अग्निजा - 14 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अग्निजा - 14

प्रकरण 14

केतकी को अपने हाथों से लड्डू खिलाते-खिलाते ही लखीमां की नजर दरवाजे पर पड़ी। हाथ और नजरें-दोनों ही वहीं ठहर गए। दरवाजे पर यशोदा खड़ी थी। वह अपनी मां और बेटी को एकटक देख रही थी। केतकी दौड़कर अपनी मां से जा लिपटी। यशोदा केतकी को लेकर लखीमां के पास आई। लखीमां का चेहरा रुंआसा हो गया, पर यशोदा बोली, “हमेशा के लिए नहीं आई हूं...सिर्फ चार दिन रहने के लिए आई हूं।” इतना सुनते ही लखीमां के चेहरे पर हंसी उभर गई।

घर में प्रवेश करते ही यशोदा को देखकर प्रभुदास बापू प्रसन्न हो गए। उन्होंने धीरे से पूछा, “आ गईं...आओ आओ...” वह उनके पैर छूने के लिए भागी, लेकिन अपने रजस्वला होने का ध्यान आते ही वहीं रुक गई। प्रभुदास बापू को यह बात समझ में आ गयी। वह खुद ही दो कदम आगे बढ़े और उन्होंने यशोदा के सिर पर हाथ रखा, “सुखी रहो, तुम भूल गईं शायद, हमारे घर में रजस्वला स्त्री को अलग से बिठाने की परंपरा नहीं है। यह स्त्री को ईश्वरप्रदत्त सृजनशक्ति है। इसीलिए तो धर्मशास्त्रों में इसका नाम मासिक धर्म है। और यदि भगवान सर्वत्र कण-कण में विराजमान है तो फिर तुम लोगों को किस कोने में रखा जाए कि तुम्हारा स्पर्श उसे न हो सके? तुम्हारे हाथ से पानी पीए हुए कई दिन हो गए। जाओ मेरी माता, मेरे लिए पानी ले आओ। तुम्हारे हाथ का पानी पीकर मेरा कलेजा ठंडा हो जाएगा। ”

यशोदा ने आगे बढ़कर प्रभुदास बापू के पैर छुए। बाद में पानी लेने के लिए भीतर गई। केतकी प्रभुदास बापू को ध्यान से देख रही थी। “ मुझे बाहर घुमाने लेकर नहीं गए न आप?” इतना कहकर वह रुठ गई और आगे बढ़ने लगी। प्रभुदास बापू ने उसका हाथ पकड़कर रोका। “तुम्हारे भोजन करने का समय हो रहा था, यदि तुम्हें ले गया होता तो तुम्हारी नानी मुझे डांटतीं...”

केतकी को हंसी आ गई, “आपको नानी डांटेगी? बिलकुल नहीं, आप भी उसको कभी नहीं डांटेंगे। संभव ही नहीं।”

यशोदा पानी लेकर आई, तभी जयसुख चाचा भी आ गया। वह कुछ पूछता इसके पहले ही यशोदा हंसते हुए बोली, “घबराइए मत, चार दिनों के लिए ही आई हूं।” जयसुख की आंखों में आंसू तैर गए।  “ऐसे ही हंसते-मुस्कुराते हमेशा आती रहो...” वह उल्टे पांव लौट गया। थोड़ी ही देर में श्रीखंड, ढोकला लेकर आ गया। “आज तो सब लोग एकसाथ बैठकर दोनों बेटियों के साथ भोजन करेंगे...आज तो खाना खाने में बड़ा मजा आएगा...”

लखीमां को भी बड़ा अच्छा लगा, लेकिन खोटी नाराजगी जताते हुए बोलीं, “अरे मैंने घर पर ही कुछ बनाया होता...कुछ पैसे बचाइए तो एक छोटी बहू ले आऊंगी घर में।” जयसुख हंसकर बोला, “वो न आए इसीलिए तो पैसे नहीं बचाता हूं...मुझे शादी ही नहीं करनी है...मैं अकेला ही ठीक हूं...”

केतकी चाचा के पास आकर बोली, “ऐसा नहीं चलने वाला...मुझे शादी में नाचना है, नए कपड़े पहनने हैं, मेहंदी लगवानी है, चाची के साथ बाहर घूमने जाना है....” जयसुख मन ही मन खुश हुआ, लेकिन चेहरे पर नापसंद जाहिर करते हुए बोला, “बेटा, ऐसी जिद नहीं करते.... शाम को तुम्हें कुल्फी खिलाऊंगा....”

यशोदा भी केतकी की तरफ से बोली, “कुल्फी तो मैं भी खाऊंगी। दो-दो। लेकिन चाची तो लानी ही होगी...लेकिन एक ही ...ठीक है न?”

लखीमां ने यशोदा, केतकी और जयसुख की ओर स्नेह से देखा, “हमारे जीते जी ही इस घर में बहू आ गई न, तो ही हम लोग चैन से मर पाएंगे, देवरजी...”

जयसुख भावविव्हल हो गया। “मरने की बात मत कीजिए...मेरे जीते तक आपका हाथ मेरे सिर पर बना रहे...वास्तव में आप दोनों ही मेरे माता-पिता हैं... अगले जन्म में तो आपक कोख से जन्म लेने वाला हूं। लेकिन फिलहाल तो मेरी शादी रहने ही दीजिए भाभी....”

यशोदा ने प्रभुदास बापू की तरफ देखा। वह अपने विचारों में खोए हुए दिखे। “पिताजी, आप ही समझाइए न चाचा को शादी के लिए हां कहने के लिए...” प्रभुदास ने जयसुख को स्नेह से निहारा। “जैसी भोलेनाथ की इच्छा।”

बड़े दिनों बाद पांचों लोग साथ में भोजन करने बैठे थे। परंतु अधिक आग्रह यशोदा को किया जा रहा था, यह देखकर केतकी को नाराज होकर बोली, “मुझे सब लोग भूल गए” उसका यह वाक्य खत्म होते ही प्रभुदास बापू ने श्रीखंड लगी पूरी उसे खिलाई। “तुम तो मेरे प्राण हो...प्राण..तुमको कैसे भूल सकता हूं? जब इस दुनिया से जाऊंगा न... तो सबसे अंत में तुम्हारा ही चेहरा देखकर जाने वाला हूं...” केतकी ने कौतूहलवश पूछा, “कहां जाने वाले हैं? मैं भी आपके साथ चलूंगी।”

लखीमां चिढ़ गईं, “अरे, कितने दिनों बाद तो सब लोग साथ खाना खाने बैठे हैं...और आप ऐसी बातें कर रहे हैं। अभी तो असल में सुख से जीने के दिन आए हैं....मुझे घर में बहू चाहिए...केतकी के लिए पति तलाशना है...और उसके बाद जाने की बातें...”

प्रभुदास पोपले मुंह से हंसने लगे। “तब तो बेचारे भगवान के पास कोई काम ही नहीं बचा करने के लिए? अरे, करने-कराने वाला तो वही है...बाकी सब तो मोह-माया है...”

बाहर से किसी ने दो-चार बार केतकी का नाम पुकारा और केतकी उठ खड़ी हुई। लखीमां ने उसको रोका, “पानी तो पीकर जाओ...” केतकी लोटे में रखे पानी को पीकर बाहर भागी। यशोदा देखती ही रह गई। “इस घर के कारण मेरी केतकी जिंदा बच गई...फूल की तरह खिल गई...नहीं तो....उधर उसको इस तरह का जीवन कहां मिला होता?”

समय भला किसी के लिए ठहरा है, जो केतकी के लिए ठहरता? लेकिन दिनोंदिन उसकी सहेलियां बढ़ती ही जा रही थीं। पूरी गली में उसे छोटी के नाम से पहचाना जाता था, लेकिन उसकी टोली बहुत बड़ी थी। कंचे खेलने में वे सभी सबसे होशियार थीं। इतनी कि लड़कों को भी परास्त कर देती थीं। सौ-सौ कंचों का दांव हो तो भी जीतती तो केतकी ही थी। एक बार पांच सौ कंचों का दांव लगा और सभी सहेलियों दम साधकर सोचती रहीं, केतकी न कर पाई तो? छोटी के सभी मित्र-सहेलियां सोच में पड़ गए कि इतने कंचे जाएंगे कहां? सबकी विचार क्षमता के बाहर सभी कंचे गए नाली में। हां, क्योंकि जयसुख चाचा ने देखा और गुस्से में सभी कंचे नाली में फेंक दिए थे। बच्चों को डांटा, “खबरदार, दोबारा केतकी के साथ खेलते हुए दिखाई दिए तो...” इतना कहकर जयसुख चाचा ने जैसे ही केतकी को इशारा किया, वह भागते हुए उनसे पहले घर जा पहुंची।

घर में मुंह फुलाकर बैठ गई। लखीमां ने उसे देखा। उसके पीछे-पीछे आ रहे जयसुख चाचा गुस्से में थे। केतकी नानी से लिपटक रोने लगी। जयसुख थोड़ा शर्मिंदा हुआ, “भाभी, ये लड़कों के साथ कंचों का कितना बड़ा दांव खेलती है...ये ठीक नहीं है...मैंने इसे थोड़ा डांटा है...” “...और कंचे फेंक दिये ये भी बताइये...”इतना कहकर केतकी नानी के आंचल में छुप कर रोने लगी। “भाभी...वो...” जयसुख कुछ बताने ही वाला था, लेकिन लखीमां ने हंसकर उसे हाथ के इशारे से रोक दिया। “जयसुख भाई, आपने ठीक ही किया...बड़ों को बच्चों की चिंता तो होगी ही...आपने जो कुछ किया ठीक किया। उसमें गलत क्या है?”

केतकी एकदम लखीमां से दूर हो गई। “हां, हां...बड़े डांटते हैं वो ठीक है...और बच्चे खेलते हैं वह गलत...ठीक है, ठीक है... मैंने गलती की है न...तो मुझे सजा दीजिए...आज शाम को मैं खाना ही नहीं खाऊंगी...ठीक है?”

लखीमां ने उसे प्यार से अपने पास खींचा, “बड़ी आयी खाना न खाने वाली... देखो...बड़े लोग डांटते हैं इसलिए कि उन्हें छोटों की चिंता होती है... ये उनका काम है...और बच्चे खेलते हैं वह भी उनका अधिकार है...खेलने का...”

केतकी उठकर खड़ी हो गई... “अधिकार है न...देख लो...आपने ही कहा है....अधिकार है...” जयसुख बच्ची की होशियारी देखकर हंसा। “बेटा, अधिकार है ये सही है, पर जरा ध्यान रखना चाहिए न खेलते समय। ठीक है कि नहीं? इस तरह हजारों कंचों का दांव नहीं खेलना चाहिए।“

केतकी हंसने लगी, “हजारों नहीं थे, जैसे-तैसे  पांच सौ थे...पांच सौ... वो भी आपने नाली में फेंक दिए।” जयसुख ने उसके सामने दोनों हाथ जोड़ लिए और बोला, “ठीक है मेरी मां...पांच सौ ही थे...लेकिन लड़कों के साथ खेलना ही क्यों?”

केतकी ने नाटकीय ढंग से उसकी तरफ देखा। “मैं तो लड़कों के साथ खेलने जाती ही नहीं, वे ही दौड़कर आते हैं मेरे पास खेलने के लिए।”

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह