मूलपूंजी - भाग दो Shwet Kumar Sinha द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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मूलपूंजी - भाग दो

...“टिकट दिखाइए? रो क्यूं रहे हैं? कोई परेशानी है तो मुझे बताएं?” – टीटीई ने सहानुभूति से कहा। पर जीवन के पचास बसंत देख चुके उन दम्पत्ति यात्री के आंसू न थमे। पहले तो लक्ष्मण को लगा कि बिना टिकट यात्रा करने और पकडे जाने की वजह से वे दोनों रो पडे। लेकिन जब उन्होने अपना टिकट निकालकर आगे बढाया तो रोने की असली वजह पल्ले नहीं पडी। लक्ष्मण ने भी फिर उन्हे ज्यादा कुरेदना ठीक नहीं समझा और उन्हे उनकी हाल पर छोड दूसरी तरफ मुड गया।
उधर डिब्बे के दूसरे छोर पर यात्रा कर रहे वृद्ध प्रकाश लाल और बच्चा रौशन पास की सीटों पर मौजुद भरे-पूरे परिवार के बीच शांतचित्त बैठे थे। कुछ देर बाद रौशन ने इशारे से प्रकाश लाल को भूख लगने की बात बतायी तो साथ लाए भोजन में से थोड़ा-सा खाना उसे खिला दिया। पर पूरी यात्रा के दौरान खुद अनाज का एक निवाला भी अपने मुंह में नहीं डाला। खाने के पश्चात जब बच्चा ऊँघने लगा तो उसे सुलाकर खुद उसके सिराहने बैठ गये। साथ में सफर कर रहे परिवार में से सामने की सीट पर बैठी महिला ने प्रकाश लाल को शांत बैठा देख आखिरकार पूछ ही लिया – “बाबा, बुरा न माने तो एक बात पुछूं?”
अपना सिर हिलाकर प्रकाश लाल ने धीरे से कहा – “पुछो!”
“इतनी देर से मैं देख रही हूँ आप एकदम शांत बैठे हैं। बस....नीचे रखे संदूक को थोड़ी-थोड़ी देर पर निहारते हैं। ये बच्चा भी कुछ बात नहीं करता। फिर आपने कुछ खाया भी नहीं! सब ठीक तो है न बाबा?” – सामने बैठी महिला यात्री ने पुछा, जिसके गोद में उसके दोनों बच्चे अपना सिर टिकाकर लेटे थे और उनके कंधों को थपथपाकर वह उन्हे सुलाने का प्रयास कर रही थी।
“सब ठीक है।” – भावहीन प्रकाश लाल ने कहा फिर सीट के नीचे रखे संदूक पर निगाह डाली तो आँखें जैसे किसी अंजान आस से फैल गई और एक फीकी-सी मुस्कान चेहरे पर उभरी मानो अपना सबकुछ उस सन्दूक में बटोरे सफर कर रहा हो। महिला ने भी एक नज़र संदूक पर डाली फिर प्रकाश लाल के सुर्ख चेहरे पर। असमंजस में उसने फिर ज्यादा पुछमात करना सही न समझा और धीमे स्वर में लोरी गुनगुनाकर अपने नौनिहालों को सुलाने लगी।
रात के बारह बजने को आए थे और डिब्बे के सभी यात्री सो चुके थे। अंधेरे को चीरती ट्रेन अपने रफ्तार में गंतव्य की तरफ बढ़ी जा रही थी। सारे कामों से निपटकर टीटीई लक्ष्मण भी अपनी सीट पर आकर बैठ गया और टिफ़िन खोल पेटपूजा में तल्लीन हो गया। बीच-बीच में चहलकदमी करते रेलवे पुलिस के जवान यात्रियों की सुरक्षा को आश्वस्त कर रहे थे। खाने से निपटकर लक्ष्मण अपनी सीट पर बैठा थोडी देर सुस्ताने लगा। डिब्बे की सारी सीटें भरी थी और उसके सभी दरवाजे भीतर से बंद किए हुए थे ताकि कोई अवांछित प्रवेश न कर सके।
तभी बुजुर्ग प्रकाश लाल टॉयलेट जाने के लिए अपनी सीट से उठा। एक नज़र उसने सीट पर लेटे रौशन पर डाली जो गहरी नींद में था। प्यार से उसके सिर पर हाथ फिरा फिर सीट के नीचे रखे संदूक की जांच की जो सही-सलामत पडी थी। आसपास की सीटों पर सोए यात्रियों की तरफ निगाह घुमायी तो सभी घोड़े बेचकर सोते दिखे। निश्चिंत होकर वह टॉयलेट की तरफ बढ़ गया। रास्ते में दरवाजे के समीप वाली साईड लोअर सीट पर टीटीई पाँव फैलाए ऊँघता दिखा।
चंद मिनटों बाद लघूशंका से निवृत होकर वह वापस अपनी सीट पर पहुंचा तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गई। अगले ही पल उसके चीखने-चिल्लाने से डिब्बे में फैली शांति कोलाहल में तब्दील हो गई। चीख-पुकार सुन आसपास की सीटों पर सोए यात्री भी जाग गये। शोरगुल सुन टीटीई लक्ष्मण और रेलवे के सुरक्षा जवान भी भागे-भागे उसके सीट पर पहुंचे।
प्रकाश लाल अभी भी गला फाड-फाडकर चिल्ला रहा था और पागलों की भांति इधर-उधर कुछ तलाशने में लगा था। इस कोलाहल से बारह वर्षीय रौशन भी जाग चुका था और फूट-फूटकर रोने लगा था।
“क्या हुआ? इतना शोरगुल क्यूँ है? आं??” – टीटीई लक्ष्मण ने पूछा और वहाँ भीड़ लगाए यात्रियों से अपने सीट पर जाने के निवेदन किया।
“हूह....हूह!! साब....मेरी सन्दूक!” – अपनी सीट के नीचे इशारा कर वृद्ध प्रकाश लाल कलपता हुआ बोला।
“हाँ, क्या हुआ सन्दूक को?”- टीटीई के साथ खडे रेलवे पुलिस के एक जवान ने पुछा।
“साब....यहीं रखी थी मेरी सन्दूक! लेकिन अब नहीं है! किसी ने...चुरा लिया। हूह.....हूह...!!!”- बताकर प्रकाश लाल दहाड़ मारकर रोने लगा।
टीटीई ने सीट के नीचे झाँका तो सच में सन्दूक अपनी जगह से नदारद थी। सामने की सीट पर बैठी महिला ने बताया– “हाँ सर, बाबा सही कह रहे हैं। यहीं सीट के नीचे रखी थी इनकी सन्दूक। मैंने देखा था ये सारे रास्ते उसकी निगरानी करते आ रहे थे। पर न जाने अचानक कहाँ गायब हो गया!” टीटीई लक्ष्मण को भी फिर ध्यान आया कि उसने भी कई बार प्रकाश लाल को झुंक-झुंककर सन्दूक की रखवाली करते पाया था।
“इतना क्यूँ रो रहे हो? ऐसा क्या था...उस सन्दूक में??” – आगे बढ़कर एक जवान ने प्रकाश लाल से पूछा।
“म...मेरी ज़िंदगी की सारी मूलपूंजी थी....उस सन्दूक में, साहब! किसी ने चुराकर मुझे कंगाल कर डाला!! बहूह....हूह!!!” – प्रकाश लाल ने बिलखते हुए कहा।

क्रमशः...