बहुत कुछ बदल गया था! Brajesh Kumar द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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बहुत कुछ बदल गया था!

आज वो फिर मिली।
इतने सालों बाद, उसी पुराने बरगद के नीचे, यूं अचानक। मैं तो लाइब्रेरी से निकल कर किताब की दुकान पे कोई किताब देख रहा था। तभी एक जानी पहचानी आवाज़ मेरे कानों तक पहुंची। मैंने पलट कर देखा तो सोंच में पड़ गया। वही चेहरा, वही हंसी। क्या ये वही है!
अभी मैं इसी उधेड़ बुन में पड़ा था कि तभी उसने पास आ कर कहा, "और मिस्टर! देखो मैं ने एक बार फिर तुम्हें ढूंढ लिया।" और खिलखिला कर हंस पड़ी। उसकी हंसी सुनकर ऐसा लगा जैसे मैं किसी नींद से जागा। मुझे समझ में ही नहीं आया कि कैसे रिएक्ट करूं। कोई शब्द ही नहीं सूझा। बस इतना ही कह पाया, "अरे तुम यहां अचानक!"
उसने जवाब दिया, "हां, तुम से ही तो मिलने आई हूं। मुझे पता था...नहीं... यकीन था कि तुम यहीं मिलोगे। और देखो तुम मिल ही गए। " और फिर इठलाते हुए अपने बालों पे हाथ फेरा जैसे कोई बहुत बड़ा खजाना ढूंढ लिया हो। फिर उसकी वही हंसी गूंज पड़ी। उस हंसी में आस पास का सारा शोर कहीं डूब सा गया।
इतने में ही उसने पूछा, "चाय या कॉफी?" मैंने थोड़ा हिचकिचाते हुए कहा, "पर तुम तो किसी के साथ हो ना!"
उसने फौरन कहा, "अरे भाई ये सब तो ऐसे ही हैं। मैं तो तुमसे मिलने आई हूं ना। अब चलो जल्दी बताओ।"
वैसे तो मुझे बहुत भूख लगी थी और चाय कॉफी पीने से ज़्यादा कुछ खाने का मन था पर मैंने कहा, "कॉफी चलेगी।" "हम्म्म!",  उसने कहा और वहीं से आवाज़ लगाई, "भैया! दो कॉफी।" उसके ऑर्डर को सुनकर चाय वाले भैया की मुस्कान और आंखों में चमक देख कर ऐसा लगा जैसे इतने लोगों की भीड़ में भी उन्हें सिर्फ इसी एक ऑर्डर का इंतज़ार था। "अभी लाया बेटा", उन्होंने भी बड़ी आत्मीयता से कहा और कॉफी बनाने में लग गए।
"चलो वहां चल कर बैठते हैं", उसने कहा। "कहां?", मैंने पूछा। "वहीं जहां कोई आता जाता नहीं" गाते हुए वो फिर खिल खिला पड़ी। मैं शरमा गया। तभी उसने मेरी बांह पकड़ कर खींचते हुए कहा, "चलो भी अब।" मैं भी खिंचता चला गया निर्विरोध। क्यों कि विरोध करने की न तो इच्छा थी, न ही होश। मैं तो इस पल में था ही नहीं, कहीं अतीत में खोया था। ना आस पास खड़े लोगों की शक्लें दिख रही थीं, न उनकी बातें मेरे कानों में जा रही थी। यूं कहूं कि मैं वहां हो कर भी वहां नहीं था। स्तब्ध सा बस उस सुखद संजोग को समझने की कोशिश कर रहा था।
वो मुझे खींच कर उस बरगद के नीचे चबूतरे तक ले गई। "यहां बैठते हैं" कहते हुए बैठ गई और मुझे भी बिठा लिया।  वो शायद अपनी ज़िंदगी के किस्से सुना रही थी या मुझसे कुछ पूछ रही थी नहीं पता। मैं तो बस उसको अपलक निहारे जा रहा था। कुछ भी तो नहीं बदला था। इन सालों में वक्त की किताब के कितने पन्ने जाने पलट चुके थे पर उन पन्नों पर बनी उसकी तस्वीर अब भी वैसी ही थी। वही चंचल आंखें, वही दमकता चेहरा, किसी अनजाने को भी अपना बना लेने वाली वही मनमोहक मुस्कान और वही बेपरवाह और शोख अंदाज़– सब तो वही थे। उसे मेरे निहारने का अंदाज़ा हो गया था शायद और वो झेंप सी गई। "कहां खोए हो मिस्टर? तुम्हारे सोंचने की आदत गई नहीं अभी।" और फिर हंस पड़ी। अब झेंपने की बारी मेरी थी। "अरे कहीं नहीं।", मैं बस इतना ही कह पाया था तभी
"ये लो बेटा।" कहते हुए चाय वाले भैया ने कॉफी हमारी तरफ बढ़ाई। उन्हें भी शायद मेरी मनःस्थिति का अनुमान हो गया था इसलिए कॉफी के बहाने मुझे बचाने आ गए। "और कुछ लाऊं?" उन्होंने पूछा और हमारी तरफ देखा। हम दोनों ने अपना सिर हिला कर मना कर दिया। फिर मैंने जैसे ही पैसे देने के लिए अपना वॉलेट निकाला, उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। "मेरी कॉफी तुम पर उधार रही। अगली बार किसी बढ़िया सी जगह में पीऊंगी। आज मेरी तरफ से।" कहते हुए एक 50 का नोट उसने भैया को पकड़ा दिया। उसकी बातों में एक आग्रह था और फिर से इसी बहाने मिलने की छुपी ख्वाहिश भी। भैया ने बाकी पैसे उसे वापस करते हुए "ठीक है बेटा, फिर आना!" कह कर मुस्कुराते हुए चले गए। उनकी मुस्कुराहट में भी एक अजब सा संतोष था जैसे उन्होंने इस अचानक आए चिर परिचित मेहमान को कॉफी पिला कर कोई पुरानी ख्वाहिश पूरी कर ली हो।
कॉफी की चुस्कियों के साथ बीते वक्त की बहुत सारी यादें भी हमारे जहन में उतरती गईं। हम दोनों उन अनगिनत किस्सों, कहानियों में ऐसे डूबे कि उस समय गुजरते वक्त का पता ही नहीं चला। फिर अचानक उसने अपने पर्स से सिगरेट की डिब्बी और लाइटर निकाली। ये पहला बदलाव था जो मैंने इतनी देर में उसमें नोटिस की थी। हां इतने सालों में कुछ बदला था।
"ये कब से शुरू कर दी तुमने?", मैंने पूछा।
"याद नहीं", उसने कहा।
"दिन भर में कितनी पी जाती हो?", मैंने आगे फिर पूछा।
"कभी गिनी नहीं। बस जब जब दिल में ज़्यादा धुआं भर जाता है तो इस धुएं के साथ निकाल देती हूं" कहते हुए उसने मुंह में भरे धुएं का एक छल्ला हवा में छोड़ा। "ऐसे" कहकर वो फिर हंस पड़ी।
पर इस हंसी में वो बेपरवाही नहीं थी। और हंसते हुए उसके चेहरे की दमक भी थोड़ी फीकी पड़ गई थी। आंखों की नमी भी छुप नहीं पाई।
इन सालों में बहुत कुछ बदला था। अब आगे कुछ और कहने या पूछने की ज़रूरत ही नहीं थी।
अचानक वो उठ खड़ी हुई।
"यार मैं अब चलती हूं।"
"इतनी जल्दी? क्या हुआ?"
"दरअसल कल मेरी यूएस की फ्लाईट है। पैकिंग शैकिंग पूरी नहीं हुई अभी। आज तो मैं बस तुम से मिलने आई थी।"
"अच्छा तो यूएस ट्रिप पे जा रही हैं मैडम!", मैने छेड़ते हुए कहा।
"नो सर! आई एम शिफ्टिंग देयर विद माय पैरेंट्स... फॉर एवर मेयबी"
ये कहते वक्त उसकी आंखें झुकी थी जैसे बहुत कुछ छुपाने की कोशिश कर रही हो।
"अब चलो भी" कह कर फिर मुझे खींचती हुई गेट के बाहर ले आई।
"फिर कब मिलोगी"
"यहीं... ऐसे ही... अचानक किसी दिन। और हां, मेरी कॉफी भी तो उधार है।" कहकर वो मुस्कुराई।
मैं फिर असमंजस में था। उसे रोक भी नहीं सकता था और जाने देना भी नहीं चाहता था। इतने सालों बाद वो मिली क्यों? और मिली तो फिर ऐसे इतनी जल्दी जा क्यों रही है?
उसने मेरे अंतर्द्वंद्व को जान लिया था शायद। मुझसे बड़े प्यार और अपनेपन से लिपट गई। उन कुछ क्षणों के लिए सब कुछ ठहर सा गया मानो। फिर वो एक झटके से अलग हुई और वैसे ही नज़रें झुकाए सामने लगे रिक्शे पर बैठ गई। "भैया मेट्रो।"
मैं उसे जाते हुए अवाक सा देखता रहा जब तक वो पूरी तरह आंखों से ओझल नहीं हुई। इस बीच उसने पीछे मुड़कर एक बार भी नहीं देखा। बस थोड़ी दूर जाने के बाद अपने रूमाल से आंखें पोंछी।
हां, इतने सालों में बहुत कुछ बदल गया था।