प्रकरण 15
पूरी चाल में केतकी की धाक थी। उसकी हमउम्र लड़कियों ने उसका नाम रखा था ‘डॉन’। सुबह चाय-नाश्ता होते साथ ही वह बाहर खेलने निकल जाती। गिल्ली-डंडा हो चाहे डिब्बा लुका-छिपी उसका कोई सानी नहीं था। सागरगोटी खेलने में भी वह एक्सपर्ट थी। घर से जब चार-पांच बुलावे आ जाते, तब वह खाना खाने जाती। खाना खाते समय भी उसका आधा ध्यान बाहर ही रहता था।
बॉयकट बाल रखने वाली केतकी की गैंग बहुत बड़ी थी। उसकी गैंग में छोटे सदस्य में वह खुद, नीता, हकु, अच्छी मुन्नी, पगली मुन्नी, मम्मु और खास थी टिकु। छोटी जब कंचे जीत जाती तो बाकी की सहेलियां उन्हें बेच कर आतीं। कंचे कम पड़ जाएं तो ये गैंग कभी-कभी किराना दुकान में हाथ की सफाई भी दिखा देती थीं। कभी पिन-बक्कल चुरा लेती थीं। दोपहर चार बजे के आसपास लखीमां जब चार-चार आवाजें लगातीं तब वह घर लौटती थी। प्रभुदास बापू के साथ चाय पीकर फिर खेलने के लिए गैंग के पास वापस। चाल में लड़कों से लड़ाई हो तो, डॉन सबसे आगे रहती थी। उसकी बात को शायद ही कोई टाल पाता था...किसी की हिम्मत ही नहीं होती थी उसके सामने। अपनी गलती हो, तो भी वह मानकर झुकती नहीं थी। ऐसे समय में उसके जाने के बाद सभी सहेलियां आपस में तय करती थीं कि अब डॉन से संबंध नहीं रखना है। किसी दीवार पर कोयले से या फिर चॉक से लिख दिया जाता, “आज के बाद कोई भी डॉन से बात नहीं करेगा।” लेकिन शाम का भोजन खत्म करने बाद केतकी के चाल में आने के बाद लड़कों के बीच जाकर खड़े होते ही सबके संकल्प का फुग्गा फूट जाता था। सभी जानते थे कि केतकी के बिना खेल में मजा ही नहीं।
केतकी न हो तो शाला जाने वाला नजदीक का रास्ते का भी कोई फायदा नहीं होता। पांजरआली के पास ही उपाश्रय और जैन देरासर थाष उपाश्रय-देरासर के आंगन से होकर शाला जल्दी पहुंच पाते थे। लेकिन केतकी न हो तो किसी की वहां से गुजरने की हिम्मत नहीं होती थी। रोज वहां से आने-जाने के कारण देरासर की महासतीजी भी केतकी को पहचानने लगी थीं। अपने लिए भीख मांगकर लाई हुई खाने की चीजों में से वह केतकी और उसकी सहेलियों को भी कुछ न कुछ दे देती थी। मोहल्ले के अड़ोसी-पड़ोसी, रिश्तेदार नाराजगी के साथ लखीमां को समझाते थे, “लड़की की जात को इतनी छूट देना ठीक नहीं। घर के दो काम सिखाइए। आगे चलकर काम आएंगे। लड़की को किसी लड़के से अधिक छूट दे रखी है आपने। बहुत सर चढ़ा कर रखा है। लड़की को इतना लाड़ करना ठीक नहीं है।”
लखीमां अपने पोपले मुंह से हंसकर एक ही उत्तर देतीं, “रहने भी दो, खेलने दो। उसके सिर पर जिम्मेदारी पड़ेगी तो अपने आप काम करने लगेगी। और मैं अपनी नातिन का मन नहीं दुखा सकती। ”
और सच में ही लखीमां केतकी को बहुच प्यार-दुलार करती थीं। उसे बाल धोना अच्छा नहीं लगता था। उस उसके बालों में जुएं पड़ जाती थीं। तब लखीमां उसे अपने पैरों की कैंची बनाकर उसे जबर्दस्ती पकड़कर बैठाती थीं और नाना उसके बालों में साबुन लगाते थे। इस तरीके से बड़ी जबर्दस्ती से केतकी के बाल धुलते थे। केतकी के बड़े होने तक दोनों उसे गोद में ही लेकर घूमते थे। बाहर जाते थे तब भी उसे पैदल नहीं चलने देते। केतकी के लिए ये केवल बचपना ही नहीं था, तो आजादी भी थी। नाना-नानी का घर उसके लिए स्वर्ग के समान था। नाना-नानी के लिए वह प्राणों से प्यारी थी। परंतु इस प्राणप्यारी ने एक दिन अपनी ही जान को संकट में डाल दिया। उनकी गली के बाजू वाली गली में उसकी सहेली नीता रहती थी। नीता की छह बहनें थीं। ये थीं जशी मौसी, चंदी मौसी, केली मौसी, दक्षा, भूरी और नीता। इनमें से दक्षा और भूरी शाला में जाने वाली केतकी की हमेशा चोटियां बना देती थीं, उसके बालों से जुएं निकाल कर बाल साफ कर देती थीं। नीता के पिता रिक्शा चलाते थे। केतकी उनको नटुमामा पुकारती थी। छुट्टियों में खेलकर थक जाने के बाद बच्चों में दौड़ते हुए रिक्शे को पकड़ने की प्रतियोगिता होती थी। जो ज्यादा समय तक दौड़ते हुए रिक्शे को पकड़कर भाग सकेगा वह विजयी होगा। सभी अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से कम या ज्यादा समय बाद रिक्शा छोड़ देते थे। लेकिन केतकी जिद्दी थी। वह हमेशा जीतना चाहती थी। उसकी बारी आते ही रिक्शा चालू होते ही उसने अपने दोनों हाथों से रिक्शे को पकड़ लिया। रिक्शे पीछे लगी हुई पटरी को पकड़कर चलते हुए रिक्शे के पीछे दौड़ने लगी। रिक्शे ने गति पकड़ी तो वह नीचे गिर गई फिर भी उसने एक हाथ से रिक्शे का पत्रा पकड़कर रखा था, छोड़ा नहीं। भले ही नीचे गिर गई लेकिन रिक्शे के साथ घिसटती गई। उसकी कोहनियां-घुटने छिल गए। उसमें से खून बहने लगा। डरकर एक लड़की चिल्लाई तब रिक्शा चला रहे नटुमामा के ध्यान में यह बात आई। उन्होंने तुरंत रिक्शा रोका। उसी रिक्शे में केतकी को बिठाकर अस्पताल ले गए। मरहम पट्टी करवाई। करीब-करीब एक सप्ताह तक मरहम पट्टी करवनी पड़ी। अस्पताल से उसे घर ले गए। उसे देखते ही लखीमां स्तंभित रह गईं। जो कुछ हुआ यह सुनकर वह केतकी पर खूब नाराज हुई। केतकी तो कुछ बोली नहीं, पर वह खुद ही रोने लगीं, “तुमको कुछ हो गया होता तो?” ऐसे धमाल-मस्ती के दिनों में कभी-कभी उन चार दिनों में यशोदा मायके में रहने के लिए आ जाती। तब केतकी एकदम बदल जाती थी। वह अपनी मां को छोड़ती ही नहीं थी। रात को उसी के पास लिपट कर सोती थी। प्रभुदास, लखीमां और जयसुख इन दोनों को देखकर खुश होते थे। बेटी को मां का प्रेम मिलता देखकर उन्हें आनंद होता था। लेकिन उन्हें इस बात का दुःख भी होता था कि वह यहां केवल चार दिनों के लिए रह पाती है। जब हम न रहेंगे तो इस बेचारी का क्या होगा? इस विचार मात्र से लखीमां बेचैन हो जाती थीं। उनकी चिंता देखकर प्रभुदास एक ही वाक्य बोलते थे, “भोलेनाथ जो करेंगे, वही सही।”
कंचे, गिल्ली-डंडा, लुका-छिपी, शाला और सहेलियों के बीच दिन तेजी से निकलते जा रहे थे। केतकी का सुखी बचपन देखकर यशोदा अपना दुःख भूलने का प्रयास करती। बेटी अपने साथ भले ही न हो, पर सुरक्षित तो है, सुखी है, अपना बचपन खुशी-खुशी जी रही है, इसे देखकर होने वाला आनंद कुछ कम नहीं था।
प्रभुदास, लखीमां, जयसुख और यशोदा के प्रेम की छत्रछाया में केतकी की प्रगति हो रही थी, विकास हो रहा था। वह किसी जंगली बेल की तरह खिलती जा रही थी। बढ़ रही थी। वह शैतान थी। लड़की की जात को ऐसा नहीं करना चाहिए, वैसा नहीं करना चाहिए-बंदिशें उसे मंजूर नहीं थीं।
ऐसी ही मौज-मस्ती और खेलकूद के बीच मगन केतकी को एक दिन अचानक महसूस हुआ कि हमेशा की तरह इस बार मां अभी तक आई नहीं। उसने नानी से पूछा तो उन्होंने जवाब दिया,“होता है कभी-कभी ऐसा। आजकल में आ ही जाएगी।” नानी के सान्निध्य में रहने के बावजूद केतकी को जैसे प्रेम का, ममता का रिचार्ज खत्म हुआ सा लग रहा था। उसे रात को नींद ही नहीं आती। नींद में भी, “मां, मां” की रट लगाकर जाग जाती। मां को पास न देखकर उसके मन में प्रश्न उठने लगा, “मां अब तक क्यों नहीं आई? वो कब आएगी?” ये देखकर लखीमां का मन को कष्ट होता था। एक मासूम जान को अपनी मां के प्रेम से वंचित देखकर उनका मन दुःखी होता था। प्रभुदास बापू सब समझते थे, पर कुछ बोलते नहीं थे। ऐसे में वह जपनी लेकर नामस्मरण बढ़ा देते थे। जयसुख समझ ही नहीं पा रहा था कि पूछताछ करने के लिए यशोदा के घर जाना चाहिए या नहीं? लेकिन इन चारों व्यक्तियों की चिंता के उस पार एक अलग ही कारण था जिसकी वजह से यशोदा आगे से मायके नहीं आने वाली थी।
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह