प्रकरण 13
और केतकी के भविष्य, सुरक्षा, सुख और शिक्षा का विचार करते हुए यशोदा ने अपने मन पर पत्थर रखकर निर्णय ले लिया। कानजी चाचा की नस ने ऐसा कमाल दिखाया कि तीसरे ही दिन जयसुख स्वयं यशोदा को उसकी ससुराल छोड़ आया।
प्रभुदास और जयसुख को सब समझ में आता था, लेकिन एक मां के मन की बात केवल लखीमां और यशोदा ही समझ सकती थीं। यशोदा के मन में केतकी की पढ़ाई और पालन-पोषण को लेकर नई आशा जाग गई। इसलिए एक ओर तो उसे आनंद हो रहा था, लेकिन वहीं केतकी की विरह की कल्पना से दुःख भी हो रहा था। आनंद तो था पर हंसी नहीं थी, दुःख था पर रो नहीं सकती थी। यशोदा की दुविधा को देखकर लखीमां ने उसे धीरज बंधाया...केतकी को बिलकुल भी परेशानी नहीं होगी इसका भरोसा दिलाया। इतना ही नहीं, तो प्रभुदास बापू ने एक हाथ यशोदा के सिर पर तो दूसरा केतकी के सिर पर रखते हुए कहा कि केतकी में मेरी जान है-ऐसा समझ लो। जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं मैं उसे माता-पिता और भाई-बहन का भी प्यार देने का प्रयास करूंगा। उसमें यदि मैंने कहीं कमी की तो महादेव मुझे माफ नहीं करेंगे. नर्क में भेजेंगे।
दो बुजुर्ग व्यक्तियों के विश्वास पर यशोदा ससुराल की ओर निकल पड़ी। केतकी को अपने कलेजे से लगाया, “बेटा, नाना-नानी की बात मानना... और मुझे माफ करना।” इतना कहकर उसका धीरज छूट गया। जयसुख ने बाहर से ही आवाज लगाई, “चलो जल्दी, तांगा आ गया है...” और यशोदा केतकी की ओर बिना देखे ही बाहर निकल गई।
यशोदा के ससुराल पहुंचते ही जयसुख को समझ में आया कि रणछोड़ दास और शांति बहन के चेहरे पर जरा भी आनंद नहीं झलका। उलट, नाराजी और कठोरता दिख रही थी। जयसुख ने हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना की, “यशोदा की भूल के लिए मैं माफी मांगता हूं। दया करके उसे संभाल लीजिए।”
रणछोड़ दास कड़क आवाज में बोला, “वह ठीक से रहे तो हमें कोई परेशानी नहीं है... उसे समझाइए कि इसे अपना घर समझ कर रहे...” शांति बहन ने भी उसके सुर में सुर मिलाते हुए कहा, “...और अपने पति की बात सुने...वह जैसा कहे, वैसा करे...यहां उसे किस बात की कमी है? झोपड़ी से निकल कर महल में आई है...लेकिन यदि ऐसा सुख वह भोग ही नहीं पा रही हो तो उसके लिए हम क्या कर सकते हैं...?”
जयसुख ने एक बार फिर हाथ जोड़े और वह बाहर निकल गया। उसे यह समझ में ही नहीं आ रहा था कि यशोदा के पैरों की बेड़ियां अधिक भारी हैं या उसने अपने दिल पर जो पत्थर रखा था, वह।
यशोदा ने सास की ओर देखा। शांति बहन ने मुंह टेढ़ा कर लिया, “मेरे चेहरे को देखते रहने की बजाय काम से लग...मायके में खूब आराम कर लिया...पहले पूरे घर में झाड़ू-पोछा लगा ..फिर हम दोनों के लिए दो कप चाय बनाना।”
उबलती हुई चाय की ओर देखते हुए यशोदा ने दो बातों का संकल्प लिया, एक आज से रणछोड़ दास, शांति बहन और जयश्री ही उसका सबकुछ हैं। ये तीनों जो कहेंगे वैसा और उनकी इच्छा के अनुसार सभी बातें करनी होंगी। दूसरा, इस घर से अब मेरी अर्थी ही बाहर निकलेगी।
चाय पीकर शांति बहन लेट गईं। यशोदा को उन्होंने आदेश दिया, “करमजली, तू मायके भाग गई और इधर मेरी कमर टूट गई काम करते-करते। पैर भी दुखने लगे। चल, दो मिनट मेरे पैर दबा दे। ये दो मिनट की चाकरी करीब डेढ़-दो घंटे चली।” फिर शांति बहन चिल्लाईं, “तू इस तरह सामने रहती है तो मुझे नींद भी नहीं आती। चल निकल यहां से, अपना मुंह काला कर।” यशोदा उनके कमरे से बाहर निकली तो बाहर बैठकर अखबार पढ़ रहे रणछोड़ दास ने आवाज लगाई, “मेरे कमरे के बिस्तर की चादर बदल दो।” यशोदा चादर बदल ही रही थी कि रणछोड़ दास वहां आ गया और उसे परेशान करने के लिए उसके शरीर से खेलने लगा...उसके भीतर का जानवर शांत होने पर यशोदा कमरे से बाहर निकली। वहां उसे जयश्री, केतकी के कपड़े कैंची से काटते हुए दिखाई दी। यशोदा उसकी तरफ दौड़ी, लेकिन तुरंत रुक भी गई. “अब कहां उस बेचारी को इन कपड़ों की जरूरत पड़ेगी।” अचानक कैंची हाथ में चुभते ही जयश्री चिल्लाई। यशोदा एकदम उसकी और दौड़ी। तभी रणछोड़ दास और शांति बहन नींद से जाग गए और दौड़ते हुए बाहर आए। “क्या हुआ, क्या हुआ” उनके इस सवाल पर उसने यशोदा की ओर इशारा कर दिया। उसे देखते ही रणछोड़ दास ने यशोदा को एक लात जमा दी। शांति बहन ने मुंह टेढ़ा किया, “उस हरामी लड़की को वहां छोड़ कर आई हो तो अब इसे सुख से जीने नहीं दोगी?” रणछोड़ दास ने यशोदा को बाल पकड़कर उठाया। उसका सिर दीवार पर दे मारा। “आज के बाद ये लड़की रोती हुई दिखाई दी तो मैं तुम्हारी जान ले लूंगा...समझ में आया?” तीनों अंदर के कमरे में चले गए। यशोदा वहीं न जाने कितनी देर बैठकर रोती रही। अपने नसीब को कोसती रही। केतकी की याद आते ही उसे थोड़ा अच्छा लगा। यहां होती तो वह बेचारी भी दुःखी होती।
नाना-नानी आज केतकी पर कुछ ज्यादा ही लाड़-प्यार लुटा रहे थे। जयसुख ने भी उसके लिए गोलियां-चॉकलेट और बर्फ की रंगीन गोलियां लाई थीं। सात साल की केतकी को थोड़ी थोड़ी समझ थी, लेकिन सबकुछ समझने लायक अभी वह नहीं थी। “मां कब वापस आएगी?” उसके इस सवाल से लखीमां के तो हाथ-पैर फूल गए। प्रभुदास बापू ने उसे अपने पास खींच लिया, “तुम स्कूल जाती हो कि नहीं पढ़ने के लिए? उसी तरह मां भी गई है।”
“पर नाना, रात हो गई फिर भी वह अभी तक क्यों नहीं आई?”
“उसकी शाला ऐसी है कि उसे वहीं रहना पड़ता है। खूब पढ़ाई करनी पड़ती है न...इसलिए रोज घर आना-जाना संभव नहीं होता।”
“तो, अब उससे कभी भी मुलाकात नहीं होगी?”
“अरे, ऐसा कैसे होगा? वह आएगी...तुमसे मिलने के लिए....तुम्हारे साथ रहने के लिए...”
“अपने साथ मुझे कभी नहीं ले जाएगी क्या?”
“तुम अपनी शाला में मुझे साथ ले जाओगी क्या?”
केतकी हंसने लगी, “ऐसा नहीं चलता...”
प्रभुदास बापू ने बड़े प्रेम से उसका गाल थपथपाया. “वहां भी ऐसा नहीं चलता...जिसकी शाला हो, वही व्यक्ति वहां जा सकता है। और पगली, मुझे एक बात बताओ, तुम्हें अब अपने नाना के साथ रहना अच्छा नहीं लगता क्या, तुम यहां से क्यों जाना चाहती हो?”
“नाना के साथ रहना तो मुझे खूब अच्छा लगता है।”
“कितना अच्छा लगता है?”
केतकी ने दोनों हाथ फैलाकर कहा, “इतना....”
नाना ने केतकी को उठा लिया, “तो चलो, हम महादेव को बताकर आते हैं कि केतकी को उसके नाना खूब यानी खूब पसंद हैं। ठीक है न? ऐसा कहकर सात साल की केतकी को प्रभुदास बापू ने गोद में उठा लिया और महादेव का नाम सुनते ही केतकी की आंखें चमक उठीं। वह नीचे उतरी और नाना का हाथ पकड़कर चलने लगी। लखीमां की आंखों में आनंद के आंसू तैर गए।”
केतकी अपने नाना-नानी के घर में आजादी के साथ पल रही थी। किसी खिले हुए जंगली फूल की भांति उसे जीवन जीने का मौका मिला था। ऐसे में उसे यशोदा की याद कम ही आती थी। दिन भर नाना-नानी का दुलार, मोहल्ले की लड़कियों के साथ खेलकूद, मौज-मस्ती और शाला. नाना दिखाई न दें तो वह जरूर परेशान हो जाती थी।
यशोदा अब स्थितप्रज्ञ बन गई थी। उसे अब सुख-दुःख, पसंद-नापसंद, अच्छा-बुरा इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। शांति बहन और रणछोड़ दास जो कहें, वही, उतना ही और उसी समय करना। मुंह से एक भी शब्द न निकालना। अब तो आठ साल की जयश्री भी बड़ी होशियार हो गई थी कारस्तानियां करने, आग लगाने और यशोदा का काम बढ़ाकर रखने में।
एक दिन रात को यशोदा रोने लगी। रणछोड़ दास ने चिढ़कर पूछा, “ये कोई समय है क्या रोने का? फिर से बाप की याद आ गई क्या?”
आंखें पोंछकर यशोदा चुप हो गई। “अच्छा, उस हरामी लड़की की याद आ रही होगी, है न?” यशोदा चुप रही। उसके प्रति दया दिखाना छोड़कर रणछोड़ दास के शरीर का राक्षस जाग गया और यशोदा के तन-मन पर जंगली अत्याचार करने लगा। इसके बाद एक बार फिर, स्त्री-पुरुष का पवित्र मिलन यशोदा के लिए कसाई के हाथों बकरे की गति जैसा हो गया।
दूसरे दिन, यशोदा रजस्वला हो गई। शांति बहन का मुंह टेढ़ा हो गया। उसे एक कोने में बैठे रहने का आदेश मिला। रणछोड़ दास बोला, “एक काम करो...जाओ ये चार दिन अपने मायके में रह आओ। बेकार ही उस हरामी लड़की के नाम से रो-रोकर मेरी नींद खराब होने से तो बचेगी।”
यशोदा को भी मन ही मन आनंद हुआ। उसने सास की तरफ देखा। “जाना हो तो जाओ, पर पांचवें दिन वापस आ जाना, सुबह ही, नहीं तो तुम दोनों की खैर नहीं।”
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह