टॉम काका की कुटिया - 9 Harriet Beecher Stowe द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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टॉम काका की कुटिया - 9

9 - साम की वक्तृवत्वी-कला

हेली को ओहियो नदी के किनारे ही छोड़कर साम और आंडी घोड़े लेकर घर की ओर लौट पड़े थे। राह में साम को बड़ी हँसी आ रही थी। उसने आंडी से कहा - "आंडी, तू अभी कल का लड़का है। आज मैं न होता तो तुझमें इतनी अक्ल कहाँ थी? देख, दो रास्तों की बात बनाकर मैंने हेली को दो घंटे तक कैसे हैरान किया। यह चाल चलकर दो घंटे की देर न की जाती तो इलाइजा अवश्य पकड़ी जाती।"

 इस प्रकार बातें करते हुए रात को दस-ग्यारह बजे वे शेल्वी के घर पहुँच गए। घोड़े की टापों की आहट कान में पड़ते ही श्रीमती शेल्वी तेजी से घर के बाहर आईं और उत्कंठा से बार-बार पूछने लगीं - "हेली और इलाइजा कहाँ हैं?"

 साम ने मुस्कराते हुए कहा - "हेली साहब मुँह लटकाए सराय में चित्त पड़े हैं।"

 "और इलाइजा का क्या हुआ? वह कहाँ गई?"

 "ईश्वर की कृपा से इलाइजा ओहियो नदी पार करके कैनन प्रदेश में पहुँच गई है।"

 "कैनन प्रदेश में पहुँच गई! मतलब?" शेल्वी साहब की मेम ने समझा कि शायद इलाइजा की मृत्यु हो गई।

 "मेम साहब, ईश्वर अपने भक्तों की रक्षा आप करता है। इलाइजा ओहियो नदी को मानो साक्षात विमान पर चढ़कर पार कर गई। मैंने अपनी जिंदगी में ऐसी अद्भुत घटना कभी नहीं देखी।"

 श्रीमती शेल्वी से इस प्रकार बातें करते-करते साम के हृदय में धर्मभाव लहराने लगा। वह इलाइजा के भागने के वृत्तांत को धर्म-शास्त्र के भाँति-भाँति के रूपकों से सजाकर कहने लगा। इतने में शेल्वी साहब ने स्वयं बाहर आकर साम से कहा - "घर के अंदर जाकर मेम साहब से बातें कहो।" फिर मेम साहब से बोले - "तुम इतनी घबराकर इस सर्दी में बाहर क्यों चली आई हो? सर्दी लग जाएगी। अंदर जाकर सब बातें क्यों नहीं सुन लेती? तुम तो इलाइजा के लिए बहुत ही घबरा रही हो।"

 मेम ने कहा - "आर्थर, मैं स्त्री हूँ, मेरा भी बच्चा है। संतान का स्नेह माता के सिवा दूसरा नहीं जान सकता। इलाइजा की कैसी दुर्दशा हुई और हम लोगों ने उसके साथ कैसा व्यव्हार किया, इसे संतान-वत्सल माता और पतिव्रता स्त्री के अलावा और कोई नहीं समझेगा। सच पूछो तो इलाइजा के साथ ऐसी निर्दयता का व्यव्हार करके मैं और तुम दोनों ईश्वर के सामने पाप के भागी हैं।"

 "पाप? इसमें पाप की क्या बात है? हारे दर्जे उसे बेचना पड़ा। इसमें भी पाप है?" शेल्वी बोले।

 "आर्थर, मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहती। मैं अपने मन में भली-भाँति समझती हूँ कि हम लोगों ने इलाइजा पर घोर अत्याचार किया है।"

 इस पर शेल्वी ने मेम से और कुछ नहीं कहा। केवल साम से बोले - "अंदर आकर मेम साहब को इलाइजा के भागने का हाल विस्तार से सुना दो।"

 साम कहने लगा - "मैंने अपनी आँखों से देखा है। इलाइजा बिना नाव-बेड़े के ओहियो नदी को पार कर गई। बर्फ के टुकड़े बह रहे थे, उन्हीं पर होकर गई। एक टुकड़ा डूबने को होता तो वह झट दूसरे पर कूद जाती। इस तरह बर्फ पर कूदती-फाँदती उस पार निकल गई। उधर एक आदमी ने हाथ पकड़कर उसे किनारे पर कर लिया। इसके बाद अँधेरा ज्यादा हो जाने के कारण और कुछ दिखाई नहीं दिया।"

 शेल्वी ने विस्मित होकर कहा - "यह बड़े आश्चर्य की बात है! वह बहती हुई बर्फ पर से कूदती हुई चली गई? मुझे तो विश्वास नहीं होता कि आदमी सहज में यों जा सकता है।"

 साम बोला - "हुजूर, सहज में कैसे जाया जा सकता है? ईश्वर की विशेष कृपा के बिना कोई भी इस तरह से नहीं जा सकता। सुनिए, संक्षेप में सारा हाल सुनाता हूँ। आप सुनकर चकित रह जाएँगे। साक्षात ईश्वर के सहारे के बिना यह नहीं हो सकता है। मैं, आंडी और हेली साहब शाम के कुछ पहले ही ओहियो नदी के इस पार पहुँचे। मैं सबके आगे-आगे था। वे दोनों कुछ पीछे थे। मैंने ही सबसे पहले इलाइजा को देखा। वह पास की सराय के जंगले के सहारे खड़ी थी। मैंने झूठ-मूठ सिर की टोपी फेंक दी, और "हवा में उड़ी-उड़ी" करके चिल्लाने लगा। जिंदे की तो बात क्या, मेरी इस चिल्लाहट से मुर्दा भी जाग सकता था। बस, इलाइजा हम लोगों की ओर देखते ही पिछवाड़े के दरवाजे से भाग चली। हेली साहब की नजर पड़ गई। वह उसके पीछे ऐसे लपके जैसे भेड़ के पीछे बाघ दौड़ता है। इलाइजा ने जब देखा कि अब तो वह पकड़ी जाएगी, कोई उपाय नहीं रहा, तो नदी में कूद पड़ी और बहती बर्फ पर से कूदती हुई उस पार निकल गई।"

 शेल्वी की मेम बड़े ध्यान से सब बातें सुन रही थीं। वह बोल उठीं - "भगवान, तुम्हारी महिमा अपरंपार है। तुम्हें सहस्त्रों बार धन्यवाद है। तुम्हारी ही कृपा से आज इलाइजा की जान बची।"

 इतना कहकर फिर साम से पूछा - "इलाइजा का लड़का तो जिंदा है?"

 साम बोला - "जी हाँ, वह जिंदा है। पर आज मैं न होता तो इलाइजा अवश्य पकड़ी जाती। ईश्वर भी बड़ा कारसाज है। अच्छे कामों के लिए वह कोई-न-कोई रास्ता निकाल ही देता है। आज सवेरे घोड़े कसने में उत्पात मचाकर हेली के दो घंटे खराब किए और फिर राह में कम-से-कम अढ़ाई कोस का उसे बेकार चक्कर दिलाया। ऐसा हैरान किया कि उसे भी याद रहेगा। यह सब ईश्वर की ही कृपा समझनी चाहिए।"

 शेल्वी साहब साम के मुँह से ईश्वर की दया की यह व्याख्या सुनकर बहुत ही नाराज हुए और साम से कहने लगे - "यदि तू फिर कभी हमारे यहाँ रहते हुए ईश्वर की विशेष दया का ऐसा काम करेगा, तो तेरी खूब मरम्मत होगी। किसी का काम करना स्वीकार करके इस प्रकार कपट करना बड़ा अन्याय है। मैं तुम्हारी ऐसी दुष्टता और धोखेबाजी के काम को नहीं सराह सकता।"

 श्रीमती शेल्वी को अपने पक्ष में देखकर साम बड़ी गंभीरता से कहने लगा - "हुजूर, आप या मेम साहब थोड़े ही ऐसा करती हैं। हम नौकर-चाकर कभी-कभी ऐसी दुष्टता किया ही करते हैं।"

 साम के इस काम में श्रीमती शेल्वी का भी हाथ था। अत: साम को वहाँ से शीघ्र हटाने के लिए उन्होंने कहा - "तुम स्वयं ही समझते हो, ऐसी दुष्टता करना बुरा है। अत: तुम्हारा दोष क्षमा करने योग्य है। तुम दोनों बहुत भूखे होगे। शीघ्र क्लोई के पास जाकर खाना माँगकर खा लो।"

 साम एक अच्छा वक्ता था। अच्छे भाषणों के लिए वह प्रसिद्ध था। शेल्वी साहब जब किसी राजनैतिक सभा में या कहीं व्याख्यान सुनने जाया करते तो साम को अक्सर साथ ले जाते थे। इस प्रकार साथ रहते-रहते साम बहुत-सी सभाएँ देख चुका था और कितने ही व्याख्यानन सुन चुका था। कितनी ही जगहों में शेल्वी साहब जब सभा-मंडप में चले जाते, तब साम अपनी मंडली के दासों को लेकर वहीं बाहर दूसरी सभा किया करता और उसमें व्याख्यानन दिया करता था। इसी से उसकी भाषण-शक्ति बढ़ी-चढ़ी थी। उसे मन-ही-मन इस बात का बड़ा दु:ख रहा कि इलाइजा के भागने के संबंध में वह आज जी भरकर व्याख्यानन नहीं दे पाया। ईश्वर की विशेष करुणा की बात कहते ही शेल्वी साहब ने धमकाकर उसका उत्साह भंग कर दिया। रसोईघर में जाते हुए वह मन-ही-मन सोचने लगा, बड़े दु:ख की बात है कि ऐसा गंभीर विषय बिना लंबे व्याख्यानन के यों ही हाथ से निकला जा रहा है। अत: उसने निश्चय किया कि पाकशाला में दास-दासियों के सामने इस विषय में अवश्य ही व्याख्यानन देगा।

 क्लोई चाची से भोजन को लेकर कभी-कभी उसकी चखचख हो जाया करती थी। पर आज तेज भूख हो जाने के कारण उसने मेल ही से काम लेना उचित समझा। इससे पाकशाला में पहुँचकर क्लोई को देखते ही उसके रसोई बनाने की लंबी-चौड़ी तारीफ करने लगा। साम के प्रशंसा-वाक्य क्लोई के कानों में सुधा ढालने लगे। घर में जितने प्रकार की खाने की चीजें थीं, उसने सबमें से थोड़ी-थोड़ी साम को परोसी। इस संसार में आत्म-प्रशंसा सभी को भाती है। ऐसे आदमियों की संख्या इनी-गिनी होगी, जो आत्म-प्रशंसा नहीं सुनना चाहते, जिन्हें अपने खुशामद-पसंद न होने का गर्व है। जो ऐसा कहते हैं कि हम खुशामदियों को अपने पास तक नहीं फटकने देते, उन्हें भी खुशामद पसंद है, यह साबित करने के लिए विशेष कष्ट उठाने की आवशकयता नहीं है। आप इस बार उनसे कहिए - "अजी साहब, आपको तो खुशामद बिलकुल ही पसंद नहीं है। आपको भला कोई खुशामदी अपनी बातों में क्या लाएगा?" इसमें संदेह नहीं कि इस ठकुरसुहाती से वह साहब तुरंत पानी-पानी हो जाएँगे। वास्तव में अपनी प्रशंसा किसी को बुरी नहीं लगती। लेकिन बात यह है कि जितने आदमी हैं, उतनी ही तरह की खुशामदें भी हैं। किसी को किसी ढंग की खुशामद पसंद है, किसी को किसी ढंग की।

 साम जब रसोईघर में बैठकर पेट-पूजा करने लगा, तब सब दास-दासी वहाँ इकट्ठे होकर बड़े चाव से इलाइजा और उसके पुत्र के विषय में पूछताछ करने लगे। दास-दासियों से घर भरा हुआ देखकर साम के आनंद की सीमा न रही। इससे उसको एक लंबा व्याख्यानन झाड़ने का दुर्लभ अवसर मिल गया। उसकी अपूर्व वक्तृत्व-शक्ति इस प्रकार प्रवाहित होने लगी:

 "प्यारे स्वदेश-बंधुओं, देखो, तुम लोगों की रक्षा के लिए मैं किसी भी कठिन-से-कठिन कार्य में अग्रसर हो सकता हूँ। हम लोगों में से किसी एक पर भी यदि कोई अत्याचार करे तो समझना चाहिए, अनुभव करना चाहिए कि उसने हम सब पर अत्याचार किया है। तुम लोग समझ सकते हो कि इसके अंदर एक प्रकार की गूढ़ नीति है। इसलिए प्राण देकर तुम लोगों की रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है।"

 साम के इतना कहते-कहते आंडी ने टोककर कहा - "सवेरे तो तुम इलाइजा को पकड़वा देने को कहते थे?"

 आंडी की बात सुनकर साम ने और अधिक गंभीर बनकर कहा - "आंडी, इन गहरी बातों को समझने की अक्ल तुझमें नहीं है। तेरे जैसे भोले-भाले बालक के हृदय में केवल सद्भाव और सदिच्छा ही हो सकती है। तू इतने जटिल विषयों के नैतिक तत्व समझने के लायक नहीं है।"

 "नैतिक तत्व" शब्द सुनकर आंडी चुप हो रहा। पर साम की जीभ फिर डाकगाड़ी की तरह खटाखट चलने लगी:

 "मैं सदा सोच-समझकर, यानी विवेक से काम लेता हूँ। विवेक ही मेरी बागडोर है। पहले मैंने देखा कि शेल्वी साहब चाहते हैं कि इलाइजा पकड़ी जाए, अतएव विवेक के अनुरोध से मैंने उसी के अनुसार कार्य करने का निश्चय किया। फिर जब यह सुना कि मेम साहब ऐसा नहीं चाहतीं, तब मेरा विवेक दूसरे रास्ते पर चलने लगा। मेम साहब के पक्ष में विवेक के रहने से अधिक लाभ की आशा रहती है। इसलिए अब तुम लोग अनायास समझ सकते हो कि मैं नीति के रास्ते, विवेक के रास्ते और लाभ के रास्ते ही अधिक जाता हूँ। कहो आंडी, अब समझे असल बात?"

 साम के श्रोतागण हुंकारी भरते हुए उसकी बातें सुन रहे थे। यह देखकर साम से चुप न रहा गया। वह एक मुर्गी की टांग मुँह में डालकर फिर कहने लगा:

 "विवेक, नीति, अध्यवसाय यह इतना सहज विषय नहीं है। देखो, किसी काम को करने के लिए मैंने पहले एक रास्ता पकड़ा और फिर उसी कार्य को करने के लिए दूसरे रास्ते का सहारा लेता हूँ। ऐसा करने में क्या कम मेहनत और नीति खर्च करनी पड़ती है?"

 साम के लंबे भाषण से क्लोई कुछ घबरा-सी गई। अत: लाल झंडी दिखाने के लिए बोली - "अब तुम जाकर सो जाओ और दूसरों को भी सोने की छुट्टी दो।"

 क्लोई की बात सुनकर मेल-गाड़ी रुक गई। साम ने वहीं अपना व्याख्यानन समाप्त कर दिया और सबको आशीर्वाद देकर बिदा किया।