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फाँसी काठ

मध्यमवर्गीय मेरे पिता एक लम्बी रेंग के बाद भी जिस दुनिया के पड़ोस तक न पहुँच सके थे, उस दुनिया में आई.पी.एस. की प्रवेश परीक्षा में प्राप्त हुई मेरी सफलता मुझे एक ही छलाँग में उतार ले गई।

बधाई के साथ नसीहत देने वालों की बातों में जो बात मेरे दिमाग में घर कर गई वह थी, ससुराल बनाते समय मुझे पत्नी की सम्पदा देखनी चाहिए या फिर उसके सम्पर्क-सूत्र।

मैंने सम्पदा चुनी और स्वर्णा से शादी कर ली।

उसके बिल्डर पिता मेरी तरह सेल्फमेड थे। फैमिली मेड नहीं। उनका इमारती कारोबार मामूली ठेकेदारी से शुरू हुआ था, किन्तु स्वर्णा की शादी के समय तक आते-आते वे अपनी मुद्रा को विविध एवं अनेक वैभव-प्रतीकों में बदल चुके थेः पोशाक में, मोटरगाड़ी में, मकान में, शुगल में, क्लबों की सदस्यता में।

शादी में दहेज के नाम पर उन्होंने मुझे एक कीमती मोटरगाड़ी के साथ-साथ दो फ्लैट भी दिए जिनका किराया ही लगभग दो लाख था।

शादी के बाद मुझे अपने मनोविज्ञान की स्नातकोत्तर वे पुस्तकें एकदम झूठी लगने लगीं जिनमें हमारे मानवीय मस्तिष्क की जटिल तहों का उल्लेख रहा करता। अब मैंने जाना उच्च, धनाढ्य वर्गों के लोगों में मस्तिष्क का टैªक एकल ही होता है: ’मुझे लाभ मिलना चाहिए’और यदि उनके मस्तिष्क में तहें हैं भी तो केवल स्नायुओं ही की हैं, विचारों का नहीं, भावनाओं का नहीं। बाहर भी, भीतर भी। ये सभी धनवान लोग एक समान हैं। बिना विभंजन के। बिना द्वन्द्व के। बिना उलझन के। बिना संभ्रम के। उनकी भीतरी दुनिया में कभी कोई भूचाल नहीं आता और बाहर चेहरे पर कोई हड़बड़ाहट नहीं दीखती।

दल बाँधकर वे चला सकते हैं और अपनी संघचारी का उपभोग अपने लाभ ही को ध्यान में रखकर किया करते हैं। उनके मैत्री-भाव का अनुपात भी उनका प्रयोजन ही निश्चित किया करता है। बड़ा प्रयोजन बड़ी मैत्री, छोटा प्रयोजन, छोटी मैत्री।

रम्भा मेरे जीवन में मेरे चालीसवें वर्ष में आई। मेरे तात्कालिक विभाग की नई निजी सचिव।

ऊर्जा और उल्लास टपका रही सत्ताईस वर्षीया अपनी तरूणाई का घोषणा- पत्र।

संबंध स्थापित करने की उसकी आतुरता संक्रमण रखती थी। मेरे प्रति स्वर्णा के अधिकारभाव के ठीक विपरीत मेरे प्रति उसका दासभाव मुझे अतिरिक्त प्रोत्साहन से भर दिया करता।

परिणाम, अवसर मिलते ही मैं उसे रेस्तरां ले जाने लगा, होटल में ठहराने लगा, हॉलीडे रिजोर्ट पर उसके साथ छुट्टी मनाने लगा, उपहार स्वरूप उसे कभी कोई नया निजाइनर परिधान अथवा अनूठी प्रसाधन-सामग्री दिलाने लगा।

रेलवे क्लर्क अपने पिता की पाँच बेटियों में वह तीसरे नम्बर पर थी और उसके पिता के मन में रम्भा के मेरे सं इस बढ़ रहे सान्निध्य को लेकर कोई उलझन नहीं थी। बल्कि वे आशा रखते थे अपनी अगली दो बेटियों को भी वे मेरे बूते पर ’आगे’ बढ़ाने में सफल हो सकेंगे।

दफ्तर पहुँचने के लिए रम्भा पहले दो भिन्न सार्वजनिक वाहन प्रयोग में लाया करती थी। घर से दफ्तर तक का आधा रास्ता वह मेट्रो से तय किया करती और आधा रास्ता बस, किन्तु अब उसे उसकी बस-यात्रा से बचाने हेतु मैं अपनी गाड़ी उपलब्ध कराने लगा। बल्कि दफ्तर के बाद उसे मेट्रो स्टेशन तक अपनी ही सरकारी गाड़ी से स्वयं पहुँचाने भी लगा और दफ्तर से पहले उसे स्वयं लिवाने।

आगे की घटना से आपको अवगत कराने से पहले, यहाँ मैं बाल्जाक के एक उपन्यास (’द थर्टीन’-तेरह) से एक संदर्भ लेना चाहूँगा।

उस उपन्यास मंे बाल्जाक का एक पात्र जब कहता है धनी व्यक्ति जो चाहे कर सकता है। उसे कानून मानने की कोई पाबन्दी नहीं। क्योंकि कानून उसी बात मानता है। इन करोड़पतियों के लिए न कोई फाँसी काठ होता है और न ही कोई जल्लाद.....’’

तो रफेल नाम का दूसरा पात्र उसकी बात काट देता है, ’’फाँसी काठ पर ये करोड़पति अपने शीश स्वयं फोड़ते हैं। दे आर देयर ओन हैड्ज़मेन-।’’

हमारे साथ यही हुआ। एक ओर अपने प्रति मेरा लगाव देखकर रम्भा यदि ऊँचे सपने देखने लगी, मुझसे अपने नाम स्वर्णा का एक फ्लैट माँगने लगी, तो दूसरी ओर रम्भा के संग मेरी घनिष्ठता की भनक उधर स्वर्णा को लग गई। कुपित स्वर्णा ने अपने पिता से शिकायत की तो उन्होंने रम्भा की हत्या करवा दी।

भाड़े के हत्यारों के हाथों। उस समय जब रम्भा अपने मेट्रो स्टॉप से दूसरी सवारियों की भीड़ चीरकर मेरी सरकारी गाड़ी की तरफ बढ़ रही थी।

पकड़े जाने पर भाड़े के उन हत्यारों ने पहले जो नाम उगला वह मेरा था। परिणाम, पहले मुझी पर हत्या करवाने का मुकदमा चला।

किन्तु जैसे ही मेरा वकील भाड़े के उन हत्यारों से पूरा सच उगलवाने में सफल हुआ, स्वर्णा और उसके बिल्डर पिता पर भी मुकदमा दायर हो गया।

अब हम तीनों जेल में हैं।

हमें एक-दूसरे से मिलने की सख्त मनाही है और विडम्बना तो यह है कि हर जिरह पर जब-जब मैं चिल्लाता हूँ रम्भा की हत्या में मेरा कोई हाथ नहीं रहा था, प्रत्युत्तर में मुझसे पूछा जाता है, उसकी हत्या में यदि आपका हाथ नहीं था, फिर आप ही की बाँहों में उसने अपना दम कैसे तोड़ा ? क्यों तोड़ा ?

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