जो तुम्हारा हो ना पाया,
सोचो भला क्यों?
उसे दिल मे बसाया
बहुत क़दरदान थे
तुम्हारे इस मकान के,
काश के तुमने इशतेहार
ना होता लगाया।
अज़ीन बहन से लिपट कर उन्हें डरी हुई नज़रों से देख रही थी। आज से पहले वह उनसे इतना तब डरी थी जब वह इस घर में पहली दफ़ा आई थी।
"तुम्हें क्या लगता है लड़की? अगर गलती से मेरे एक बेटे की शादी तुम्हारी बहन से हो ही गई है, तो क्या मैं यह गलती दोबारा दोहराना पसंद करूंगी? आसिफ़ा बेगम अपने मुंह से जैसे ज़हर उगल रहीं थीं। अरीज ने इस बेइज़्ज़ती पर अपना सर झुका लिया था और अज़ीन उन्हें अभी भी वैसे ही देख रही थी।
"मेरे बेटे पर नज़र डालने से पहले तुम्हें अपनी औकात पर नज़र डालनी चाहिए थी। तुम्हें घर में रख क्या लिया? तुम ने तो मालकीन बनने का ख़्वाब ही देख लिया। वाह भई वाह!" वह कमरे के अन्दर आते हुए ताली बजा रहीं थीं।
उनकी बात पर अरीज ने उन्हें अफ़सोस से देखा था। वह ऐसा कैसे कह सकती थी।
"लड़की मेरे हदीद का ख़्याल अपने मन से बाहर निकाल दो, और जितना हो सके उतना उस से दूर रहने की कोशिश करो वरना तुम्हें धक्के मार कर घर से बाहर निकाल दूंगी।" उन्होंने उन्गली उठा कर उसके चेहरे के क़रीब किया जैसे उसकी आंखों को नुक्सान पहुंचाना चाहतीं हों, अज़ीन ने डर के मारे अपनी आंखें बंद कर ली थी। आसिफ़ा बेगम उसे वैसे डरा रही थी, धमका रहीं थीं। अज़ीन को यक़ीन नहीं हो रहा था वह अपने दिल में उसके लिए इतनी कड़वाहट, इतनी नफ़रत रखतीं हैं। उसे तो हमेशा यही लगा था की उनका मीजाज़ ही ऐसा है, सिर्फ़ उस से नहीं, वह हर एक से वैसे ही उखड़ कर बात करती है, वह चाहे, उमैर हो, अरीज हो या वह खुद हो लेकिन आज उसके लिए उनकी नफ़रत उभर कर सामने आई थी।
"मेरी बात अपने दिमाग़ में बसा लो लड़की?" उन्होंने फिर से दहाड़ा था।
"नहीं, आप मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकती, हां मैं मानती हूं मैंने ख़्वाब गढ़े थे, मगर इसकी बुनियाद मैंने नहीं रखी थी। बाबा ने ख़ुद कहा था, आप कैसे भूल सकती है?" अज़ीन से चुप नहीं रहा गया था, वह इतनी जल्दी कैसे हार मान सकती थी।
"किस हक़ से तुम ज़मान को बाबा कह रही हो? रिश्तेदारी बढ़ाने की कोशिश मत करो, तुम अपनी और हदीद की बात कर रही हो? अगर मेरा बस चले तो मैं उमैर और अरीज का रिश्ता भी भूल जाना चाहूँगी, समझी तुम?" उन्होंने नफ़रत से कहा। अज़ीन ने उन्हें बेयक़ीनी से देखा फिर अरीज को, जो उसे चुप रहने का इशारा कर रही थी।
आसिफ़ा बेगम ज़हर उगल कर जा रही थी और अज़ीन इन सब बातों को बुरा सपना समझकर भूल जाना चाहती थी मगर यह मुमकिन नहीं था। जो अभी अभी हुआ था वही हक़ीक़त थी और अब तक वह जिस दुनिया में जी रही थी वह सब ख़्वाब था सराब (mirage) था और अब अज़ीन की बेहतरी भी इसी में थी कि वह इस सच को क़ुबूल कर लेती।
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"अल्लाह हू अकबर, अल्लाह हू अकबर"!
अरीज उसका सर अपने गोद में लेकर बैठी हुई थी। फ़ज्र की अज़ान की आवाज़ कान में जाते ही जैसे उसमें जान वापस आई थी। जब दिल का बोझ बढ़ जाए तब बन्दों को चाहिए के वह अपना सर अपने रब के आगे सजदे में झुका दे, ताकि सारे बोझ दूर हो जाएं। अरीज भी यही करने चली थी। उसने अज़ीन का चहरा देखा, वीरान, बेजान सा चेहरा। उसने उसका सर आहिस्ता से अपने गोद से उठाया था और बड़े आराम से तकिया के उपर रख दिया था, जैसे की वह कोई कांच की गुड़िया हो, जो हल्के से ज़र्ब से ही टूट जाती। अरीज को थोड़ा इत्मीनान हुआ था जबहि वह अब अपने कमरे में जाकर नमाज़ पढ़ने का सोच रही थी। कमरे से निकलने से पहले उसने उस पर एक नज़र डाली थी और चली गई थी।
पूरी रात अज़ीन ने आंखों में काट दी थी, उसकी आंखें जैसे पत्थर की हो गई थी। उतनी ही सख़्त और उतनी ही बेजान। बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि वह पूरी की पूरी पत्थर जैसी हो गई थी, इतना भारी की उसे अपना वजूद ही बोझ जैसे मालूम हो रहा था। बस एक दिल था जो अभी भी पत्थर का नहीं हुआ था। वैसे ही धड़क रहा था। अज़ीन को अपनी ही धड़कनों से उलझन महसूस हो रही थी। इतनी ज़िल्लत सह कर भी वह कैसे धड़क सकता था, इतना सब कुछ होने पर भी वह ज़िन्दा थी, मगर कैसे थी? वह खुद को क़सूरवार मान रही थी, उसी ने सबको मौका दिया था कि सब उसकी इज़्ज़ते नफ़्स को अपने पैरों तले रौंद दे। क्या पा लिया उसने मुहब्बत कर के? आज उसे अरीज की हर बात पर रोक टोक का मतलब समझ आया था। वह उसे इसी बेइज़्ज़ती से बचाना चाहती थी और वह अपनी बहन को कितना गलत समझती आ रही थी। गुस्से में उसने अरीज को क्या कुछ नहीं कह दिया था। वह अपने पिछले रवैए पर पछता रही थी। यह सारी बातें उसे अन्दर से खाये जा रही थी।
ख़ुशी के वक़्त में सब याद आतें हैं और मुश्किल वक़्त में सिर्फ़ एक रब याद आता है, उसे भी आया था ...बहुत दिनों के बाद। वह भी अपने बोझ को उठा कर चल पड़ी थी, उसने वज़ू कर के फ़ज्र की नमाज़ अदा की थी, जब हाथ फैला कर दुआ मांगने का वक़्त आया तो पत्थर आंखों से चश्मे (spring, झरना) जारी हो गये, क्योंकि अब उसके पास ख़ुदा से मांगने को कुछ बचा ही नहीं था। वह पिछले आठ- नौ साल से अपने रब से सिर्फ़ एक ही चीज़ मांग रही थी। वह हदीद को मांग रही थी लेकिन आज उसे ये एहसास हो गया की उसकी सारी दुआएँ आसमानों से टकरा कर वापस आ गई है। उसकी दुआओं में शायद उतनी ताकत ही नहीं थी जिस से उसका रब राज़ी हो जाता।
आख़िर क्यूँ हुआ था ऐसा? क्या ग़लती थी उसकी?
जब वह अपने हाथों को फैला कर हदीद को दुआओं में मांगा करती थी, तब भी उसके हाथ खाली ही हुआ करते थे मगर आज उसे अपने इन खाली हाथों को देख कर मलाल आ रहा था।
वह अपने खाली हाथों को फैलाए मुसलसल(लगातार) रोए जा रही थी, दिल का बोझ क़तरा क़तरा आंखों से बह रहा था। वह फूट-फूट कर जाने कितनी देर रोती रही थी, जब दिल का सारा ग़ुबार बाहर निकल गया और सुकून हासिल हो गई तब वहीं जानमाज़ पर उसकी आँखे लग गई और वह वहीं पर सो गयी।
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१२ साल पहले....
पश्चिम बंगाल में श्यामनगर रेलवे स्टेशन से बीस मिनट की ड्राइव की दूरी पर उसका एक छोटा सा दो कमरों का किराये पर लिया हुआ घर था।
ज़िंदगी ने पिछले दो सालों से जीना हराम कर के रखा हुआ था। दो साल पहले बाप और अब मां का साया भी छिन गया था। बाप ने जो अपने घर वालों से बिमारी छुपा छुपा कर पैसे बचाएं थे, उनके जाने के सदमा में मां को लगी बिमारी में सब खर्च हो गए थे। एक घर, एक छोटा सा ज़मीन का टुकड़ा, थोड़े से ज़ेवर, थोड़ा बहुत जमा किए हुए रूपए सब कुछ एक एक करके हाथ से चला गया था।
सर से अपने नाम की छत जाने का उतना मलाल नहीं था, जितना सर से मां बाप के नाम का साइबान छिन जाने का दुख था। बस दो ज़िंदगियां थी जो अभी भी धड़क कम और सिसक ज़्यादा रही थी, एक अठारह साल की और दूसरी नौ साल की_ अरीज और अज़ीन।
अरीज ने वह बन्द लिफ़ाफ़ा पोस्ट कर दिया था, यह जाने बिना के उस में क्या था? बस उसकी मां ने उससे इतना कहा था की उनके जाते ही इस लिफ़ाफ़े को पोस्ट कर देना। आज उस लिफ़ाफ़े को पोस्ट किए हुए तीसरा दिन था। एक नामालूम सा इन्तज़ार था जिसमें वह ना चाहते हुए भी घिर गई थी। उसके दिल को किस चीज़ का इंतज़ार था वह ख़ुद नहीं जानती थी? या फिर शायद उसे किसी मसीहा का इंतज़ार था? अल्लाह अगर एक दरवाज़ा बंद करता है तो दूसरा खोल देता है, आख़िर वह कौन सा दरवाज़ा था, जो अब खुलने वाला था?