इश्क़ ए बिस्मिल - 11 Tasneem Kauser द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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इश्क़ ए बिस्मिल - 11

तेरे अल्फ़ाज़ की चादर मैं ओढ़ूं और निचोड़ूं।

यूं तिनका तिनका बिखरी हूं

किस तरह खुद को जोड़ू।

तेरे अल्फ़ाज़ की चादर मैं ओढ़ूं और निचोड़ूं।

काफ़ी रात हो गई थी मगर अरीज की निंद जैसे उड़न छू हो गई थी। दिल आज अलग ही लय में धड़क रहा था, उसे समझ में नहीं आ रहा था यह थकावट की वजह से है या फ़िर किसी अनहोनी के होने का अंदेशा।

उसने अपने बगल में सो रहे उमैर को देखा था, किसी सोते हुए बच्चे की तरह वह बेखबर था। उसके चेहरे पर हमेशा एक नूर सा रहता था, शायद यह नूर नेक होने की निशानी थी। क्या इस ज़माने में कोई इतना भी नेक हो सकता है? जितना यह बन्दा था। १२ सालों से यह बेऔलाद था मगर इसके सब्र का पैमाना कभी भी नहीं छलका था। इतना ख़ूबसूरत और हसीन होते हुए भी कभी दूसरी शादी का ख़्याल इसके मन से होकर भी नहीं गुज़रा था जबकि कोई भी लड़की आसानी से इसकी दूसरी बीवी बनने पर ख़ुद पर रश्क कर सकती थी। मां, बहन और रिश्तेदारों के लाख कहने और समझाने पर भी यह बन्दा अपनी बात से टस से मस ना हुआ था। लोग हैरान होते थे इसकी वफ़ा पे। उमैर ने एक ऐसी लड़की से शादी कर ली थी जिसे ना तो यह जानता था ना इसके घर वाले फ़िर भी उस से इस क़दर की वफ़ादारी!

नेक औरतों के लिए नेक मर्द होते हैं, तो अगर उमैर नेक था तो अरीज कैसे नेक ना होती। सारे इख़्तेयार होते हुए भी कभी अरीज ने नाजायज़ फ़ायदा नहीं उठाया था किसी भी चीज़ का, बस सब्र और तहम्मुल का दामन थामे हुए रखा था।

मियां-बीवी के रिश्ते में यह एहसास कितना ख़ूबसूरत होता है की आपके पैदा होने से कईं हज़ार साल पहले आपका नाम आपके जोड़े के साथ लिख दिया गया था। कौन, किसके नसीब में लिखा गया है यह कोई नहीं जानता सिर्फ़ उस एक ज़ात के जिसे हम "रब" कहते हैं। कौन किस से कब और कैसे मिलेगा यह सिर्फ़ एक हमारा परवरदिगार जानता है, तो यह अनोखी बात होकर भी कोई अनोखी बात नहीं थी के उमैर को अरीज हमसफ़र के रूप में मिली थी। उनका मिलना तो तय था हज़ारों साल पहले ही। और आगे कौन किस से मिलेगा यह भी तय किया हुआ है, लेकिन कैसे मिलेगा यह देखना बाकी है।

अरीज को प्यास लगी थी, लेकिन कमरे में पानी मौजूद नहीं था, पानी के गर्ज़ से वह कमरे से निकली थी और किचन में जाते वक़्त उसने लॉबी की तरफ़ कुछ आवाज़ें सुनी, उसे लगा हदीद होगा फ़िर भी अपनी तसल्ली के लिए उसने देखना ज़रूरी समझा। जब लॉबी पहुंची तो अज़ीन को बड़ी जल्दीबाजी में सीढियां चढ़ते हुए पाया। उसकी जल्दबाज़ी ने अरीज को चौंकाया था इसलिए वह भी उसके पीछे भागी थी।

अज़ीन जैसे अपने कमरे में पहुंची अरीज ने पीछे से उसे पुकारा मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया।

"अज़ीन!" वह उस तक पहुंच गई थी और अब उसका बाज़ू पकड़ कर उसे अपनी तरफ़ घुमाया था। उसका चेहरा देखकर वह हैरान रह गयी थी। उजड़ा वीरान सा चेहरा, सूर्ख़ आंखें, सूर्ख़ नाक, स्सिकीयों से थर्राता हुआ जिस्म। उसे देखकर अरीज की आंखें फटी की फटी रह गई थी। वह किसी भी तरह की अनहोनी से डर रही। वह पूछना चाहती थी, लेकिन कुछ बुरा सुनने की फ़िलहाल उसमें भी हिम्मत नहीं थी।

"अज़ीन!" अरीज को अपनी ही आवाज़ गहराइयों में डूबी हुई महसूस हुई।

अज़ीन, अरीज को इतने ग़ौर से देख रही थी जैसे उसे पहचानने की कोशिश कर रही हो।

अरीज को वह अपने होश में नहीं लग रही थी।

"अज़ीन... अज़ीन होश में आओ" उसने उसके दोनों कन्धों को पकड़ कर उसे झिंझोड़ दिया था।

"हां.... हां..."वह जैसे होश में आई थी।

"शश....." अज़ीन ने अपनी शहादत की उन्गली को होंठों के ऊपर रख कर उसे चुप रहने का इशारा किया था

"आपको पता है? भाईजान ने आप पर एहसान किया था कि उन्होंने आपसे शादी कर ली थी, मगर वह मुझ पर कोई एहसान नहीं करेगा।" उसकी आंखें सूज गई थी और सूर्ख़ इतनी थी जैसे उन में ख़ून उतर आया हो, वह आंखें फाड़कर उसे बड़ी राजदारी में बता रही थी। अरीज को कुछ समझ नहीं आया था कि वह क्या बोल रही है।

"आपको याद है? बाबा....ज़मान बाबा"? उसने उसे याद दिलाया था जैसे कि अरीज तो भूल ही गई थी।

"हां... हां...याद है उन्हें कैसे भूल सकती हूं?" अरीज उसके अजीबो-गरीब सवाल पर झूंझला गई थी।

"उन्होंने कहा था वह मुझे इस घर से कहीं जाने नहीं देंगे। हमेशा यहीं रखेंगे। जैसे उमैर और अरीज है वैसे ही हदीद और अज़ीन होंगे।" वह कहते कहते जाने किस दुनिया में खो गई थी।

"अज़ीन! वह इस दुनिया से चले गए हैं... अब इन सब बातों का कोई मतलब नहीं है।" अरीज ने उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों के प्याले में थाम लिया था। वह उसे एक बच्चे की तरह समझा रहीं थीं।
"कोई मतलब कैसे नहीं है? मैं इतनी छोटी सी उम्र में समझ गई थी लेकिन आप लोग क्यूं नहीं समझ पा रहे हैं?...या फ़िर आप में से कोई इस बात को समझना ही नहीं चाहता।" अरीज के हाथों को झटककर उसने ऊंची आवाज़ में लगभग चीखते हुए कहा था।

"मेरा माज़ी, मेरा मुस्तक़बिल, मेरे सारे ख़्वाब, बस इसी एक बात से वाबस्ता है क्योंकि मैंने अपनी ज़िंदगी का मरक़ज़ ही इसी एक बात को बना लिया था।" उसे खुद पर अफ़सोस हो रहा था। वह जैसे अपनी ही सोच पर मातम मना रही थी।

"मैंने क्या आपको कभी बताया था कि मैं उस से कितनी मुहब्बत करती हूं? नहीं ना.... कभी नहीं बताया ना?.... फिर भी आपको सब पता चल गया।... मैंने कभी अपनी किसी दोस्त को भी नहीं बताया था लेकिन उन्हें भी पता चल गया। पता है कैसे? वह सब कहती हैं मैं अपनी आंखों में उसका अक्स लिए फिरती हूं। मैं हवाओं में उड़ती हूं। मैं अपने खुद की नहीं किसी और की लगती हूं। फिर उसे मेरी आंखों में उसका अक्स क्यूं नहीं दिखता?" वह ज़िद्दी बच्चे की तरह रो रही थी। अरीज का दिल हौल रहा था। उसे इसी बात का डर लगा रहता था। जब उसका दिल टूटेगा, (जो एक ना एक दिन टूटना ही था) तब उस पर क्या क़यामत टूटेगी। वह उसे खुद से लगा कर उसके लरज़ते हुए जिस्म को सहारा दे रही थी। कभी उसकी पीठ तो कभी उसका सर सहला रही थी।

"उसे क्यूं नहीं समझ आता?" वह अपने ठुकराए जाने का मातम मना रही थी।

"मेरे सारी ज़िन्दगी उसी से वाबस्ता हैं। वह नहीं मिला तो मैं अपनी ज़िंदगी का क्या करूंगी?" वह चीख रही थी। उसे अपना होश नहीं था और अरीज अपनी पूरी ताकत लगा कर उसे थामें हुए, उसके साथ साथ रो रही थी। आज अरीज को बहुत सालों के बाद अपने और अपनी बहन के यतीम होने का शिद्दत से एहसास हुआ था। काश उसके मां बाप आज ज़िन्दा होते। काश ज़मान ख़ान ज़िंदा होते। वह लाख कोशिशों के बावजूद अज़ीन को नहीं संभाल पाई थी। उसे पता था वह जिस राह पर चल पड़ी है वहां उसे सिर्फ़ ज़िल्लत मिलेगी, लेकिन अरीज नाकाम साबित हुई थी वह उसे उस राह पर चलने से रोक ना सकी थी।

"वोह तुम्हें कभी मिल भी नहीं सकता" उसके कमरे के दरवाज़े के बाहर आसिफ़ा बेगम खड़ी हो कर उस से कह रही थी।