैं? नियम के अनुसार काम करो और समय से घर जाओ। एक दिन देर हो गई तो परिणाम देख लिया न? ”

लेकिन ये सब विचार किनारे रख कर केतकी बच्चों को मन लगा कर पढ़ाती रही। सारा टेंशन किनारे रख कर यहां काम कर सकती हूं तो घर में ऐसा करना क्यों संभव नहीं हो पाता? घर के वातावरण से विचलित क्यों हो जाती हूं? क्षण भर के लिए उसके मन में यह विचार आया।

शाम को शाला समाप्त होने के बाद जब वह चंदाराणा से मिलने गई, उस समय वह तनाव में थी और अपराधबोध भी था उसके मन में। खुद की कोई गलती भले ही न हो, पर देर तो हो ही गई न? केबिन के आधे दरवाजे पर उसने धीरे से ठकठक करने के बाद, “मे आई कम इन, सर...?” पूछते हुए दरवाजा धकेला। चंदाराणा ने फाइल से सर उठाते हुए उसकी ओर मुस्कराते हुए देखा और बैठने का इशारा किया।

केतकी बैठ तो गई पर उसी क्षण उसे रोना आ गया। “सर, आज ऐसा हुआ कि...”

चंदाराणा उसकी ओर देखते रहे। “पहले मेरी बात सुनें। मेरी एक व्यक्तिगत समस्या है...मेरी मदद करेंगी क्या?”

“सर, मैं आपकी मदद करूं?”

“हां, देखिए न...हमारी सोसायटी के नियम बहुत कड़े हैं। हरेक को सोसायटी में दो वाहनों को ही पार्क करने की अनुमति है। एक मेरी गाड़ी है और एक घरवालों की। लेकिन समस्या टूव्हीलर को लेकर है। ”

उन्होंने टेबल के डॉअर में से चाबी निकाल कर उसके सामने रखी। “ये टूव्हीलर कुछ दिन आप इस्तेमाल करें। पार्किंग की कोई व्यवस्था होते ही मैं आपसे वापस मांग लूंगा।”

केतकी को सब समझ में आ गया। “सर, प्लीज। इसके बाद कभी देर नहीं होगी। एक बार माफ कर दें।”

“अरे, आप स्कूल के लिए जान लगा कर काम कर रही हैं तो मेरा भी तो कोई कर्तव्य बनता है कि नहीं? और मैं कहां आपको अपनी कार दे रहा हूं? एक अतिरिक्त वाहन है और उसको लेकर समस्या भी है, इस लिए मैं उसे आप कुछ दिन उपयोग करें...”

“नहीं सर, मैं इस तरह नहीं लूंगी...”

“मतलब?”

“आपको इसके पैसे लेने पड़ेंगे...हर महीने थोड़े-थोड़े...आपको मंजूर हो तो मैं चाबी लेती हूं।”

“चलो...वैसा ही सही....लेकिन मेरी भी एक शर्त है...हर महीने थोड़े-थोड़े पैसे दें, लेकिन आसानी से हो सके तो ही...”

केतकी मुस्करायी। उसे लगा कि वह चंदाराणा से कहे, “मुझे अच्छे इंसानों का ज्यादा अनुभव नहीं है, उस पर भले पुरुषों का तो और भी कम। ” लेकिन वह कुछ बोली नहीं। वह चाबी लेकर बाहर निकली तो उसे बाहर कंपाउंड में एक कोने में पार्क की हुई सफेद स्कूटी की ओर दरबान ने इशारा किया। केतकी न जाने कितनी ही देर स्कूटी पर हाथ फेरते हुए विचार करती रही। और उसके बाद उसने उसे शुरू किया। नाना के घर में चलाई हुई साइकिल और एक-दो बार सहेली की स्कूटर चलाने का प्रयास आज उसके काम आया। दूर से शाला का दरबान और खिड़की पर चढ़े परदे के पीछे से चंदाराणा उसकी तरफ देखते रहे। चंदाराणा अपने टेबल की ओर मुड़े और उन्होंने उसका ड्रॉअर खोला।

........................

केतकी ने आंगन से ही भावना को आवाज लगाने लगी। स्कूटी पर बैठी हुई केतकी को देख कर भावना को जरा हैरत हुई। वह पास आकर केतकी से पूछ पाती इससे पहले ही केतकी ने आदेश दिया, “पीछे बैठो...” भावना के बैठते साथ ही केतकी ने स्कूटर तेजी से भगाई। सामने से आ रही जयश्री की तरफ दोनों का ही ध्यान नहीं था। लेकिन जयश्री इस दृश्य को देख कर गश खाकर गिरने ही वाली थी। वह ईर्ष्या से भर उठी।

रणछोड़ दास और शांति बहन की कचहरी में मुख्य आरोपी के तौर पर केतकी को उपस्थित रहने का आदेश दिया गया। कोई सबूत न होने के बावजूद यशोदा अपने आप ही सहआरोपी बनाई गई। रणछोड़ चिल्लाया, “ये क्या चला रखा है...? किसी और की बाइक उठा कर लाने की जरूरत क्या थी?” केतकी हंस कर बोली, “किसी और की नहीं...मेरी है...और ये बाइक नहीं है...स्कूटी है, मेरी स्कूटी।”

“तुम्हारी स्कूटी...? बिना पूछे ले ली?”

“आपसे पूछने बैठती तो आज मैं डिग्री भी नहीं हासिल कर पाती, एमए भी नहीं कर पाती, बीएड भी नहीं और नौकरी पर नहीं लग पाती...”

“बड़ी जुबान चलने लगी है...लेकिन स्कूटी की जरूरत ही क्यों है तुमको? और इतने पैसे आए कहां से तुम्हारे पास..?”

“काम पर समय पर पहुंचने के लिए मुझे स्कूटी की जरूरत महसूस होती है। और आपसे पैसे मांगने वाली नहीं। मैं अपनी पगार से इसके किश्तें भरूंगी।” फिर केतकी ने यशोदा की तरफ देखा, “मां, बड़ी भूख लगी है, तुम्हारे हाथ से बनी हुई चाय पीने का मन है। मैं हाथ-मुंह धोकर तुरंत आती हूं...” इतना कहकर यशोदा, भावना की तरफ देखते हुए वहां से निकल गई।

रणछोड़ दास, शांति बहन और जयश्री एकदूसरे के चेहरे की ओर देखते रह गए। शांति बहन ने आग लगाई, “मुझे नहीं लगता कि यशोदा को इसके बारे में पहले से मालूम नहीं होगा..” यशोदा घबराई। “मुझे कुछ भी नहीं पता था। आप जिसकी कहें उसकी कसम खाती हूं।” रणछोड़ दास गुस्से में उठा। भावना ने मां की मदद की, “कसम खाने की जरूरत नहीं है। मां को कुछ पता ही नहीं है। मैं बताती हूं क्या हुआ है...”

...............

स्कूटी की गति की ही तरह केतकी अपनी शाला में रमने लगी थी। इस वजह से बहुत सारे लोगों को यह बात ध्यान में आने लगी थी कि लड़की बुद्धिमान है और अपने काम को लेकर जिम्मेदार भी। केतकी शाला के लिए नए-नए प्रोजेक्ट का सुझाव देती थी...उन्हें अमल में लाया जाए इसके लिए अपने तर्क भी प्रस्तुत करती थी। दूसरों के प्रोजेक्ट में भी रुचि दिखाती थी। मदद भी करती थी। उसका मित्र परिवार बढ़ता जा रहा था। इनमें से तारिका  साथ उसकी खास दोस्ती हो गई थी। तारिका चिनॉय। गणित की शिक्षिका। तारिका इस शाला में केतकी से चार साल पहले से काम कर रही थी। वरिष्ठ शिक्षकों में से कई केतकी को नापसंद करते थे। उसके कारण उन लोगों का वर्चस्व कम हो रहा है-ऐसा वे महसूस करने लगे थे। प्राचार्या मेहता अपनी मन की बात जाहिर नहीं करती थीं। प्रसन्न शर्मा को किसी से कोई लेना-देना ही नहीं था। अपने काम में मगन रहता था। वह किसी से कहता नहीं था, लेकिन केतकी उसको सबसे अलग मालूम पड़ती थी। उसे वह कुछ खास लगने लगी थी। प्रसन्न ने अपना सिर झटका, मानो वह विचारों को झटकने की कोशिश कर रहा था।

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रणछोड़ दास का उदास चेहरा देख कर भिखाभा ने उससे पूछा, “अब क्या हुआ? क्या फिर से तेरी यशोदा ने या उसकी बेटी ने कोई नया बखेड़ा खड़ा कर दिया...?”

“कुछ मत पूछिए साहब...जाने दीजिए...” उसको जब से नौकरी मिली है, मुझे पूछती ही नहीं...मेरी बात सुनती भी नहीं...उसको देखूं तो मेरे तन-बदन में आग लग जाती है। ऐसा लगता है कि उस अभागी का गला ही दबा दूं। लेकिन ऐसे समय आपकी सलाह याद आ जाती है। आपने कहा है न कि शांत रहो।

“लेकिन उसको दूर हटाने का उपाय है न...शादी क्यों नहीं कर देते उसकी?”

“साहब डेढ़ साल से रिश्ता खोज रहा हूं उसके लिए, लेकिन संयोग ही नहीं बन रहा। ऐसा लगता है कि जीवन भर वह मेरी छाती पर मूंग दलती बैठी रहेगी।”

“अरे. तो मुझसे कहना था न...” भिखाभा हंस कर बोले और उन्होंने फोन घुमाया। “लड़का मिल ही गया समझो...”

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह