“स्कूल पिकनिक”
-आनन्द विश्वास
जिस दिन बच्चों को पढ़ना न पड़े और मौज-मस्ती, सैर-सपाटा करने का मौका मिले, उस दिन से अच्छा दिन और कौन-सा हो सकता है, बच्चों के लिए। पूरा का पूरा स्वतंत्रता-दिवस। किताबों से छुट्टी, दोस्तों के साथ मौज-मस्ती और धूमधड़ाका करने का मौका। बस, यही तो है बच्चों का स्वतंत्रता-दिवस।
यूँ तो मम्मी-पापा और परिवार के साथ तो अक्सर ही घूमना-फिरना होता रहता है बच्चों का। पर स्कूल के दोस्तों और टीचर के साथ में तो, कुछ और ही बात होती है। अनुशासन भी, मस्ती भी, मनोरंजन भी और इसके साथ-साथ धरती की सुन्दरता का अवलोकन भी।
शिक्षण की यह एक आवश्यक प्रक्रिया भी है क्योंकि इसमें मौज-मस्ती और मनोरंजन के साथ-साथ मानसिक विकास भी होता है और ढ़ेर सारी जानकारियाँ भी प्राप्त होती है विद्यार्थियों को। किताबों में पढ़ी हुई बातों को, देखने पर ज्यादा अच्छी तरह से समझ में आती हैं बच्चों को। ये तो एक शैक्षणिक-प्रवृत्ति है और इसीलिए स्कूलों में अक्सर ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
कबीर के स्कूल में जब एक दिवसीय पिकनिक की सूचना सभी कक्षाओं में पहुँची तो खुशी की एक लहर-सी दौड़ गई सारे स्कूल में। एक अजब सा रोमांच छा गया था सभी बच्चों के चेहरे पर।
सभी विद्यार्थियों को सूचित किया गया कि रविवार को एक दिवसीय पिकनिक का आयोजन किया गया है। जो विद्यार्थी जाना चाहें वे अपना नाम अपने क्लास-टीचर को लिखा दें। सूचना मिलने के बाद रिसेस हो गई। अतः रिसेस में सभी विद्यार्थियों के बीच चर्चा का एक ही विषय था, पिकनिक, पिकनिक, और बस पिकनिक।
कबीर और उसके मित्रों ने भी पिकनिक पर जाने का मन बना लिया था। कंचन, मीनू, गज़ल, गगन, सौरभ और पिंकी सभी तैयार थे पिकनिक के लिये और सभी ने अपना नाम क्लास-टीचर को लिखवा दिया। किस-किस को क्या-क्या सामान लाना है, खेलने के लिये और खाने के लिये, यह भी निश्चित कर लिया था।
दूसरे दिन पिकनिक जाने वाले विद्यार्थियों ने अपने-अपने क्लास-टीचर को नाम लिखा दिये। विद्यार्थियों की संख्या को देखते हुये दो बसों की व्यवस्था की गई। साथ ही चाय-नाश्ता और खाने की व्यवस्था स्कूल की ओर से की गई थी।
पिकनिक जाने से एक दिन पहले, जाने वाले सभी विद्यार्थियों को कॉन्फरेंस हॉल में बुला कर पिकनिक इन्चार्ज श्री गौरांग पटेल और प्रिंसीपल मैडम ने सभी विद्यार्थियों को आवश्यक जानकारी और सूचनाऐं दीं।
जो बच्चे दवा इत्यादि लेते हैं वे अपनी दवा साथ में ले कर आऐं। अकेले कहीं न जाऐं। कम से कम पाँच विद्यार्थियों के ग्रुप में ही रहें। जहाँ तक सम्भव हो अपने ग्रुप-इन्चार्ज के साथ ही रहें। कल सुबह छः बजे तक स्कूल में आ जाऐं। ग्रुप-इन्चार्ज टीचर साक्षी श्रीवास्तव, गौतम दवे, समीक्षा जैन और पिकनिक पर जाने वाले सभी टीचर भी वहाँ पर मौजूद थे।
दूसरे दिन सभी विद्यार्थी, टीचर्स, चपरासी और ग्रुप-इन्चार्ज टीचर्स स्कूल-प्रांगण में निश्चित समय पर आ गये। दोनों बसें वहाँ पर पहले से ही मौजूद थीं। ग्रुप-इन्चार्ज टीचर्स ने सभी विद्यार्थियों की हाजिरी ली और फिर बस में बैठने के निर्देश दिये। जब सभी विद्यार्थी, टीचर्स बस में बैठ गये तो पिकनिक इन्चार्ज गौरांग सर ने दोनों बसों के ग्रुप-इन्चार्ज टीचर्स से परामर्श कर, बसों को लेक-फ्रन्ट पिकनिक पोइन्ट के लिये रवाना कर दिया। बसों के रवाना होने के समय प्रिंसीपल मैडम भी वहाँ पर उपस्थित थीं।
लगभग एक घण्टे के सफर के बाद दोनों बसें लेक- गार्डन पर थीं। चाय-नाश्ता तैयार था। जिसकी व्यवस्था पहले से ही करा दी गई थी। सभी विद्यार्थियों ने ब्रेड-पकौड़े, और दाल-बड़े का नाश्ता किया। चाय-कॉफी, चिप्स और वेफर्स की व्यवस्था भी थी।
इसी समय पिकनिक इन्चार्ज गौरांग पटेल ने सभी विद्यार्थियों को सूचना दी कि बारह बजे खाने के लिये और तीन बजे नाश्ते के लिये, इसी स्थान पर आ जायें। शाम को पाँच बजे बस के पास पार्किंग में पहुँच जायें। समय का विशेष ध्यान रखें।
नाश्ता करने के बाद, पटेल सर की सूचनानुसार सभी विद्यार्थी ‘कमला नेहरू ज़ियोलोजीकल गार्डन’ देखने गये। वास्तव में तो यह प्राणी-संग्रहालय ही है जहाँ पर भिन्न-भिन्न प्रजातियों के पशु, पक्षी, और जानवरों को रखा गया है।
बायोलौजी टीचर साक्षी मैडम ने विद्यार्थियों को उनके विषय में विशेष जानकारी दी। चिंपांजी, शेर, टाइगर, हिप्पोपोटेमस आदि देख कर सभी विद्यार्थी आनन्दित हुये। ‘सर्प-संसार’ में साँपों की भिन्न-भिन्न प्रजातियाँ विद्यार्थियों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र थीं।
इसके बाद सभी छात्र ‘चाचा नेहरू बाल-बाटिका’ में गये। बाटिका की शोभा तो देखते ही बनती थी। बाटिका में घुसते ही बाईं ओर ‘डौल-घर’ बच्चों को बहुत भाया। तरह-तरह की गुड़िया और गुड्डे, भिन्न-भिन्न मुद्राओं में बच्चों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे।
इसके आगे था ‘काँच-घर’ यानि दर्पण का संसार। अवतल, उत्तल और समतल दर्पणों का संगम। मानव आकार के दर्पणों को इस प्रकार समायोजित किया गया कि उसके सामने खड़े होने पर एकदम पतले पेंसिल की तरह दिखाई दें तो दूसरे दर्पण के सामने गेंद की तरह गोल-मटोल। हर दर्पण की अपनी अलग विशेषता और ऐसे अनेक दर्पण।
विद्यार्थियों को एक-दूसरे को चिढ़ाने का एक अच्छा मौका था। सब एक-दूसरे को कह ही रहे थे। देख, तू कितना पतला है तो दूसरा कहता देख तू कितनी मोटी है गोल-मटोल बैगन जैसी। पर सब के सब खुश थे। अपने आप की बेढ़ंगी शक्ल-सूरत को देख कर, हँसी आये बिना न रहे सके।
लोग कहते हैं कि दर्पण हमेशा सच बोलता है पर यहाँ तो उसके सच की पोल ही खुल गई। निरा झूँठा निकला। दम भरता था सत्यवादी हरिश्चन्द होने का। अच्छे-अच्छे सुन्दर बच्चों को पेंसिल जैसा पतला बताने में जरा भी संकोच न हुआ, झूँठे दर्पण को। कलि-युग का दर्पण जो ठहरा।
और अब बारह बजना ही चाहते थे और पेट में चूहे शोर मचा रहे थे। सो सबको याद आ गये गौरांग पटेल सर। सभी खाना खाने के लिये पहुँच गये। खाना तैयार था। सभी विद्यार्थियों, टीचर, चपरासी और स्टाफ ने खाना खाया। खाना स्वादिष्ट और अच्छा था सभी ने खाना बनाने वालों की प्रशंसा की और धन्यवाद भी दिया।
इसके बाद बोटिंग का प्रोग्राम था। लेक-पॉइंट पर पहुँच कर सभी विद्यार्थियों को लाइन बनाने की सूचना दे दी गई। ग्रुप-इन्चार्ज टीचर विद्यार्थियों के साथ में थे। तब तक गौरांग पटेल सभी विद्यार्थियों के लिये टिकिट ले कर आ गये। यहाँ दोनों तरह की बोटिंग की व्यवस्था थी। कुछ ने पैडल- बोट को पसन्द किया तो कुछ ने मोटर-बोट को।
बोटिंग के बाद, अब बारी थी रेल-यात्रा की। यानि बाल-रेल में बैठ कर पूरी लेक का चक्कर लगाने की। यह अनुभव अपने आप में अनौखा ही कहा जाय तो अच्छा होगा। पूरी लेक का विहंगावलोकन। रेल में बैठ कर, लेक में बोटिंग करते लोग, बतख़ और बगुलों के झुंड और झील में खिलते कमलों के अवलोकन का आनन्द। बड़ा ही अच्छा लगा सभी विद्यार्थियों को, बच्चों की रेल में।
तीन बज चुके थे और नाश्ता भी तैयार था। सभी ने नाश्ता कर, गार्डन में खेलने का प्रोग्राम बनाया। गार्डन में कोई क्रिकेट, तो कोई बैडमिंटन, तो कोई खो-खो। सभी विद्यार्थी अपने-अपने ग्रुप के साथ, मस्त थे अपने-अपने खेलों में। कुछ ने गार्डन में ही आराम करने का मन बनाया तो कुछ ने मटर-गस्ती और घूमने का। क्योंकि इसके बाद तो बस, बस में बैठ कर बापस घर ही जाना था।
लगभग चार-साड़े चार बजे का समय रहा होगा। लेक के किनारे एक साइड में पक्षियों के दाना डालने का स्थान बना हुआ था। इस समय पक्षी तो वहाँ नहीं थे, पर वहाँ से झील का नज़ारा बड़ा ही सुन्दर दिखाई दे रहा था।
बोटिंग करते लोग, बतख़ और बगुलों के झुंड और झील में खिलते कमल, झील की सुन्दरता में चार चाँद लगा रहे थे। जगह-जगह पर पानी के ऊँचे-ऊँचे उठते फब्बारे मन में रोमांच भरने के लिए पर्याप्त थे। पायल और उसके साथी रमणीय स्थल का भरपूर आनन्द ले रहे थे।
सुन्दर दृश्य को निहार कर पायल पीछे मुड़ी तो उसकी नज़र पक्षियों के पानी पीने वाले वर्तन पर पड़ी। वर्तन में एक चींटा पानी से बाहर निकलने का प्रयास कर रहा था और वह ऊपर चढ़ कर बाहर आ भी गया था। तभी पायल को एक शरारत सूझी, उसने चींटे को फिर से पानी में डाल दिया। बेचारा चींटा फिर प्रयास कर बाहर आने में सफल हो गया। ऐसा प्रयास, दोनों ओर से कई बार हुआ। पायल को बड़ा मजा आया। चींटे का संघर्ष देख कर या उसे परेशान देख कर, पता नही, ये तो पायल ही जाने।
शायद कुछ लोगों की मानसिकता ही ऐसी होती है कि जब तक वे दूसरों को परेशान न कर लें, तब तक उन्हें मजा ही नहीं आता। दुखी आदमी आखिर किसी को सुखी कैसे देख सकता है ? हम अपने दुख से कम दुखी होते हैं पर दूसरे के सुख से ज्यादा दुखी होते हैं।
तभी पायल को एक पिल्ला दिखाई दे गया। बस, शैतान दिमाग, उसने पिल्ले को गोद में उठाया। पहले तो पायल ने उसे बड़े प्यार से सहेजा और देखते ही देखते उसे लेक की ओर फेंक दिया।
बेचारा पिल्ला पानी में गिर पड़ा। वह कभी डूबता, कभी तैरता और कभी जोर से चिल्लाता। पर पायल तो जोर-जोर से हँसती ही रही। हँसते-हँसते पायल अपना शारीरिक-सन्तुलन ही खो बैठी।
पायल की सहेलियों ने चिल्लाया भी, पायल पीछे मत चल, पीछे मत चल। देख, पीछे पानी है। तू पानी में गिर पड़ेगी। पर पायल का ध्यान तो पिल्ले को दुखी होते हुये, चिल्लाते हुये देखने में था। कुछ भी न सुना मदहोश पायल ने और उसका पैर फिसल गया, वह झील में गिर पड़ी।
उधर एक लड़के ने, जो शायद तैरना जानता था, तुरन्त लेक में कूद कर, डूबते पिल्ले को बाहर निकाल कर बाहर रख दिया और खुद भी बाहर निकल आया। कूँ-कूँ करता पिल्ला पहले फड़फड़ाया और फिर न जाने किधर चला गया।
इधर पायल पानी में डूबने लगी। सहेलियों ने जोर-जोर से बचाओ.. बचाओ... चिल्लाना शुरू किया।
तभी कबीर का ध्यान पानी में डूबती पायल की ओर गया। उसने तुरन्त ही गज़ल और शीला का दुपट्टा लेकर उनको आपस में बाँध कर, एक छोर में रबड़ रिंग को बाँध कर, पायल की ओर फैंका। पायल उसे पकड़ नहीं पाई। कबीर ने शीघ्रता से दुपट्टे को दुबारा पायल की ओर फैंका। इस बार डुबकी खाती पायल ने दुपट्टे को पकड़ लिया।
कबीर ने दुपट्टे को घीरे-घीरे खींचना शुरू किया। अब पायल किनारे तक आ चुकी थी और वह डूबते-डूबते बच गई। कबीर ने बड़ी साबधानी से पायल का हाथ पकड़ कर, गज़ल और शीला की सहायता से, पायल को पानी से बाहर खींच लिया।
ठंड और भय के मारे काँप रही थी पायल। दूसरों का तमाशा बनाने वाली पायल आज खुद एक तमाशा बन गई थी। उसका मन ग्लानि से भर गया था। अपने आप पर शर्मिन्दा थी वह। पता नही अब टीचर और गौरांग सर क्या कहेंगे उससे। और जब मम्मी-पापा को पता चलेगा तब ? प्रिंसीपल मैडम का ख्याल आते ही वह काँप गई।
भयभीत पायल के मन को पढ़ लिया था साक्षी टीचर ने। बड़े प्यार से सहेज कर वे उसे बस में ले आईं और भीगे कपड़ों को बदलवाने की व्यवस्था की।
जिसे भी घटना का पता चलता, वह दुखी होता। पायल के पागल-पन की बज़ह से अच्छी भली पिकनिक का सारा का सारा मजा ही किरकिरा हो गया था। एक ओर जहाँ पिकनिक में खुश-खुश थे सभी विद्यार्थी, पायल की घटना ने सभी को व्यथित कर दिया।
सभी विद्यार्थी पायल की बज़ह से दुखी और व्यथित हो गये थे, पर पायल अब हँस नही रही थी। चींटे और पिल्ले को दुखी होते देख कर हँस-हँसकर ठहाका लगाने वाली पायल, आज अपने साथियों को दुखी देख कर, हँस नही पा रही थी। उसकी आँखों से गंगा-जमना वह रही थी।
और शायद वह सोच रही थी कि यदि कबीर वहाँ समय पर न पहुँचता तो शायद वह, न तो हँस पाती और ना ही रो पाती। पर सभी को रुला जरूर देती।
पाँच बज चुके थे। सभी विद्यार्थी बस में बैठ कर स्कूल की ओर रवाना हो चुके थे। हास-परिहास और दुख-सुख की अनुभूतियों के साथ। जीवन की एक अच्छी खट्टी-मिट्ठी यादगार पिकनिक के साथ।
-आनन्द विश्वास