अग्निजा - 16 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अग्निजा - 16

प्रकरण 16

यशोदा पहले महीने में नहीं आई, दूसरे महीने में भी नहीं आई, तीसरे में भी नहीं। चौथा चल रहा था और सबकी बेचैनी बढ़ती चली जा रही थी। लखीमां का कलेजा इस डर से कांप रहा था कि यशोदा ऐसे कौन-से संकट में फंस गई कि चार महीनों से मायके ही नहीं आई। प्रभुदास बापू का जप बढ़ गया था। लेकिन चिंता न करते हुए सिर्फ एक ही बात कहते थे, “मेरा भोलेनाथ जो करेगा वही सही।” लेकिन दिन ब दिन केतकी मुरझाती जा रही थी ये बात सभी के ध्यान में आ रही थी। उसका खेलना, मौज-मस्ती, हंसना...सब कम हो गया था। वह अपनी सभी गतिविधियां यंत्रवत करती जा रही थी। उनमें किसी प्रकार का उत्साह या आनंद नहीं दिखता था।

लखीमां का मन मान नहीं रहा था। उन्हें मन में लगातार यह विचार आ रहा था, “चलो, बेटी को देख आएं। उसकी पूछताछ कर आएं।” लेकिन फिर उसी क्षण कानजी चाचा की बताई बात याद आ जाती, “फिलहाल कुछ दिन यशोदा से दूर ही रहिए... जैसे-जैसे उसकी गृहस्थी जम रही है...उसे ठीक से जम जाने दें...उसका वहां मन लग जाए तो यहां आप सब निश्चिंत हो सकेंगे। मैं तो कहता हूं कि फोन भी मत लगाइए। वैसे भी रणछोड़ दास को उसका मायके जाना, मायके से फोन आना या फिर मायके फोन करना पसंद ही नहीं है...कहीं एक फोन से सारा खेल बिगड़ गया तो? कुछ समय संभाल लें तो अच्छा होगा...”

लखीमां ने कानजी चाचा की यह बात याद दिलाने पर जयसुख ने एक रास्ता सुझाया। “इससे अच्छा हम कानजी चाचा को फोन करेत हैं...उनसे फोन पर बात करने की मनाही थोड़े ही है?” उनको फोन लगाया गया लेकिन किसी ने उठाया नहीं। फोन व्यस्त होगा या फिर कानजी चाचा कहीं बाहर गए होंगे। तीन-चार बार फोन लगाने के बाद भी उनके घर से किसी ने फोन नहीं उठाया। तब जयसुख ने आगे का विचार किया, “इससे अच्छा तो कानजी चाचा के घर ही होकर आता हूं...उनका घर दूर कहां है...कह दूंगा कि इस तरफ आया था...और बोलते-बोलते यशोदा के बारे में भी पता कर लूंगा।”

यह सुनकर लखीमां को आनंद हुआ। केतकी भी जिद पर अड़ गई, “मैं बी साथ चलूंगी..” उसका पक्का इरादा और उसकी आंखों के आंसू देखकर लखीमां ने उसे भी साथ ले जाने का इशारा किया। और फिर वे दोनों उत्साह से बाहर निकल पड़े।

लखीमां को दिलासा मिला। लेकिन उनका मन अपनी जगह पर नहीं था। उन्हें चिंता सता रही थी। प्रभुदास बापू ने उनके कंधे पर हाथ रखकर धीरज बंधाया, “यशोदा को कुछ नहीं होगा, अपने मन को शांत रखें।”

“लेकिन केतकी कितनी सूख गई...प्रसन्न हो तो उसे संभालने में कोई परेशानी नहीं होती, लेकिन....” लखीमां की आंखों में ममता उमड़ पड़ी।

“उसकी भी चिंता न करें। मेरी केतकी भोलेनाथ का प्रसाद है। और केतकी के फूलों के पास विषधर सांप तो आएंगे ही। लेकिन वह महादेव कैलाश पर्वत पर बैठे-बैठे उनसे रक्षा करेगा उसकी। ”

“लेकिन इतनी सी जान के पीछे आखिर कितने संकट?”

“ये तो विधि का विधान है...” सालभर केतकी के फूलों की कोई पूछपरख नहीं होती। कोई नहीं पूछता उनको...लेकिन केवड़ातीज के दिन भगवान शंकर की पूजा के लिए सभी केतकी, केतकी करने लगते हैं न? उस दिन केतकी के सिवा किसी की नहीं चलती...आप देखती रहें, एक दिन सभी केतकी, केतकी करते हैं या नहीं?

“वो तो ठीक है, लेकिन आखिर उसे और कितने दिन ऐसी यातना सहन करनी पड़ेगी?”

दोनों करीब तीन घंटे बातचीत करते रहे। यशोदा का विषय निकलता और केतकी तक जा पहुंचता और केतकी के बारे में बात होती तो वह यशोदा तक पहुंच जाती। इतने में जयसुख और केतकी वापस आ गए। उनके हाथ में बड़ा सा थैला था। दोनों ही चुप थे। चुपचाप दोनों बैठ गए।

लखीमां का धीरज छूट रहा था। अंत में बेचैन होकर बोलीं, “जयसुख भाई क्या हुआ? बताइए तो...”

“भाभी, यशोदा बहन...”

“हां, हां ..क्या हुआ यशोदा को?”

“अब वह यहां नहीं आ सकेगी...”

“अरे पर क्यों...कितने दिन?...घर में कोई समस्या है क्या?...वह तो ठीक है न?”

“ठीक ही समझो...पर फिलहाल वह यहां नहीं आएगी ये तो पक्का समझ लें...”

लखीमां की चिंता बढ़ ही रही थी कि केतकी एकदम स्प्रिंग सरीखी उछल पड़ी। अपने साथ लाये थैले को उलट दिया। उस थैले में से गुड़िया, खिलौने निकल कर गिरने लगे...प्रभुदास बापू के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान झलकी और फिर गुम हो गई।

“भाभी, ये केतकी भी न...खूब जिद्दी है देखिए...कितने खिलौने खरीद लिए देखिए तो....”

केतकी तालियां बजाने लगी। हंसकर बोली, “मां मेरे लिए एक बहन लेकर ही आएगी अब...”

लखीमां स्तब्ध रह गईं। उन्होंने जयसुख की तरफ देखा। बेटे से भी बढ़कर देवर ने आगे बढ़कर अपनी भाभी के पैर छुए और गदगद स्वरों में बोला, “हां, हमारी यशोदा को दिन ठहरे हैं...” लखीमां कुछ देर तो बोल ही नहीं पाईं। और अचानक उनकी आंखों से आंसुओं की धार बहने लगी। प्रभुदास की तरफ देखकर बोलीं, “आपके भोलेनाथी की कृपा हो गई मेरी यशोदा पर...”

केतकी ने आगे बढ़कर अपनी नानी के आंसू पोंछे. “अब सब भूल जाइए। मेरी छोटी बहन आने वाली है। उसके लिए मुझे तैयारी करनी पड़ेगी न?”

लखीमां ने पूछा, “तुम्हें बहन चाहिए?”

जयसुख भाई ने समझाया, “बहन हो या भाई...सब समान है न?”

इसी समय, उधर शांति बहन जयश्री को समाझा रही थीं, “देखती रहो, तुम्हें भाई ही मिलने वाला है...उसके बाद तुम्हारा लाड़-प्यार कम हो जाएगा...हे भगवान, मेरे कुलदीपक की रक्षा करना, हमेशा... ”

जयश्री ने प्रश्न किया, “दादी, मेरे लिए भी तुम ऐसी ही प्रार्थना करती हो न?”

शांति बहन ने मुंह बिचकाया, “लड़कियों पर कौन सी आफत आनी है...”

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह