पलायन - 1 राज कुमार कांदु द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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पलायन - 1




वह युवा सोशल मीडिया पर एक जाना पहचाना नाम बन गया था। लोगों तक पहुँचकर जन समस्याओं की पड़ताल करना और सरकार के बारे में उनकी राय सोशल मीडिया पर ज्यों की त्यों दिखाना उसका कार्य था।
आज वह लोगों की नहीं अपनी खुद की राय लोगों से साझा करनेवाला था और शायद इसीलिए बड़ा दुःखी नजर आ रहा था।

माइक थामकर उसने सबका अभिवादन किया और बोलना शुरू किया, " साथियों, नमस्कार ! स्वागत है आप सभी का मेरे और आपके अपने पसंदीदा चैनल 'जन की बात' पर ! लोगों से जुड़े मुद्दे, उनकी परेशानियाँ, उनके विचार उनकी ही जुबानी मैं रोज ही आप सभी के समक्ष पेश करता हूँ लेकिन आज मैं हाजिर हूँ एक दर्दनाक खबर लेकर जिसे पेश करते हुए मेरा कलेजा दहल रहा है, आत्मा रो रही है। दिल की तड़प बेपनाह बढ़ गई है लेकिन चूँकि जन की बात करना मेरा काम ही नहीं, बल्कि मेरा कर्तव्य भी है इसलिए इस मार्मिक खबर को आपसे साझा करने से खुद को रोक भी नहीं सकता।" कहने के बाद वह कुछ पल के लिए खामोश हो गया।

उसके मन का अंतर्द्वंद्व उसके चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे वह सोच रहा हो कि क्या कहा जाए और कैसे कहा जाए ! कैमरा शुरू था, सो सोचने का अधिक वक्त भी नहीं था उसके पास।

संयत स्वर में उसने आगे कहना शुरू किया, "साथियों, खबर तो मैं बताऊँगा ही और उसका विश्लेषण भी करूँगा, लेकिन उससे पहले मैं आपके सामने एक खत पढ़ना चाहता हूँ जिसे ध्यान से सुनना आप सभी के लिए जरूरी है। यह खत पूरा होते होते आप समझ जाएँगे कि खत किसने लिखा, क्यों लिखा और किसके लिए लिखा ! इसी खत में छिपी हुई है आज की कड़वी हकीकत।"
और उसने मोबाइल की स्क्रीनपर देखकर पढ़ना शुरू किया
' यह खत पढ़नेवाले सभी महानुभावों को मेरा नमस्कार ! मेरा नाम पंकज, काश कि मैं इसके आगे 'है' लिख पाता, क्योंकि मुझे पता है जब यह खत आप पढ़ रहे होंगे मैं 'था' यानी भूतकाल हो चुका होऊँगा। जा चुका होऊँगा इस स्वार्थी, झूठी, मक्कार दुनिया से दूर नील गगन में सितारों की रंगीन दुनिया में जहाँ न होगी भूख, न बेबसी और न ही अमीर गरीब के बीच खिंची गई बेतरतीब लकीर ! आपने इससे पूर्व भी कई बेबस लोगों को हताश और निराश होकर जिंदगी से पल्ला झाड़ते देखा होगा, मैं भी देख चुका हूँ जिंदगी से निराश कई लोगों को जीवन से पलायन करते हुए लेकिन मुझे क्या पता था कि मुझे भी किसी दिन इसी राह का मुसाफिर बनना होगा। अभी कल परसों ही बुलंदशहर के एक जूता व्यापारी ने फेसबुक पर लाइव आकर आत्महत्या की है। दुःखद खबर ये भी है कि उसकी पत्नी भी उसके साथ ही जिंदगी से हाथ धो बैठी, लेकिन जानता हूँ, इन सबसे आप लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता। ये तो उनकी जिंदगी थी, दूसरों को क्या फर्क पड़ता है, लेकिन नहीं ..मैं अब समझ चुका हूँ और आप सबको समझाने की कोशिश कर रहा हूँ कि हमें फर्क पड़ता है ऐसी घटनाओं से। ऐसी घटनाएँ क्यों होती हैं, यह सभी जानते हैं। परिस्थितियाँ जिम्मेदार होती हैं ऐसी दुःखद घटनाओं के लिए और ये परिस्थितियाँ कैसे बनती हैं ? शायद आप लोग इसी बारे में गंभीरता से नहीं सोचते। जाने अंजाने कई बार हम अपने ही हाथों अपना भविष्य खराब कर लेते हैं दुष्प्रचारों का शिकार होकर। हम युवा भी ऐसी गलती कर चुके हैं एक निर्दयी संवेदनहीन सरकार बनवाकर। जो सरकार सात सौ से अधिक किसानों की मौत पर भी द्रवित ना हुई हो, उसे और क्या कहेंगे ? अब आप कहेंगे, सरकारों से हमारी जिंदगी का क्या लेनादेना ? कोई भी सरकार हो, हमें तो मेहनत करके ही खाना है, तो भाई जरा सोचो कि आखिर मेहनत कब करोगे ? जब आपके पास काम होगा, रोजगार होगा और रोजगार कब मिलता है ? जब सरकारें ऐसी नीतियाँ निर्धारित करें जिससे नए नए रोजगार का सृजन हो। आज इस अनुभव हीन सरकार की गलत नीतियों के चलते ही देश में बेरोजगारों की एक बड़ी फौज खड़ी हो गई है। जख्मों पर नमक तो तब महसूस किया हम युवाओं ने जब हमारे देश के शीर्ष नेता बेरोजगारों को पकौडे बेचने का रोजगार करने की सलाह दे रहे थे। सरसों का तेल दो सौ के पार हो गया है सो अब तो पकौड़े का रोजगार भी नहीं किया जा सकता है।
जानता हूँ आत्महत्या एक कायराना कदम समझा जाता है, दूसरे शब्दों में इसे जिंदगी से पलायन की संज्ञा भी दी जाती है लेकिन ऐसी घटनाएँ बेवजह नहीं होतीं। इसके लिए परिस्थितियाँ ही जिम्मेदार होती हैं जब इंसान को जीने से अधिक मरना पसंद आता है और ऐसी परिस्थितियों को लाने के लिए जिम्मेदार भी अप्रत्यक्ष रूप से हम सब ही होते हैं, यह शायद मेरी कहानी से और स्पष्ट हो जाए, जो मैं बताने जा रहा हूँ।

अपने कमजोर पैरों पर अपने इस जिस्म का बोझ लिए घूमते हुए मुझे लगभग 27 वर्ष हो गए थे लेकिन मैं थका नहीं था, कहीं रुका नहीं था। पिछले तीन सालों से अपनी जिम्मेदारियों का बोझ ढोते ढोते मेरे कंधे झुक गए थे, मेरी आस टूट गई थी लेकिन मेरा जमीर जिंदा था और इसीलिए मैंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
आप लोग सोच रहे होंगे, अजीब पागल है कि मरा तो मरा ऊपर से बकवास किए जा रहा है, तो ऐसा हरगिज नहीं है। आप लोग ध्यान से मेरी पूरी कहानी पढ़ना इस खत के जरिए और कुछ ऐसा करना या कुछ ऐसा करवाना कि भविष्य में फिर किसी युवा को मेरी तरह इस दुनिया को अलविदा न कहना पड़े। जी हाँ ! ..युवा ! मैं भी 27 साल का एक युवा ही था। अपनी जिंदगी को लेकर सभी युवाओं की तरह मेरे भी कुछ सपने थे, कुछ इरादे थे। हो भी क्यों नहीं ? मध्यमवर्गीय परिवार से होने के बावजूद मेरा पालन पोषण बड़े ही लाड़प्यार से हुआ था। पिताजी की छोटी सी दुकानदारी से भी पूरे परिवार का भरण पोषण बड़ी आसानी से हो जाता था। कहीं कोई समस्या नहीं थी।
पढ़ने में तेज होने के कारण पिताजी को मुझसे काफी उम्मीदें थीं और मेरी खुद की इच्छा थी ,पढ़लिखकर कुछ काबिल बनने की और मातापिता की सेवा करने की लेकिन इस दुनिया में किसकी इच्छा पूरी हुई है जो मेरी होती ?
आज से सात साल पहले बीस बरस की अवस्था में मैंने अपना ग्रेजुएशन पूरा किया और कुछ काम करते हुए आगे पढ़ाई जारी रखने का प्रयास किया।
मास्टर्स में दाखिला लेने के बाद मैंने मोहल्ले के कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया ताकि मेरी पढ़ाई का अतिरिक्त भार पिताजी की दुकानदारी पर न पड़े। आम चुनावों के बाद सत्ता परिवर्तन से देश में उत्साह का वातावरण था लेकिन वास्तविक हालात इस उत्साह से परे काफी कठिन नजर आ रहे थे। अचानक निर्माण क्षेत्र से जुड़ा व्यवसाय मानो थम सा गया था जिसका व्यापक असर अन्य क्षेत्रों से जुड़े व्यवसायों व नौकरियों पर भी पड़ा। दिहाड़ी मजदूरों के शहरों से गाँवों में पलायन की खबरें अखबारों की सुर्खियाँ बन रही थीं लेकिन समाज का हर वर्ग सम्मोहन की स्थिति में सत्ताधारी पक्ष का प्रबल समर्थक बना रहा। मुझ सहित देश का हर युवा सत्ताधारी पक्ष व उसकी नीतियों का प्रबल समर्थक था।
यह वह दौर था जब ऑनलाइन व्यवसाय का विकास चरम पर था और धीरे धीरे दुकानदारी चौपट हो रही थी। यह विडंबना ही थी कि विपक्ष में रहते हुए छोटे दुकानदारों के भविष्य को लेकर विदेशी निवेश का विरोध करनेवाली पार्टी सत्ता मिलते ही शतप्रतिशत विदेशी निवेश की सबसे बड़ी पक्षधर बन गई थी।
ढेरों मुसीबतें सहन करके भी कालेधन की सफाई के नाम पर किये गए नोटबंदी का जनता ने दिल से स्वागत किया। उम्मीद तो यही थी कि जैसा प्रचारित किया जा रहा है एक दिन वह सच हो जाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता अखबारों में कतारों में खड़े कई देशवासियों की मृत्यु की खबरों से सीना छलनी हो गया लेकिन अच्छे दिनों के दिवास्वप्न के भ्रमजाल में उलझे सभी देशवासियों की तरह मैं और मेरे युवा साथी लगातार सरकारी नीतियों के समर्थक बने रहे।
इसी बीच संसद की गहमागहमी में एक दिन कर सुधारों के लिए अपेक्षित जीएसटी कानून को भी लागू कर दिया गया। इसके प्रावधानों से पूर्णतया अंजान जनमानस पक्ष व विपक्ष की रस्साकशी के बीच अनावश्यक रूप से डरता रहा।
नोटबंदी की मार झेल रहे छोटे और मझोले व्यवसायी जीएसटी नाम का हौवा समक्ष देखकर बुरी तरह से टूट गए। विपक्ष ने भी लोगों को जीएसटी के नाम से डराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इन सबसे प्रभावित होनेवाले लाखों व्यवसायियों में से मेरे पिताजी भी एक थे।
उनकी छोटी सी ऑटो पार्ट्स की दुकानदारी के प्रभावित होने की एक बड़ी वजह और भी थी।


क्रमशः