त्रिशूल મહેશ ઠાકર द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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त्रिशूल

#त्रिशूल

जिसे पश्चिम में कहा गया '#ट्राइडेंट'।

ग्रीक पौराणिक इतिहास के अनुसार यह ग्रीक देवता '#पोसाइडन' का हथियार है जो हिंदुओं के वरुण देव के तुल्य देवता है।

लेकिन #वरुणदेव का शस्त्र त्रिशूल नहीं है, उनका शस्त्र तो है 'पाश'- '#वरुण_पाश'। लेकिन वास्तव में यह किसी शस्त्र से अधिक उनका प्रतीक अधिक है जो '#ऋत' का संचालन अचूक रूप से करता है।

लेकिन जहाँ तक त्रिशूल का प्रश्न है भारत का बच्चा बच्चा जानता है कि त्रिशूल किसका शस्त्र है।

विज्ञान व संस्कृति की अनेकों शाखाओं की भांति युद्धशास्त्र व अस्त्र-शस्त्र अभियांत्रिकी के जनक महारुद्र और उनके रौद्र तेज को धारण करने वाली शिवा के अलावा और कौन त्रिशूल जैसा अद्भुत शस्त्र धारण कर सकता है।

पर इसे बनाया किसने?

अधिकांश पुराण कहते हैं कि वसुओं के वंश में जन्में '#विश्वकर्मा' ने दामाद सूर्य को खरादकर उनके आठवें अंश के तेज से इस खतरनाक हथियार का निर्माण किया जबकि कुछ के अनुसार महारुद्र शिव ने स्वयं इसका निर्माण किया।

निर्माण जिसने भी किया हो लेकिन इस शस्त्र को ध्यान से देखें तो यह इतनी विशेषताएं लिये है कि दाँतों तले उंगली दबानी पड़ती है।

प्रसिद्ध साहित्यकार स्व. नरेन्द्र कोहली जी श्रीराम के मुख से इसकी घातकता का वर्णन करवाते हैं-

"महादेव शिव के लौकिक अस्त्र शस्त्र भी अद्भुत हैं। यह अकेला त्रिशूल एक साथ तीन शूलों व दो खड्गों का कार्य करता है। यह तीन शूलों के रूप में माँस में धँसता है, दो खड्गों की भांति माँसपेशियों को काटता है और वापस खींचने पर तंतुओं को बाहर ले आता है।"

वस्तुतः इसकी पीछे की ओर का झुकाव वाली गांठें बाणों की तरह भी काम करती हैं जो अस्थि, नसों व तंत्रिकाओं को बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर देती हैं।

पर त्रिशूल सिर्फ तीन शस्त्रों का संयोजन नहीं था बल्कि इसे 'परशु', की भाँति घुमाकर slicing भी की जा सकती थी।

केवल इतना ही नहीं इसे फैंककर 'अस्त्र' की भांति भी प्रयोग किया जा सकता है। यानि प्रयोग चाहे जैसे करें लेकिन त्रिशूल के शरीर में धँस जाने पर मृत्यु तय होती थी।

सोचकर देखिये जब इसे बनाया गया होगा तो निर्माता के मस्तिष्क में क्या चल रहा होगा? क्या वे दो चाकुओं को एक भाले के दोंनों ओर जोड़ रहे थे या दो परशुओं के बीच एक शूल जोड़ रहे थे? या फिर बहुत चौड़ी फलक की एक तलवार के बीच के अनावश्यक हिस्सों को काटकर वजन कम करते समय बीच में एक नोंकदार शूल और दोंनों ओर बाहर की ओर धारदार दो चाकू और नीचे झुकी गांठों के रूप में दो बाण एक साथ एक ही अक्ष पर उपस्थित हो गये।

पर एक ही सवाल बार बार उठता है कि इतने घातक शस्त्र का प्रयोग प्राचीन भारत की सेनाओं ने क्यों नहीं किया?

इस स्पष्ट सवाल के दो ही संभावित उत्तर हैं कि एक तो त्रिशूल को उचित तरीके से प्रयोग करने की तकनीक हर किसी के पास नहीं थी क्योंकि हर कोई महादेव की भांति तो त्रिशूल संचालन नहीं ही कर सकता था।

दूसरा कारण है कि त्रिशूल बड़ी सेनाओं के विकास से पूर्व खुले मैदान में वन टू वन कॉम्बेट में हेतु ही उपयोगी था जिसमें घुमाने के लिये एक वृत्ताकार क्षेत्र की आवश्यकता होती थी न कि अश्वारोहियों व हाथियों से बनी बड़ी सेनाओं की मोर्चेबंदी वाले युद्धों में जिनमें #thrusting_weapon ज्यादा उपयोगी थे अतः भाले ने उसकी जगह ले ली जो घोंपने व फैंककर अस्त्र के रूप में भी उपयोगी था।

दक्षिण पूर्वी एशिया व चीन में इसके परिवर्तित रुपों का प्रयोग मार्शल आर्ट्स व कुछ हद तक सेना में भी किया गया। लेकिन भारत में प्रथम द्वितीय शताब्दी ईसापूर्व की गांधार कला की त्रिशूल धारी मूर्ति के अलावा त्रिशूल का अंकन सिर्फ धार्मिक प्रतीक के रूप में मंदिरों तक सीमित है। बड़े पैमाने पर त्रिशूल धारी बटालियनों का उल्लेख नहीं मिलता, यहाँ तक कि मौर्य व गुप्त जैसे प्रतापी साम्राज्यों के अभिलेखों व चित्रों में भी नहीं।

यही कारण है कि त्रिशूल की सैन्यउपस्थिति कुछ मूर्तियों में, सिक्कों में शिव के प्रतीकरूप में व मंदिरों व साधुओं के हाथों तक सीमित होकर रह गई।