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नून-तेल

हमारे मुहल्ले वाले दूसरे जन कुन्ती का उसके इसी नाम से जानते हैं मगर वहाँ रहने वाली हम लड़कियाँ उसे एक-एक करके तीन नाम तो दिए ही दिए रहीं: नून-तेल, लिली ओ’ ग्रेडी और इच्च-इच्च।

’नून-तेल’ इसलिए क्योंकि अपने स्कूल के घंटों के बाद वह हमारे साथ खाने-खेलने की बजाय सन्तानविहीन अपने ताऊ के साथ अपने किराने के आटे-दाल और नोन-तेल तौलने और बेचने में लग जाया करती। अपनी उम्र के आठवें ही वर्ष से। जिस वर्ष उसके पिता अभिनेता बनने के चक्कर में उसे, उसकी माँ और दो छोटी बहनों को पुश्तैनी अपनी परचूनी के सहारे छोड़कर मुम्बई चल दिए थे।

’लिली ओ’ ग्रेडी’ नाम उसे हमारे साथ कॉलेज पहुँचने पर मिला था। जब वह मुहल्ले के सुनार के बेटे, अशोक के साथ भाग निकली थी। डेम एडिथ सिटवेल की कविता ’पोपुलर सौंग’ की दो पंक्तियों एवं कुन्ती ही के सौन्दर्य के आधार पर:

 

लिली ओ ग्रेडी

सिली एंड शेडी

लौंगिग टू बी

अ लेज़ी लेडी

श्रेणीकरण में कँवल

बे-अक्ल और बदनाम

लालसा रखती बन जाने की

आलसी कोई उच्च कुलवधू

 

और ’इच्च-इच्च’ हम उसे तब पुकारने लगे थे जब लौट आने के बाद उसके हाथ-पैर खुजली वाले ददोरों से पुनः पुनः पुनः उभरने लगे थे ।

लौटकर उसने बताया था वह मुम्बई गई थी। अपने पिता का पता खोजने के लोभ में। इसी चक्कर में अशोक भी लापता हो गया था और पिता भी उसे कहीं मिले नहीं थे।

इस बार उसके नाम ’इच्च-इच्च’ की बुनियाद मेरी अटकलबाजी रही थी।

यहाँ यह बता दूँ कि इस बीच सपाटे के साथ जहाँ हममें से कुछ लड़कियाँ गृहस्थी जमाने में लग गई थीं और कुछ नौकरी में। मैंने स्थानीय मेडिकल कॉलेज में दाखिला पा लिया था और अपनी पढ़ाई जारी रखी थी। सपाट। कुन्ती की चमड़ी में जब मैंने वे ददोरे देखे थे तो मैंने यही सोचा था वह ’ग्रेन-इच्च’ था। जिसके अंतर्गत पुराने पिसान या गुड़ आदि में पड़ चुकी कुटकी से बारम्बार डसे जाने के कारण शरीर पर ये ददोरे आन प्रकट होते हैं। खुजली के साथ ।

मगर उनका भेद खोला स्वयं कुन्ती ने, जब एक दिन मेरा मोपेड रोककर उसने मुझ पर अपनी चिन्ता प्रकट की, ’’मेरी खाल के ददोरे लगातार बढ़ रहे हैं, खासतौर पर मेरे हाथों और पैरों पर। मेरा गला भी लगातार सूज रहा है। सिर भी बुरी तरह दुखता रहता है और शरीर का एक-एक जोड़ भी। ऐसी थकान मेरे अन्दर आन बैठी है कि अब तो उठते-बैठते ही नहीं बन रहा.....’’

अपनी पढ़ाई के उस तीसरे साल तक पहुँचते-पहुँचते मैं अपने मुहल्ले के लगभग सभी बीमार लोगों के इलाज का बीड़ा उठाने लगी थी। छोटी-मोटी बीमारी तो मैं सैम्पल में आई दवाइयों ही से भगा दिया करती और यदि बीमारी क्रौनिक, चिरकालिन, प्रकृति की होती तो उसका इलाज मैं अपने मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों से कहकर मुफ्त करवा देती ।

’’मेरे साथ चर्म-रोग विभाग में तुम कभी भी चल सकती हो,’’ उसे अपने कॉलेज ले जाने में मैंने कोई बाधा उपस्थित नहीं की।

 

डॉ. सूरतदास हमारे चर्म-रोग विभाग के अध्यक्ष थे।

कुन्ती के ददोरे देखते ही वे बोल उठे, ’’दीज क्युटेनियस लीश्ज़न्ज़ आर नॉट इन्नोसेंट (ये त्वचीय फोड़े अहानिकर नहीं) गेट हर एस.टी.एस.-सिरोलॉजिकल टेस्ट फॉर सिफलिस-डन (इन उपदंश के सीरम सम्बन्धी परीक्षण कराने होंगे).....’’

जाँच के दौरान कुन्ती के ब्लड सीरम में सिम्फ़िलिस रीगिन के साथ ट्रेपोनिमल एन्टीबॉडीज़ पाई गई। सुग्राहित एवं सुस्पष्ट। और ददोरों से रिस रहे पदार्थ में स्पाएरोकेट बैक्टीरिया पाए गए, सक्रिय एवं घातक।

’’सिफ़लिस के किसी रोगी से आपके यौन-सम्बन्ध ने आपको ये संकर दिए हैं। इनके शुरू होते ही आपको हमारे पास आ जाना चाहिए था,’’ रिपोर्ट देखकर डॉ. सूरतदास गम्भीर हो गए।

कुन्ती रोने लगी।

’’मगर घबराइए नहीं,’’ डॉ. सूरतदास ने उसको ढाढ़स बाँधा, ’’हमारे पास समय अभी भी बचा है। इसका यह द्वितीय चरण ही तो है। और यह तो एक तरह से सौभाग्य की बात है जो अब हम इसे इसके तीसरे चरण तक नहीं पहुँचने देंगे। उस चरण में तो फालिज का, जरा का, पागलपन का, हृदय-रोग का और किस-किस बला का सामना न करना पड़ता।’’

तीन वर्ष पूर्व कुन्ती ने अशोक के साथ भागकर यदि अपने अविवेक एवं दुःसाहस का परिचय दिया था तो अब अपने जीवट एवं व्यावहारिक बुद्धि का दृष्टान्त दिया।

जीवट ने उसे किसी के सामने दीन नहीं बनने दिया और व्यावहारिक बुद्धि ने असंगत अपनी स्थिति मेरे अतिरिक्त किसी दूसरे के संग उसे बाँटने से रोक लिया।

परिणाम, आपाती उस समय के दौरान वह डॉ. सूरतदास की कृपापात्र तो बनी ही रही मुहल्ले वालों ने भी उसके प्रति रूखाई नहीं दिखाई।

उस पर समानान्तर चले रहे, एंटी-बायोटिक्स लिये उसके उपचार अन्ततः उसे उसकी व्याधि के पार उतार लाए।

 

पूर्ण स्वास्थ्य-लाभ ग्रहण करने पर कुन्ती ने अपनी परचूनी में नई जुगत सन्निविष्ट की।

उधर के उन कठिन वर्षों में कुन्ती के संग उसकी परचूनी भी लगातार कुम्हलाती रही थी।

ताऊ में शुरू ही से उत्साह और फुर्ती की कमी रही थी, मँझली ने अपनी बी.ए. के बाद स्वयं को क्लर्की में व्यस्त कर रखा था और छोटी वैसे ही दुकान पर बैठने से भय खाती थी।

सच पूछें तो वह परचूनी उस समय केवल अपने अचार और मसालों ही के बल पर साँस लेती रही थी। दुकान के ऊपर बने उनके मकान के अंदर से, जो कुन्ती की माँ और ताई अपने हाथों तैयार किया करती। विरले वे अचार क्या थे मानो परिरक्षित सब्जियाँ। बहुधा परिवार तो उनके बिना भोजन को सम्पूरित ही न मानते। और कुछ परिवार तो ऐसे थे जो उनसे सब्जी ही का काम ले लिया करते। सभी कहते, ’हींग और तेल का मसालों के साथ ऐसा मेल तो हमसे मिलाए नहीं बनता।’ इसी प्रकार विभिन्न व्यंजनों के लिए विशिष्ट मसालों के उनके पैकेट मुहल्ले के घर-घर में प्रयोग किए जाते थे। सभी जानते थे वे कितनी मेहनत तथा ईमानदारी के साथ चीजें साफ करने के बाद स्वयं उन्हें अपने हाथों से सान पर पीसती थीं: जावित्री और जायफल क्या, अजवायन और सफेद-स्याह जीरे क्या, अनारदाना और पीपली क्या, सौंफ और कलौंजी क्या, मेथी-बीज और अमचूर क्या।

माँ और ताई के ये अचार अब कुन्ती उनके पुराने, खुले मरतबानों से निकालकर नई, छोटी, मोहरबन्द बोतलों में ले आई। ’नून-तेल’ के नाम से। अंकित मूल्य के साथ। खुले बाजार में। उसने जैसे ही उन्हें मुहल्ले के बाहर दूसरे किरानों पर पहुँचाना शुरू किया, उनकी माँग तेजी से बढ़ ली। और देखते-देखते ’नून-तेल’ एक लोकप्रिय ब्राँड बन गया। जिसका कुन्ती ने भरपूर लाभ उठाया।

अपना लक्ष्य-क्षेत्र और विस्तृत कर लिया। अंशों के भेद दिखलाने हेतु उन्हें चिह्मित कर परचूनी के मसालों की छपे हुए पैकेटों में भराई शुरू कर दी और उन पैकेटों के ऊपर भी छाप वही रखी- ’नून-तेल’।

हमारे शहर के लिए कुन्ती की यह व्यापारिक युक्ति भी सामरिक महत्त्व वाली सिद्ध हुई। जब राजमा, दाल मक्खनी, करेला, बैंगन, शाही पनीर, छोला, सांबर और पावभाजी आदि के अलग-अलग मसाले उपभोक्ताओं की निगाह में उतरे, तो फिर वे निगाह में चढ़ने भी लगे। तेजी से।

और सन् पचानवे के आते-आते कुन्ती की ’क्रेडिट वर्दिनेस’- ऋण लेने की योग्यता-और आर्थिक क्षमता उसकी परचूनी को शहर के सबसे बड़े व्यावसायिक केन्द्र की महाकाय एक दुकान में खिसका लाई।

उस दुकान का नाम भी कुन्ती ने वही रखा-’नून-तेल’।

इस नई दुकान के शेल्फों पर उसने उन उत्पादनों को भी स्थान दिया जो विदेशों से इधर भेजे जा रहे थे। प्रतिस्पर्द्धी श्रेष्ठता पाने हेतु।

आगामी वर्ष नई उपभोज्य वस्तुएँ लेते आए: खाद्य सामग्री में भाँति-भाँति के पनीर धान्य और दलिये; प्रसाधन-सामग्री में तरह-तरह के साबुन, होठों, गालों और बालों के लिए नए आभाभेद शैम्पू, क्रीम इत्यादि।

और गिनती में लगातार गुणा हो रहे कुन्ती के ग्राहक-गण वही सब चाहने लगे, वही सब माँगने लगे।

उनके संग अपनी पारस्परिकता बनाए रखने हेतु कुन्ती का केन्द्र भी वही और मँगाने लगा, बेचने लगा।

 

विदेशी आयातित वस्तुओं के अग्रदूत के रूप में आज कुन्ती के ’नून-तेल’ ही को जाना-पहचाना जाता है।

उसके ताऊ अब रहे नहीं, अशोक और उसके पिता आज भी लापता हैं, दोनों बहनें अपनी-अपनी गृहस्थी में निमग्न हैं ।

और सैंतालीस वर्ष की अपनी इस आयु में पति-विषयक अपनी स्थिति वह यथापूर्व बनाए हुए है: आज भी अविवाहिता है। अपनी माँ और ताई के साथ शहर के नए आवासीय क्षेत्र के एक फ्लैट में रहती है। वे दोनों अचार और मसाले अब नहीं बनाती हैं और न ही बनवाती हैं ।

कारण, कुन्ती की दुकान में अब वे अपना स्थान खो चुके हैं। बल्कि एक साक्षात्कार में उससे प्रश्नकर्त्री ने पूछा भी, ’’वही अचार जिनके बूते पर आपकी व्यापारिक सफलता का सूत्रपात हुआ वही अब आप रखती भी नहीं। क्यों ?’’

’’क्योंकि तेल से सने उन अचारों के दिन अब लद गए। यह जमाना हेल्थ-फूड्ज़ का जमाना है। आजकल लोग अपनी सब्जियों को तेल में उछालते भर हैं। छौंकते-तलते तक नहीं। और तेल भी कैसा ? विदेश से आयातित। और सब्जियाँ भी वे जो विदेशी बीजों से विशुद्ध देशी खाद में उगाई गई हों-ऑरगेनिक वेजिटेबल्ज़-जैविक सब्जियाँ....’’ कुन्ती हँस दी थी।

किन्तु यह पूछने पर कि दुकान का नाम भी वह उसके नए स्वभाव के अनुरूप अब बदल क्यों नहीं देती, कुन्ती विनोदी हो उठी थी, ’’इसका नाम मैं कभी नहीं बदलने वाली। मेरे स्कूल के दिनों में मेरी मुहल्लेवालियाँ मुझे इसी नाम से पुकारा करती थीं: नून-तेल।’’

मैं नहीं जानती हमारे दिए हुए अपने दूसरे दो नामों से कुन्ती परिचित है भी या नहीं मगर इतना जरूर जानती हँ. आज वे दोनों उस पर ठीक नहीं बैठेंगे ।

आज की कुन्ती ’लिली ओ ग्रेडी’ और इच्च-इच्च’ की अपनी उन पुरानी छवियों को बहुत पीछे छोड़ आई है।

 

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