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उत्तरजीवी

विभागाध्यक्ष की ऊंची एड़ी की सैंडिल अपनी धमक के साथ विभाग की ओर तेजी से बढ़ रही थी।

लिव ! लिव ! लिव !

सुधा ने मन ही मन दोहराया और मुस्कराई ।

पंद्रह दिन पहले अस्पताल से लौटकर जब वह अपने कमरे में कराही थी: ईवल ! ईवल ! ईवल ! तो अकस्मात् उस समय प्रकट हुआ था: ईवल ! ईवल ! ईवल ! का प्रस्तार लिव ! लिव ! लिव ! में बदलता जा रहा था। लगभग वैसे ही जैसे पौराणिक वाल्मीकि का मरा ! मरा ! मरा ! बारंबार राम ! राम ! राम ! बनता चला गया था।

’’सुधा !’’ विभाग में कदम रखते ही विभागाध्यक्ष ने उसे अपनी मूठ में ले लिया, ’’घर ले जाकर जब मैंने तुम्हारी जांची हुई कापियों के जोड़ों का मिलान कराया तो मेरे अदर्लियों ने मुझे तुम्हारी कई गलतियां दिखाईं।’’

आय.पी.एस. के अंतर्गत विभागाध्यक्षा के डी.आई.जी. पति लोक सेवा अधिकरण की कापियां जब भी जांच के लिए मंगवाते तो अपनी कापियां अपनी पत्नी की ओर सरका देते जो पिछले तीन साल से अपनी जिम्मेदारी आगे सुधा को सौंप देती।

’’मुझे क्षमा कर दीजिए,’’ सुधा जानती थी विभागाध्यक्षा झूठ बोल रही थी किंतु उसकी नौकरी अभी अल्पकालिक थी और विभागाध्यक्षा उसे निकाल कर कभी भी उससे अलग कर सकती थी।

’’देखूंगी तुम अगली अढ़ाई सौ कापियां कैसे निकालती हो ! कब निकालती हो!’’

’’कब तक चाहिए?’’ सुधा को पसीना आ गया ।

पूर्ववर्ती दस दिनों में अधिकरण की उन तीन सौ कापियों की जांच करते समय उसके छीजे एवं रक्तस्रावी शरीर की जो अनवरत घिसाई हुई थी, उसकी परिणामी श्रांति अभी भी उसके अंदर उपस्थित थी।

’’सात दिन बाद कापियां भेजने की अंतिम तिथि आ जाएगी।’’

’’मैं उससे पहले ही काम खत्म कर दंूगी।’’

’’उन कापियों के साथ मैं आज शाम तुम्हारे घर आऊंगी।’’

’’आप चाहें तो अपने ड्राइवर के साथ कापियां भिजवा दीजिएगा,’’ सुधा नहीं चाहती थी विभागाध्यक्षा उसके घर पर आए।

जब भी विभागाध्यक्षा उसके घर पर आती वे दोनों बहनें अपने-अपने हाथ का काम छोड़कर विभागाध्यक्षा के संग एक सामूहिक गुप्त दल संगठित कर लेतीं। उन्हें साथ देखकर सुधा को लगता उन तीनों की सामूहिक शक्ति अगले किसी भी पल उसके जीवन-चक्रण को एक सांघातिक विराम दे देगी। यूनानी मिथक-शास्त्र की वे तीन डायनें-क्लोदो, लैचेसिस तथा एट्रोपोस- क्या ऐसी ही नहीं लगती रही होंगी जो उस पौराणिक युग में धरती के निवासियों का जन्मकाल, जीवनकाल तथा मृत्युकाल निर्धारित करती रही थीं?

’’क्यों?’’ विभागाध्यक्षा हंसी, ’’मैं तुम्हारे घर पर क्यों न आऊं ? बल्कि मुझे तुम्हारे घर पर आना बहुत भाता है। कैसा संयोग है जो तुम्हारी सास भी सौतेली है और मां भी सौतेली। और ऊपर से चमत्कार यह कि दोनों आपस में सगी बहनें हैं और एक साथ तुम्हारे घर में रहती हैं ।

’’जी...जी हां...पिछले वर्ष जब मेरे ससुर का देहांत हुआ तो उनका घर किराए पर उठा दिया गया और हम एक साथ रहने लगे...’’

’’और संयोग देखो,’’ विभागाध्यक्षा दोबारा हंसी, ’’दोनों बहनें एक समान विधवा हैं, निःसंतान हैं...मुझे तो लगता है कि दोनों ने ही मां बनने की अपनी उम्र गुजर जाने के बाद अपने लिए विधुर पति ढूंढे: तुम्हारे पिता और तुम्हारे ससुर...’’

’’मेरे पिता बाद में विधुर हुए,’’ सुधा ने कहा ।

ग्यारह वर्ष पहले जब सुधा के ससुर अपने एकलौते बेटे तथा दूसरी पत्नी के साथ उनके पड़ोस में रहने आए थे तो सुधा की मां अभी जीवित थीं। दोनों बहनें जैसे ही सुधा के घर आने-जाने लगी थीं, उसकी मां बीमार रहने लगी थी और अगले वर्ष जैसे ही वे मृत्यु को प्राप्त हुई थीं, छोटी बहन स्थायी रूप से उसके घर आ टिकी थी: उसकी सौतेली मां बनकर।

’’दिलचस्प....बहुत दिलचस्प,’’ विभागाध्यक्षा उत्तेजित हो आई, ’’मानो कोई किस्सा हो...कोई फंतासी....क्या तुम्हें कभी शक हुआ तुम्हारी मां को उन दो बहनों ने मिलकर खत्म  किया..?’’

’’नहीं मैंम,’’ सुधा ने अपनी थूक निगल ली, ’’कभी नहीं, कभी नहीं....’’

’’आपके नाम पिं्रसीपल साहिबा की एक चिट्ठी है, साहिब,’’ एक विशिष्ट सलाम के साथ बड़े दफ्तर का चपरासी विभाग में चला आया।

इस कालेज के सभी चपरासी इस विभागाध्यक्षा के संग सुविचारित जीहजूरिया बरतते।

’’ठीक है,’’ प्यून बुक पर तिथि के साथ विभागाध्यक्षा ने अपने हस्ताक्षर किए, ’’तुम जाओ।’’

’’डी.आई.जी. साहब ने एक काम बतलाया था, साहिब,’’ चपरासी ने अपनी कमर तिरछी की।

’’तुम्हारे बेटे का उन्हें पूरा ध्यान है...’’ विभागाध्यक्षा ने चपरासी को एक प्रशस्त मुस्कान दी।

’’जवान बेटा है, साहिब,’’ चपरासी ने अपनी कमर दोहरी कर ली, ’’उपर से आज का जमाना। तमाम खर्चे हैं उसके सिगरेट, चाय, फिल्म। हम कहां तक उसके खर्चे पूरे कर सकेंगे, साहिब?’’

’’ऐसा करो। उससे एक निवेदन-पत्र और लिखवा लाओ। देखें, किसी दूसरे दफ्तर में देखें। डी.आई.जी. साहब के नीचे आजकल तीन दफ्तर हैं। तुम्हारे बेटे किस्मत अच्छी होगी तो किसी न किसी दफ्तर में जगह पा जाएगा।’’

’’हम जिंदगी-भर आपके गुण बखानेंगे, साहिब,’’ चपरासी और नीचे झुक लिया, ’’आपके इलावा हमारा दूसरा कोई सोर्स नहीं....’’

’’ठीक है, कल मिलना,’’ विभागाध्यक्षा ने प्रधानाचार्या का पत्र खोल कर चपरासी को जाने का संकेत दिया।

’’बेहतर, साहिब, बेहतर,’’ चपरासी ने अपनी कमर सीधी की और विभाग से बाहर हो लिया।

’’पुस्तकालय में रखी हमारे विषय की सभी पुस्तकों की सूची प्रिंसिपल तीन दिन के अंदर चाहती हैं।’’

’’मैं तैयार कर लूंगी,’’ सुधा ने कहा।

’’तुम मन लगाकर काम करोगी तो तुम्हीं फायदे में रहोगी। इस सेशन के बाद भी तुम्हीं को बुलावा भेजूंगी।’’

’’आपकी बहुत कृपा होगी, मैंम। धन्यवाद। मगर मैं सोचती हूं यदि आप प्रिंसीपल साहिबा से कह कर मेरी नौकरी पक्की ही करवा दे तो...’’

सुधा की नौकरी अल्पकालिक जरूर थी मगर विभाग में एक स्थायी पद की रिक्ति होने के कारण स्थायित्व की प्रत्याशा रखे हुए थी। स्थायी पद पर काम कर रहीं विदुषी ने जब अमेरिकन छात्रवृत्ति प्राप्त की थी तो सौभाग्यवश उसने कालेज प्रबंधक से केवल तीन महीने की छुट्टी मांगी थी, अपना त्यागपत्र तुरंत नहीं भेजा था। इसीलिए उस अल्पावधि के लिए जब विज्ञापन दिया गया था तो कई प्रभावशाली महिलाओं ने उस पर विचार नहीं किया था और सुधा सुगमता से इस पद के लिए चुन ली गई थी।

’’तुम बहुत लालची हो,’’ विभागाध्यक्षा उदार हो ली, ’’ठीक है। मैं प्रिंसीपल से बात करूंगी। वे मेरी बात टालेंगी नहीं । मेरे पति ने बहुत मौकों पर उनके कई काम निपटाए हैं।’’

’’धन्यवाद। मैं जीवन-भर आपकी आभारी रहूंगी।’’

सुधा अपने क्लास रूम में ज्वालामुखी विस्फोट पर बोल रही थी: ’’प्रत्येक ज्वालामुखी का एक मुख्य ज्वालामुख होता है जो धीरे-धीरे गैसों के दबाव एवं लावे के जमा होने पर एक दिन एकाएक फट पड़ता है। ज्वालामुखी तीन प्रकार के होते हैं: विस्फोटक, शांत एवं मध्यवर्ती। विस्फोटक किस्म के ज्वालामुखी में ज्यादातर गैस, राख एवं प्युमिस का स्राव होता है, शांत वाले में लावे का तथा मध्यवर्ती में दोनों का...।’’

’’मैं म, बाहर आपको बुलाया जा रहा है,’’ एक साथ बहुत-सी लड़कियों ने सुधा का ध्यान दरवाजे की ओर आकृष्ट किया । दरवाजे पर दोनों बहनें खड़ी थीं, ’’बहुत बुरी खबर है,’’ बड़ी बहन रोने लगी।

’’उधर मेरे विभाग में आइए,’’ सुधा से लड़कियों की भीड़ की टकटकी सहन नहीं हुई और अपने बैग के साथ वह क्लास-रूम के दरवाजे से बाहर हो ली।

’’इसका सर्वनाश हो गया है और यह आगे-आगे भाग रही है,’’ छोटी बहन चिल्लाई।

सुधा के कदम वहीं रूक लिए। उसे सैनिक अस्पताल की वह चिलमची याद हो आई जहां पंद्रह दिन पहले उसकी कोख खाली की गई थी।

उसकी कोख का क्या अब ठूंठ ही रहेगी?

सदा-सर्वदा?

कभी पुष्पित न होगी?

वेग से सुधा की देह ने एक चक्कर खाया और वह औंधी होकर वहीं बरामदे मंे गिर गई।

जब उसकी चेतना लौटी तो अपने गिर्द एकत्रित सभी चेहरे उसे ऐसे लगे मानो वे ऐसी फोटा हों जिन्हें किसी नौसिखिए ने हिलते हुए कैमरे से खींचा हो।

’’यह एक्वागार्ड फिल्टर का पानी है,’’ सुधा की आंखें खुली देखकर विभागाध्यक्षा ने अपने हाथ की थरमस उसकी ओर बढ़ा दी, ’’तुम निश्ंिचत होकर इसे पी सकती हो...।’’

’’धन्यवाद,’’ अपनी संकल्प शक्ति पर फौलाद चढ़ा कर सुधा बैठ ली। थरमस का पानी ठंढा था । सुधा एक ही सांस में दो-तीन घूंट पानी अपने सूख रहे हलक के नीचे उतार ले गई।

’’तुम घबराना नहीं,’’ विभागाध्यक्षा ने भीड़ को सुनाया, ’’सैनिक विधवाओं के लिए सरकार के पास बहुत योजनाएं हैं....मैं आज ही अपने पति से बात करूंगी...’’

पानी पी रही सुधा के लिए इस आकस्मिक आक्रमण को पी पाना कठिन रहा और उसने उसी पल थरमस विभागाध्यक्षा को लौटा दिया।

बरामदे से अपने विभाग के आठ फुट उसने गहरी उद्विग्नता से पार किए।

विभाग में घुसते ही वह अपनी कुर्सी पर लोट कर रोने लगी।

’’लड़कियों को यहां नहीं आना चाहिए,’’ विभागाध्यक्षा ने छात्राओं को विभाग के अंदर न आने दिया, ’’इस परिवार और इसके शोक के बीच आप न ही पडें़ तो बेहतर रहेगा...’’

’’हाय ! हाय ! हाय !’’ बड़ी बहन सुधा के ऊपर झुक गई, ’’तीन महीने पहले जब वह यहां आया था तो हम क्या जानती थीं वह आखिरी बार हमारे पास आया था? नही ंतो क्या उसे कुकर्म के लिए पंद्रह रोज पहले हम अस्पताल जाते?’’

’’कुकर्म? कैसा कुकर्म?’’ विभागाध्यक्षा अपनी कुर्सी पर टिक कर बैठ गई, ’’पंद्रह रोज पहले आप अस्पताल क्यों गईं?’’

’’इसे डर था अगर इसने बच्चा गिराया नही ंतो इसकी नौकरी इसके हाथ से जाती रहेगी। पहले भी इस नौकरी को न गंवाने के चक्कर में बेचारी ने तीन सालों में पांच बार अपना पेट साफ कराया है...’’ बड़ी बहन ने अपना दायां हाथ विभागाध्यक्षा के चेहरे के सामने नचाया।

कभी पति के मध्यावकाश मनोरंजन की खातिर तो कभी अपनी मौज की खातिर और कभी-कभी तो केवल उन दो बहनों की चिढ़ाने की खातिर ही सुधा से असावधानी बरती जाती थी। हां, अपने दांपत्य से संबंधित एक दूसरे धरातल पर वह अधिक सतर्क तथा सफल रही थी। बाहर से उसके दांपत्य की बनावट बराबर सुदृढ़ तथा सुनिश्चित दिखती रही थी, भले ही अंदर से उस ढांचे के कई पुरजे ढीले रहे थे। सुधा ने वे पुरजे कई बार कसने चाहे थे किंतु इर बार पति की सीमावर्ती तैनाती आड़े आ जाती रही थी। किंतु यह सच था कि विवाह के उपरांत उसके पति के लिए ’परिवार’ तथा ’घर’ की संज्ञाओं का पर्यायवाची सुधा ही रही थी। ’प्रेम’ जैसी भव्य तथा विशाल संज्ञा केवल उन दोनों के शब्द-भंडार में उपस्थित रही थी, निष्पादन अथवा अर्जन में नहीं।

’’इसकी नौकरी मैं अब पक्की कर रही हूं।’’ विभागाध्यक्षा ने कहा, ’’इसका दुर्भाग्य भी एक मजबूत हवाला रहेगा। वैसे भी प्रिंसीपल मेरी बात नहीं टालतीं।’’

’’आप चिरायु हों, मैडम,’’ बड़ी बहन अपने स्वर में दुगुनी कारूणिकता ले आई, ’’आपके पति चिरायु रहें। आपके हाथों बेचारी पर यह उपकार हो गया तो हम तीनों की जिंदगी फिर आराम के कट जाएगी...’’

’’इसकी सवारी में अपने को मत शामिल कीजिए, जीजी।’’ छोटी बहन विभागाध्यक्षा की बगल में जा बैठी थी, ’’यह लड़की हमें अपना नहीं मानती । मुझे ब्याहे हुए आज दस साल होने को आए मगर इसने मुझे आज तक मां नहीं पुकारा। इसे ब्याहे हुए आज तीन साल होने को आए मगर इसने आपको आज तक सास नहीं माना...।’’

’’चुप रहो, मंजू,’’ बड़ी बहन ने सुधा को अपने अंक में भर लिया-सुधा के लिए यह निर्णय लेना शुरू से ही असंभव रहा था: शब्द-छली बड़ी बहन की गोल बातें उसे अधिक व्यथित करती थीं अथवा निर्लज्ज छोटी बहन की प्रत्यक्ष प्रचंडता- ’’यह लड़की मुझे बहुत प्यारी है....।’’

’’जीजी नहीं मानतीं, मैडम,’’ छोटी बहन ने विभागाध्यक्षा का ध्यान अपनी ओर खींचा, ’’मगर मैं मानती हूं। हम समझते हैं यह मात्र संयोंग है जो किसी एक परिवार में विपत्ति अपना तांता बांध लेती है । मगर यह जान लीजिए, मैडम! विपत्ति कभी अकारण नहीं आती। जरूर उस परिवार में किसी एक सदस्य के अंदर ऐसे अनिष्ट तत्त्व रहते हैं जो उस तांते के निमित्त कारण होते हैं। यह मात्र संयोग नहीं जो इस लड़की की मां इसके बाद निःसंतान रही, मैं निःसंतान रही, फिर मैं विधवा हुई, फिर इसकी सास बनने पर जीजी विधवा हुईं और अब यह स्वयं विधवा है....’’

ईवल !  ईवल ! ईवल !

नायलोन की वह साड़ी पीली थी जिसे उन दो बहनों ने उसकी मां की गरदन पर कस कर बांधा था...

खिचड़ी में मिलाया गया वह घी कड़ुवा था जिसने उसके पिता के अंदर मिचली पैदा करने के बाद उनके प्राण हर लिए थे...

कोनों से गीला रहा उसके ससुर का तकिया सिर की जगह से भी गीला हो गया था जब तेज बुखार से तप रहे उनके माथे पर ठंडी पट्टियां देने के दौरान बड़ी बहन ने उसे अपने पास बुला लिया था और छोटी बहन ने अपने बहनोई की सांस का ाबज रहे उनके नथुनों को छोड़ते हुए अकेले देखा था...दूरदर्शन पर आ रहे चित्रहार पर दोनों बहनों की निगाहें जीम रही थीं जब सैनिक अस्पताल से लौटते ही सुधा पर एक के बाद दूसरी घुमड़ी ने धावा बोला था...

दुर्भाव का, वैमनस्य का, हठ का एक वातावर्त सुधा के समीप, बहुत समीप चला आया।

उसकी गालों पर धारियां बना रहे उसके आंसू एकाएक थम गए। उसकी सिसकारी बैठ ली और एक अकाट्य कोप ने उसके शोक को पलटा दे दिया: लिव ! लिव ! लिव !

’’मैं पानी पिऊंगी, मैं म, प्लीज,’’ उसने अपनी आंखे विभागाध्यक्षा के चेहरे पर जमा लीं, ’’आपकी थरमस का पानी।’’

’’जरूर,’’ विभागाध्यक्षा उत्साहित हुई, ’’जरूर, जरूर।’’

’’आप खड़ी मत रहिए, जीजी,’’ छोटी बहन ने कहा।

’’बड़ी निगूढ़ लड़की है,’’ छोटी बहन के साथ वाली कुर्सी पर व्यवस्थित होते ही बड़ी बहन फुसफुसाई।

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