श्रापित रंगमहल--भाग(४) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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श्रापित रंगमहल--भाग(४)

धूमकेतु के ऐसे आचरण से शाकंभरी विक्षिप्त हो चुकी थी,उसे स्वयं से घृणा हो रही थी,उसे अब अपने भ्राता पुष्पराज की प्रतीक्षा थी कि वो शीघ्र ही राजमहल आकर उसे बंदीगृह से मुक्त कराएगा,जब पुष्पराज को यह सूचना मिली तो वो शीघ्र ही राजमहल पहुँचा अपनी बहन शाकंभरी को मुक्त करवाने हेतु,परन्तु राजा मोरमुकुट ने तो पहले से कोई और ही योजना बना रखी थी,
इस योजना के अन्तर्गत उसने पहले ही अपने सैनिकों को अरण्य वन भेजकर अरण्य ऋषि का आपहरण करवा लिया,इधर पुष्पराज राजमहल पहुँचा तो उसे धूमकेतु ने बंदी बनाकर बंदीगृह में डलवा दिया,दूसरे दिन राजदरबार लगा एवं पुष्पराज तथा अरण्य ऋषि को राजदरबार में उपस्थित किया गया,तब राजा मोरमुकुट सिंह ने पुष्पराज से कहा....
पुष्पराज तुम्हें दण्ड मिलना निश्चित है।।
परन्तु क्यों?पुष्पराज ने पूछा।।
तुमने अशोभनीय कार्य किया है एवं तुम दण्ड के भागीदार हो,राजा मोरमुकुट सिंह बोलें।।
मैनें कोई अशोभनीय कार्य नहीं किया,प्रेम करना कोई अपराध तो नहीं,पुष्पराज बोला।।
किन्तु एक राजकुमारी से प्रेम करना अपराध है एवं तुम्हें इसका दण्ड मिलना ही चाहिए,मोरमुकुट सिंह बोलें।।
आपका जो जी चाहे मुझे दण्ड दीजिए किन्तु पहले ये बताएं मेरी बहन शाकंभरी कहाँ है?पुष्पराज ने पूछा।।
वो बंदीगृह में हैं,मोरमुकुट सिंह बोला।।
किन्तु क्यों?वो तो निर्दोष है उसने तो कोई अपराध नहीं किया,पुष्पराज बोला।।
उसका दोष केवल इतना ही है कि वो तुम्हारी बहन है,वहाँ उपस्थित धूमकेतु बोला।।
और तुम्हारी बहन जलकुम्भी का भी बस इतना दोष है कि वो तुम्हारी बहन है,यदि वो साधारण कन्या होती तो तुम उसे ऐसे दण्डित ना करते है ना धूमकेतु!पुष्पराज बोला।।
ये वार्तालाप तो बाद में भी हो सकता है,तुम पहले ये बताओ कि अपने पिताश्री को मुक्त करवाना चाहते हो या नहीं,यदि उन्हें मुक्त देखना चाहते हो तो तुम्हें एक वचन देना होगा,धूमकेतु बोला।।
कैसा वचन?पुष्पराज ने पूछा।।
वो ये कि यदि मैं तुम्हारे पिता को मुक्त कर दूँ तो तुम अपनी बहन शाकंभरी का विवाह मुझसे कर दोगें,धूमकेतु बोला।।
धूमकेतु की बात सुनकर अरण्य ऋषि अब और अधिक मौन ना रह सकें,वें बोल ही पड़े...
कदापि नहीं!तुम पुष्पराज से ये प्रश्न क्यों रहे हो?शाकंभरी तो मेरी पुत्री है एवं मैं तुझ जैसे दुराचारी को अपनी पुत्री सौंप कैसें दूँ?कहीं तेरी मति तो भ्रष्ट नहीं हो गई है जो तू ने ये प्रश्न पूछने का साहस किया,
अरण्य ऋषि की बात सुनकर धूमकेतु बोला.....
ऋषि अरण्य अब आपका क्रोध करना निरर्थक है,शाकंभरी का विवाह आप मुझसे करें या ना करें परन्तु कल पूर्ण रात्रि तो मैं उसके ही संग था,अत्यन्त सुन्दर है आपकी कन्या,उसने भरसक प्रयास किया स्वयं का सतीत्व बचाने का ,किन्तु दुर्भाग्यवश वो सफल ना हो सकी़,बेचारी अबला अन्त में पराजित हो ही गई,
जैसे अरण्य ऋषि ने धूमकेतु का कथन सुना तो वें स्वयं को रोक ना सकें एवं आवेश में आकर बोले....
दुस्साहसी,दुष्ट,पापी ,अधर्मी !ये तूने क्या कर डाला,मेरी पुष्प के समान पुत्री को तूने किसी कीट-पतंगें की भाँति मसल दिया,तुझे इस पाप का दण्ड तो भुगतना ही होगा,
कौन देगा मुझे दण्ड?धूमकेतु बोला।।
मैं दूँगा दण्ड,पुष्पराज बोला।।
तुझे तो मैं यहीं सबके समक्ष दण्ड दूँगा एवं सम्पूर्ण राजदरबार देखेगा,धूमकेतु बोला।।
नहीं!भ्राता!आपको मुझे भी दण्ड देना होगा,केवल पुष्पराज अपराधी नहीं है मैं भी इस अपराध की बराबर भागीदार हूँ,जलकुम्भी ऐसा कहते हुए राजदरबार में उपस्थित हुई....
तुम राजदरबार मैं कैसें उपस्थित हुई ?वो भी मेरे समक्ष,इतना साहस,राजा मोरमुकुट सिंह की गर्जना थी ये।।
जो आपके पुत्र ने कल रात्रि किया?उस अपराध से तो ये अधिक नहीं,जलकुम्भी बोला।।
तुम ऐसा दुस्साहस कैसें कर सकती हो जलकुम्भी?मोरमुकुट सिंह ने पूछा।।
वैसे ही जैसे कि जो दुस्साहस आपके पुत्र ने किया,उसने मेरी सखी का सतीत्व भंग करके अच्छा नहीं किया,आप को उन्हें भी दण्ड देना ही होगा,जलकुम्भी ये कहते हुए रो पड़ी.....
दण्ड.....तू..मुझे दण्ड दिलवाएगीं,ये ले!
और इतना कहकर धूमकेतु ने अपनी तलवार निकाली और उसने जलकुम्भी का सिर धड़ से अलग कर दिया,ये देखकर समूचे राजदरबार के लोंग मौन हो गए,पुष्पराज ये दृश्य देखकर पीड़ा से कराह उठा और धूमकेतु से बोला......
नहीं....नहीं...जलकुम्भी!हे!ईश्वर!प्रेम करने का ऐसा दण्ड,तुम कैसें निर्दयी भ्राता हो?तुम्हारा हृदय है या पाषाण,तनिक भी लज्जा नहीं आई तुम्हें ऐसा करते हुए,
तुम्हारा और तुम्हारे पिता का भी ऐसा ही दण्ड निश्चित है यदि तुमने शाकंभरी का विवाह मुझसे ना किया तो,धूमकेतु बोली।।
तो ये असम्भव है,हम दोनों पिता पुत्र प्राण दे देगें किन्तु ऐसा कदापि ना करेगें,अरण्य ऋषि बोलें।।
तुम्हें ऐसा करना ही होगा,धूमकेतु बोला।।
हम दोनों ऐसा कदापि नहीं करेगें,पुष्पराज बोला।।
ये तो आज रात्रि को तय किया जाएगा,सैंनिको जलकुम्भी के शरीर के दोनों भागों को उठाकर वन में डाल आओं,भूखें वन्यजीवों को आज का आहार मिल जाएगा एवं इन दोनों पिता पुत्र को बंदीगृह में बंद कर दों,रात्रि रंगमहल के प्राँगण में तीनों को ले आना और इतना कहकर मोरमुकुट सिंह राजदरबार से चलें गए,सभी दरबारी भी एक एक करके चले गए किन्तु किसी ने इस अन्याय के विरुद्ध कुछ भी नहीं कहा....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....
रात्रि हो चुकी थी,राजा मोरमुकुट के आदेश पर सैनिकों ने श्रापित रंगमहल के प्राँगण में पुष्पराज,अरण्य ऋषि एवं शाकंभरी को उपस्थित कर दिया,प्राँगण में गड़े हुए स्तम्भों पर अग्निशलाकाओं का प्रकाश जगमगा रहा था एवं शाकंभरी को इस बात का अत्यधिक भय सता रहा था कि राजा मोरमुकुट सिंह एवं धूमकेतु ना जाने उसके पिता और भ्राता को किस प्रकार की प्रताड़ना देगें?उसे ये ज्ञात हो चुका था किस प्रकार धूमकेतु ने अपनी बहन जलकुम्भी का सिर धड़ से अलग कर दिया एवं जैसा राक्षसी व्यवहार उसने शाकंभरी के संग किया था वो शाकंभरी अब तक ना भूली थी,वो भी प्रतिशोध की अग्नि में जल रही थीं,उसका वश चलता तो वो धूमकेतु को ऐसा दण्ड देती कि कभी कोई भी भविष्य में ऐसा अपराध करने का प्रयास नहीं करेगा,किसी स्त्री का सतीत्व उसे अपने प्राणों से भी प्रिय होता है,ये सारे विचार शाकंभरी के मस्तिष्क में आवागमन कर रहे थे तभी मोरमुकुट ने अपने सैनिकों को आदेश दिया....
सैनिकों!पुष्पराज को प्राँगण के मध्य वाले स्तम्भ में बाँध दो,शाकंभरी को स्वतन्त्र कर दो एवं अरण्य ऋषि के बन्ध्य खोल कर उन्हें मेरे समीप लाओ।।
सैनिकों ने राजा के आदेश पर पुष्पराज को प्राँगण के मध्य के स्तम्भ में बाँध दिया एवं ऋषि अरण्य को राजा मोरमुकुट सिंह के समीप लाया गया,तब मोरमुकुट सिंह ने अरण्य ऋषि से पूछा....
क्या तुम्हें अपनी पुत्री को मेरे राजमहल की राजनर्तकी बनाना स्वीकार है?
मोरमुकुट सिंह की बात सुनकर अरण्य ऋषि ने अपनी संवेदना खो दी एवं क्रोधित होकर बोले....
पापी!मैं तेरा रक्त पी जाऊँगा यदि तुमने ऐसी बात अपनी जिह्वा पर दोबारा लाई तो।।
अब कुछ भी हो अरण्य ऋषि तुम्हारी पुत्री तो नर्तकी अवश्य बनेगी मेरे महल की,यदि तुम अभी तत्पर हो तो ठीक ,नहीं तो तुम्हारी मृत्यु के उपरान्त तो उसे मेरे राजमहल की राजनर्तकी तो बनना ही पड़ेगा,मोरमुकुट सिंह बोला....
मोरमुकुट सिंह की बात सुनकर अब पुष्पराज मौन ना रह सका और बोला......
मोरमुकुट सिंह तू राजा के नाम पर कलंक है,राजा तो अपनी प्रजा का ध्यान एक नन्हें बालक की भाँति करता है परन्तु तू तो अपनी प्रजा का शोषण कर रहा है तुझ जैसे राजा को तो जीवित रहने का अधिकार नहीं है,थू...है ....तुझ पर।।
तेरा इतना साहस कि तू मेरे पिता को धिक्कार रहा है,अब तेरी मृत्यु निश्चित है......,धूमकेतु बोला।।
अब शाकंभरी भी मौन ना रह सकी एवं चीखते हुए बोली....
धिक्कार तो तुझ पर है धूमकेतु जो तूने मेरा सतीत्व भंग किया,तुझे मृत्यु मिलनी चाहिए,तू तो इस धरती पर भार के समान है,इतना पाप करके कहाँ जाएगा?ईश्वर को भी अब अपने इस कार्य पर लज्जा आ रही होगी कि तुझे उसने इस धरती पर क्यों भेजा?
चुप कर तू!अब देख मैं तेरी क्या दशा करता हूँ?धूमकेतु बोला।।
जो करना है कर लें,मुझे अब तुझसे भय नहीं,पापी कहीं का,शाकंभरी बोलीं।।
तेरा इतना साहस अब देख कि मैं क्या करता हूँ ? इतना कहकर धूमकेतु ने तलवार निकाली और अरण्य ऋषि के हृदय में घोंप दी,हृदय में तलवार घुपने के पश्चात रक्त की धारा प्रवाहित होने लगीं एवं ऋषि अरण्य धरती पर अचेत होकर गिर पड़े,कुछ क्षण में ही उनके प्राण पखेरू हो गए,इस क्षण के मध्य वहाँ केवल शान्ति ही शान्ति थी,तभी उस शान्ति को तोड़ते हुए पुष्पराज बोला.....
अधर्मी....दुराचारी....तूने मेरे पिता की हत्या कर दी,मैं तुझे जीवित नहीं छोड़ूगा।।
तू मेरे पुत्र को तब मारेगा ना जब तू जीवित बचेगा और इतना कहकर राजा मोरमुकुट सिंह ने भी अपनी कृपाण निकालकर पुष्पराज के उदर में घोंप दी एवं निरन्तर निकाल निकालकर घोंपता ही रहा जब तक पुष्पराज की मृत्यु ना हो गई....
पुष्पराज जिस स्तम्भ से बँधा था,धरती का वो भाग रक्तरंजित हो उठा,शाकंभरी सहायता हेतु चीखती रही....चिल्लाती रही किन्तु कोई भी उसकी सहायता हेतु उपस्थित ना हुआ,सभी राजा मोरमुकुट से भयभीत थे इसलिए किसी में भी ये साहस ना हुआ कि वे शाकंभरी की सहायता हेतु उपस्थित हो सकें....
अब राजा मोरमुकुट सिंह अपने पुत्र धूमकेतु से बोला....
प्रिय पुत्र धूमकेतु!अब इसके भ्राता एवं पिता के मृत्युलोक जाने के पश्चात तुम पूर्णतः स्वतन्त्र हो एवं जिस प्रकार भी तुम्हें इस दुस्साहसी शाकंभरी को दण्ड देना हो तो तुम उस प्रकार इसे दण्डित कर सकते हो,चाहें तो अपनी रानी बना लो या इसे राजमहल की राजनर्तकी बना दो,अब ये तुम पर निर्भर करता है....
अपने पिता मोरमुकुट सिंह की आज्ञा सुनकर धूमकेतु बोला.....
जो आदेश पिताश्री! अब तो ये साधारण सी नर्तकी ही बनेगी और वो शाकंभरी का हाथ पकड़कर अपने कक्ष की ओर ले जाने लगा,परन्तु शाकंभरी उसके साथ नहीं जाना चाहती थी इसलिए विरोध करने लगी,शाकंभरी के विरोधाभास के कारण धूमकेतु क्रोध से उत्तेजित हो उठा एवं उसने शाकंभरी के केश पकड़े और उसे घसीटते हुए ले जाने लगा,ये सब शाकंभरी के लिए असहनीय था इसलिए वो स्वयं को छुड़ाने का प्रयास करने लगी एवं वो इसमें सफल भी हुई,स्वयं को छुड़ाने के पश्चात बिना बिलम्ब किए वो एक स्तम्भ की ओर भागी एवं उसने शीघ्रतापूर्वक एक अग्निशलाका को स्तम्भ से निकाला एवं गर्जना की.....
तूने यदि मुझे पुनः स्पर्श किया तो मैं स्वयं को इस अग्नि के सुपुर्द कर दूँगी।।
चल....चल...तू मुझे भयदर्शन(धमकी) दे रही है,तुझमें इतना साहस नहीं है,धूमकेतु बोला।।
तो तू मेरा साहस देखना चाहता है तो देख और इतना कहकर शाकंभरी ने अपने वस्त्रों में अग्नि लगा ली एवं पीड़ा से कराहने लगी,देखते ही देखते उसका शरीर अग्नि में झुलसकर काला पड़ गया था,वो धरती पर गिरकर तड़पती रही परन्तु उसकी सहायता हेतु उसके समीप कोई भी ना आया एवं कुछ समय तक तड़पने के पश्चात उसके प्राण चले गए ,इसके पश्चात उसके मृतक शरीर को राजा मोरमुकुट सिंह ने अपने सैनिकों से वन में छोड़ आने को कहा.....
इतना कहकर मुखिया जी ने एक आह भरी,तब श्रेयांश ने मुखिया जी से पूछा....
फिर राजा मोरमुकुट सिंह और धूमकेतु को उसके कर्मों की सजा नहीं मिली....
मिली ना,शम्भू बोला।।
वो भला कैसे?श्रेयांश ने पूछा।।
तब मुखिया जी बोले.....
फिर उस राजमहल में शाकंभरी की आत्मा भटकने लगी और फिर उसने एक एक करके राजमहल के सभी सदस्यों को मार डाला,अब भी उसकी आत्मा उस महल में भटकती है।।
फिर शम्भू बोला.....
और शायद कभी कभी रात को उसके ही शरीर के जलने की बदबू भी आती है,शायद वही बदबू ही आपने रात को महसूस की होगी....
अच्छा तो ये बात है,श्रेयांश बोला।।
हाँ!चित्रकार बाबू!उसकी आत्मा भी नये लोगों को परेशान करती है,लेकिन कुछ दिन बाद जब आपको पहचानने लगेगी तो परेशान नहीं करेगी,मुखिया जी बोलें।।
इसकी क्या गारण्टी है कि बाद में वो मुझे नहीं सताएगी?श्रेयांश ने पूछा।।
ऐसा ही है जब मैं यहाँ नया नया आया था तो मुझे भी सताती थी लेकिन अब नहीं सताती,शम्भू बोला।।
तो ठीक है अब देखते हैं कि आज रात को क्या होता है ?और इतना कहकर श्रेयांश अपने काम में लग गया...

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....