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राधा के मोहन



ये कथा है क्षीर सागर में बैठे विष्णु भगवान के आठवें अवतार की।भगवान कृष्ण ने वासुदेव तथा देवकी के पुत्र के रूप में जन्म लिया।
वहीं भगवान अपने सातवे अवतरण में अर्थात् त्रेतायुग में लंका के राजा रावण के वध के लिए अयोध्या में राजा दशरथ के घर राम के रूप में जन्मे थे। सीता हरण के पश्चात लंका के युद्ध में वानर सेना की मदद से राम ने रावण का वध किया। मर्यादित जीवन और आचरण से राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। पर वहीं राम उस समाज को जो सीता को कुलकलंकिनी कह रहा था उसका हाथ छुड़ा पाने में समर्थ ना हो सके।

उसी समाज की जटिलता ने राम को दैवीय से सामान्य धरातल पर लाकर रख दिया। इस सब के बाद भी रामायण का अंत सीता के भुगोद में समा जाने पर हो जाए तो यह
सत्य की अनदेखी ही कहीं जा सकती है। ठीक वैसे ही जैसे फसल के उगने के बाद उसे काटने के बाद कार्य सम्पूर्ण नहीं होता उसे बांटना भी पड़ता है और यदि बांटा नहीं तो क्या लाभ मिल सकता है??

उसी तरह त्रेता युग की करनी द्वापर युग की कथनी बनती है।

अध्याय २

बैकुंठ आज प्रेम से उल्लास से हर्ष से सुशोभित है और हो भी क्यों ना। आज श्री हरि विष्णु अपने रामावतार से विमुक्त हो पुनः बैकुंठ पधारेंगे। नारायण नारायण की रट लगाने वाले नारद की प्रसन्नता का तो ठिकाना ही नहीं । आज अपने प्रभु से मिलन को वे आतुर है। सभी देवी देवताओं के मुख पर श्री हरि विष्णु के दर्शन की लालसा प्रबल होती जा रही है परन्तु उनमें से एक देवी, देवी लक्ष्मी के नेत्रों से तो अश्रु बह आए है। अपने प्रिय से मिलन के लिए वो ऐसे व्याकुल है जैसे बरसों से उनसे मिली ही ना हो। और हो भी क्यों ना? प्रेम तो ऐसा ही होता है जिसमें एक क्षण का विरह भी युगों युगों का विरह बन जाता है।
सीता रूप में मिले अपमानो को मिथ्या सिद्ध करने और नारी अस्तित्व की गरिमा और उसके महत्व से समाज को परिचित कराने हेतु देवी ने अपने प्रियतम से विछोह स्वीकार किया परन्तु समाज की संकीर्ण विचारधारा को नहीं।।

वो चाहती तो भले ही श्री राम से पुनः मिलन नियति की आज्ञा समझ स्वीकार कर लेती परन्तु लक्ष्मी स्वरूपा सीता को ज्ञात था कि यह फल नियति का नहीं जो उनका परित्याग किया गया अपितु समाज की रूक्ष दृष्टि का था।
परिणाम जो निकला वो अहित में था और सीता का निर्णय
सर्वहित में था।। जो राधा की उत्पत्ति का आधार बनता है।।

अध्याय 3

देवी लक्ष्मी अपने पूर्व अवतार की दुखद स्मृतियों से बाहर आती हैं और वर्तमान की सुखद स्मृतियों की कल्पना करती है।

समय समीप आ रहा है श्री हरि विष्णु के पदार्पण का। उनके दर्शन का और उल्लास फैल रहा है मधुरिम सा।।

तीव्र प्रकाशित आभा लिए स्वतः ही श्री हरि विष्णु प्रकट होते है। उसके कर्णप्रिय पदचापों की ध्वनि से बैकुंठ में आह्लाद गूंज रहा है। नारद के आंखो में तो भक्ति की अविरल धारा फूट रही है। नारायण नारायण कह वो श्री हरि विष्णु का अभिवादन कर रहे है और देवी लक्ष्मी के नेत्रों से तो स्वतः ही अश्रु धारा बह अाई है। अपने प्रिय के विरह में जैसे प्रियतमा आकुल रहती है और जैसे ही मिलन होता है वो अत्याधिक प्रेम से उल्लास से भर उठती है कुछ वैसे ही स्थिति देवी लक्ष्मी की है। प्रेम उनसे संभलते नहीं संभलता।
देवराज इन्द्र प्रभु के समक्ष उनका आभार प्रकट कर रहे है। साथ ही अन्य देवता अग्निदेव वायुदेव सूर्यदेव सोमदेव इत्यादि भी प्रभु के दर्शन से फूले नहीं समा रहे है। नारायण सभी देवी देवताओं का अपने प्रति भक्ति और समर्पण देखकर मुस्कुरा रहे है। देवी लक्ष्मी नारायण का सभी देवो के आग्रह पर तिलक कर रही है जिससे नारायण की आभा और ही ज्यादा बढ़ रही है। सम्पूर्ण क्षीर सागर में जैसे खुशियों की लहर बह रही है।

और इन सबके बीच सम्पूर्ण जगत के पालक और संचालक विष्णु अपना स्थान ग्रहण कर रहे है। शेष नाग भी स्वयं को श्री हरि विष्णु की शरशैया और विश्रामस्थली के रूप में जानकर धन्य हो रहे है। सम्पूर्ण जगत का भार उठाने वाले श्री हरि विष्णु का भार कुछ क्षणों तक उठाने को वे अपना सौभाग्य मान रहे है।
सभी देवतागण श्री हरि विष्णु के मधुर स्वर को सुनने को लालयित है। परन्तु नारायण केवल मुस्कुरा रहे है कुछ कह नहीं रहे है। उनके मौन का अर्थ लगा पाने मै कोई भी समर्थ नहीं है।

क्या कारण है कि श्री हरि विष्णु मौन है? ये समय की कौन सी नई लीला है? देवताओं के असमंजस का क्या समाधान है??


अध्याय 5

श्री हरि विष्णु के दर्शन के पश्चात सभी देवी देवताओं को केवल उनके मधुर संवाद की आशा है। पर कोई भी देव ये जान पाने में सक्षम नहीं है कि वे मौन क्यों है??
ना देव मन ना गुरु मन और ना ही प्रेम मन ये जान पाने में समर्थ है कि श्री हरि विष्णु की इस लीला का क्या अर्थ है?
पर एक व्यक्ति है जो श्री हरि विष्णु की इस लीला का अर्थ भी जानता है और इसका भागीदार भी है और वो है नारद।

नारद जो प्रभु के नैनो के संवाद को भली भांति जानते है उनकी उस मंशा से भी परिचित है जिस वजह से सब चिंतित है। भक्ति में समर्पित देवर्षि का मन हरि भक्ति में इस तरह निमग्न है कि वे स्वयं हरिप्रिय है हरि भक्ति से सराबोर। जानते है कि श्री हरि विष्णु का भक्त मन भी अपने आराध्य से मिलने को आतुर है, व्याकुल है।

महादेव की एक झलक पाने को आतुर श्री हरि विष्णु के मन में अथाह स्नेह भरा है। इतना स्नेह भरा है कि उस स्नेह की गंगा से क्षीरसागर भी भरपूर भर गया है। बस रुके है केवल सही क्षण की प्रतीक्षा में। पूरा जगत अपने प्रभु के दर्शन को आया है बस केवल प्रभु अपने महाप्रभु के दर्शन को आतुर हैं। और विडंबना तो देखो कि वो महाप्रभु भी अपना सर्वे सर्वा प्रभु को ही मानते है। वे भी सही अवसर के सही परिस्थिति की प्रतीक्षा में है। यह प्रतीक्षा एक ओर की नहीं दोनो ओर की है। किन्तु इन दोनों के अलावा प्रतीक्षा में कोई औेर भी है। और वो है देवी लक्ष्मी।।

किसकी प्रतीक्षा पहले समाप्त होगी? देवी लक्ष्मी और नारायण के प्रेम की या फिर महादेव या विष्णु की भक्ति की? भक्ति या प्रेम??

अध्याय 6

पूर्ण ब्रह्म स्वरूप नारायण अर्थात् श्री हरि विष्णु की अनुपम छवि को अपने मन में समेटकर रखने वाली उनकी
अर्धांगिनी देवी लक्ष्मी को यह पूरा अभिमान है विश्वास है कि वे ही विष्णु की प्रिय है सर्वस्व है।
किन्तु समय की लीला कुछ और ही खेल खेलने को आतुर है। हरि भक्ति में रसमग्न नारद को उस पूर्व स्मृति का वर्तमान में प्रत्यक्षाभास होता है। स्वयं मायापति अपनी ही पत्नी को माया की लीला दिखाने को थे।

अति विश्वास की निर्भरता में पड़ी देवी लक्ष्मी के असमंजस को दूर करने की लीला रचते है नारायण। लक्ष्मी को उनके अस्तित्व की समग्रता से जोड़ने का मार्ग बनाते है नारायण।
कारक बनते है नारद और स्रोतों से जुड़ते है देवों के देव।
श्री हरि विष्णु के मुख से अपना नाम सुनने को आह्लादित देवी लक्ष्मी अति प्रसन्न है । अपने वर्तमान में अपने अतीत और भविष्य को भी वे भूल गई है।

भूल गई है अपने किसी पूर्वजन्म अवतार में अपने पिता का ही श्राप कि हर जन्म में होगा उनका विष्णु से पृथकाव।

वास्तव में ये मिलन एक बहुत बड़े विलगाव से पूर्व का अंतराल है। प्रश्न है भक्ति और प्रेम का।

कुछ क्षण पश्चात देवाधिदेव शिव महाप्रभु के आगमन से नारायण के मुख से उनके अभिवादन में एक ही शब्द निकलता है:- मेरे आराध्य मेरे सर्वस्व।

मुस्कुराते विष्णु के नेत्रों से भक्ति के अश्रु बहते है शिव के समक्ष। जो उनके चरणों पर गिरकर दिव्य कमल बन जाते है। शिव भी अपने आराध्य की महिमा में अपने नेत्र खुशी से झुका उनका आभार प्रकट करते है। जटाजूट शिव की जटाये भी आनंदस्वरुप लहराने लगती है।

सारी प्रकृति मंगलगीत गाती है। एक एक कर सभी देव नारायण का आशीष और दर्शन प्राप्त करते है कि लंबा समय ऐसे बीतता है जैसे एक क्षण हो। देवी लक्ष्मी सभी भक्ति की भक्ति देख वात्सल्य से भर जाती है पर अपनी प्रेमभक्ति प्रकट करने की इच्छा उनके मन मन्दिर में होती है।
क्या देवी लक्ष्मी अपनी भीतरी इच्छा प्रकट कर पाएंगी??

(इस कथा का कुछ अंश अंग्रेजी में राधामयी कृष्ण के रूप में भी उपलब्ध है)

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