भाग - ३ ( अन्तिम भाग )
मालगाड़ी को रुके कुछ देर हो चुकी थी, लेकिन डिब्बे के भीतर की शून्यता शायद विनोद के दिमाग में भी फैल गई थी । इसीलिए झटके और धक्कों का थम जाना वह तुरन्त भाँप नहीं पाया । लेकिन अगले ही क्षण वह खड़ा हो गया । उसकी सभी इन्द्रियाँ सतर्क हो चुकी थीं । बाहर काफ़ी रोशनी थी । ज़रूर कोई स्टेशन आया होगा । लेकिन क्वारीसाइडिंग के बाद इतना बड़ा स्टेशन तो राउरकेला का ही था । तो क्या वह वापस राउरकेला पहुँच चुका था ? मालूम करने का एक ही तरीक़ा था, बाहर निकल कर । डिब्बे की दीवार तो बहुत ऊँची थी और वह पहले दो बार नाकाम हो चुका था । अब ? तब उसे सूझा कि इससे पहले तो मालगाड़ी चल रही थी, सो धक्के-झटकों की वजह से गिर गया होगा । रोशनी में अब डिब्बे का ऊपरी सिरा स्पष्ट दीख रहा था । वह चार कदम पीछे गया, फिर दौड़ते हुए एक पाँव दीवार पर चढ़ा कर पूरे शरीर को ऊपर फेंका । उसके तीन नाखून ऊपरी कोर पे रगड़ कर टूट गए, एक पूरा उखड़ गया, घुटने छिल गए और वह ज़ोर से नीचे गिरा । दर्द की एक लहर पाँव से शुरू हुई तो कौंधती हुई जाकर खोपड़ी को भेद गई । पाँच मिनट तक वह यूँ ही पड़ा रहा । चिल्ला कर मदद माँगने को जी चाहा । लेकिन सोचा, कौन सुनेगा, कौन आएगा ? और अगर कोई आएगा भी, तो रेलवे का ही मुलाज़िम होगा । शायद आर.पी.एफ. ( रेलवे सुरक्षा बल ) वाला ! तो वो सबसे पहले उससे यही पूछेगा कि ' यहाँ क्या कर रहे हो ? ' फिर उसे पकड़ कर ले जाएगा । आख़िर मालगाड़ी में सफ़र करना ' दण्डनीय अपराध ' ही होता है । उसके बाद ? भारतीय संविधान और रेलवे अधिनियमों की धारा फलां-फलां के तहत दो हज़ार रुपए जुर्माना और / या छः महीने का कारावास ! विनोद सिहर उठा । उसके बाबूजी तो सिनेमा के लिए ढाई रुपए देने से कुड़बुड़ाते थे, दो हज़ार वो क्यों और कहाँ से लाएँगे ? तो फिर जेल ? नहीं बेटा नहीं, विनोद की अन्तःप्रज्ञा ने उसे सचेत किया । ऐसी बेवकूफ़ी मत करना । कोई तो रास्ता होगा .... । तब उसने ठण्डे दिमाग से डिब्बे की दीवार का निरीक्षण किया । दीवार की सम्पूर्ण भीतरी परिधि पर निचले तल से करीब तीन फुट की ऊँचाई पर लोहे का बना एक कगार-सा था, पतला, करीब दो इंच बाहर को निकला हुआ । विनोद को लगा कि इसका इस्तेमाल किया जा सकता है । उसने अनुमान लगाया कि दौड़ कर छलाँग लगाई जाए, और एक पाँव इस कगार पर टिका कर शरीर को ऊपर फेंकने से ऊपरी सिरा ज़रूर हाथ आ जाएगा । उसने छः कदम पीछे लिए, अपनी प्रिय घड़ी उतार कर जेब में डाली और पूरी तेज़ी से दौड़कर झपटा । विज्ञान में हम सीखते हैं, सिद्धान्त और प्रयोग में बहुत अन्तर होता है । विनोद ऐसे गिरा कि उसे लगा कि इस बार तो मर ही गया होगा । खै़र, मनमौजी इंसान जीवन की शिक्षा भी जीवन से ही लेता है । पाँचवें प्रयास में वह सफल हुआ । अब डिब्बे की दीवार की ऊपरी कोर को पकड़कर लटक रहा था । लेकिन अन्तिम संघर्ष अभी बाक़ी था । यानी, सिर्फ़ बाज़ुओं की ताक़त से पूरे शरीर को ऊपर खींच कर दीवार को लाँघना । उसके पूरे बदन में असहनीय पीड़ा थी और हाथ तो शिथिल पड़ गए थे । लेकिन यहाँ तक आकर नाकाम होने की गुंजाइश ही नहीं थी । सो उसने पैरों के पंजों को दीवार पर खरोंचते हुए माँस और हड्डी का ही नहीं, बल्कि मज्जे तक का ज़ोर लगा दिया और ऊपर पहुँच गया । कुछ देर दीवार की पतली-सी कोर पर बैठा, साँसों को काबू किया, फिर बाहरी सीढ़ी के रास्ते नीचे उतर आया । जैसे ही पाँव ज़मीन पर पड़े, उसे आभास हुआ कि धरती को माँ क्यों कहते हैं ! इस वक़्त उसे वह कंकरीली ज़मीन माँ के आँचल की ही तरह लग रही थी..., त्राणक, कोमल और ममतामय । फिर उसने अपनी गुदड़ी बन चुकी हुई पतलून को ऊपर खींचकर देखा, दोनों घुटने बुरी तरह छिल गए थे, बाएँ टखने में भारी सूजन शुरू हो चुकी थी, और हथेलियाँ रक्तसिक्त थीं । तो क्या हुआ, विनोद सोचने लगा, पिंजरे से छूट निकले । जान बची, लाखों पाए ... ।
चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई । हाँ, राउरकेला स्टेशन ही था । उसे किसी फिल्म के संवाद की एक पंक्ति याद आ गई, ' जिस मिट्टी से निकले हो, उसी मिट्टी में मिल जाओगे ! ' हँसी आई, कि हक़ीक़त भी ऐसी ही है । तो अब क्या करे ? स्टेशन पर सुबह तक ठहरने का कोई मतलब ही नहीं बनता था । क्वारीसाइडिंग जाने की अगली पसींजर गाड़ी तो दोपहर दो बजे निकलती थी । इसलिए अब पटरियों के रास्ते वापस जाने में ही समझदारी थी । विनोद ने सोचा, यही काम पहले कर लिया होता तो इतनी यातना सहना न पड़ती । खै़र, अगली बार सही ! उसने नज़र उठाकर देखा, सामने रेलवे की केबिन पर ' राउरकेला ' क ' के नीचे लिखा था, " सावधानी हटी, दुर्घटना घटी "...... । विनोद और हँसने लग गया । जेब से घड़ी निकाली और दाहिनी कलाई पे चढ़ाई । देखा, १.३० बजे थे । अब तक तो वह डर, आशंका और समय की सीमाओं को पार कर चुका था । सो, क्वारीसाइडिंग की ओर रुख़ किया, बालों को झटक कर दाहिने हाथ से सँवारा और बाज़ुओं को फेंकते हुए चल पड़ा ।
.......
सत्यनारायण जी लाल-पीले हो-हो कर नीले भी पड़ चुके थे । जब से उनकी पत्नी ने बताया कि विनोद पसींजर गाड़ी से गया है, तब से वे क्वारीसाइडिंग स्टेशन के अनगिनत चक्कर काट चुके थे । मंजू ने रोका भी, यह कह कर, कि, " बाबूजी, ट्रेन तो आकर जा भी चुकी है, विनोद स्टेशन तक पहुँच गया होगा, तो घर आ ही जाएगा । आप क्यों बार-बार जा रहे हैं देखने ? " ये तो ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे की बात थी । अब घर की बैठक की दीवार पर लगी घड़ी ने बारह घंटियाँ बजाना शुरू कर दी । और सत्यनारायण जी के मस्तिष्क का ज्वालामुखी फूट पड़ा ।
" अरे कमबख़्त कहाँ मर गया ? " वे सब पर चिल्लाए । उस समय वहाँ उनकी पत्नी और मंजू के अलावा उनकी छोटी बेटी पुष्पा भी थी । विनोद से ढाई बरस छोटी, लेकिन उसी की अनुकृति । शरीर का रंग गेहुआँ और मन अति चंचल और उतावला । अपनी मंजू दीदी को पीछे से बाँहों में घेरे, उसके कन्धे पे ठोड़ी टिका कर खिखियाए जा रही थी । और मंजू उसे चुप कराए जा रही थी । छोटा बेटा अन्दर सो रहा था ।
" कैसी बात कर रहे हैं आप, ये मरने-मारने की ? " उनकी पत्नी ने कर्ण-भेदी ध्वनि से प्रतिघात किया । दोनों के स्वर अब पूरी तरह से एकताल हो गए थे ।
" और नहीं तो क्या ? तुमने उसको ऐसे सर चढ़ा रखा है कि एक नम्बर का मस्तीख़ोर बन चुका है । पढ़ाई-लिखाई की फ़िक्र तो कभी थी ही नहीं, अब घर का रास्ता भी भूल गया है । "
" अरे, तो यहाँ खड़े शेषनाग की तरह काहे को फुफकार रहे हैं आप ? कुछ कीजिए । पड़ोस वाले कम्पाउंडर से बात कीजिए । "
" कौन ? टी.के.राव ? वो अधमरा ? वो क्या मदद करेगा ? वो तो ख़ुद मरीज़ लगता है । पता नहीं, कम्पाउंडर कैसे बन गया ! "
पुष्पा फिर से खिखियाई, और इस दिशाहीन बहस को सुनते हुए मंजू को लगा कि अब उसे ही कुछ करना होगा । " बाबूजी, पिछले महीने मैनेजर बंगले वाला कुत्ता भाग गया था, तो सेक्यूरिटी की जीप पूरी रात दौड़ी थी ढूँढ़ने के लिए । हम भी कोशिश कर लेते हैं । "
" अरे वो तो मैनेजर लोग हैं । उनके आगे-पीछे तो पूरा टाउनशिप भागता है । हमें कौन पूछेगा ...? " सत्यनारायण जी ने सामाजिक असमानता पर अपनी विवेकपूर्ण टिप्पणी दी । घूमकर मंजू की ओर देखा तो वो अपनी गहरी आँखों से उन्हें देखे जा रही थी । ' बिल्कुल अपनी दादी पर गई है, ' सत्यनारायण जी को लगता था, कि अपनी बात कह देने के बाद शान्त रहती है, इस विश्वास के साथ कि उसकी बात में तथ्य है, तर्क है, व्यावहारिक उपयोगिता है ।
अब सत्यनारायण जी ने साइकिल निकाली और सेक्यूरिटी ऑफिसर के घर गए । झिझकते हुए पूरी बात सुनाई । उनकी प्रतिक्रिया पर सत्यनारायण जी को विश्वास ही नहीं हुआ । " सत्यनारायण जी, अब तक क्यों नहीं बताया आपने ? आपका बेटा, जैसे पूरे टाउनशिप का बेटा... । रुकिए, अभी जीप बुलवाता हूँ । साथ में एक सिपाही होगा । आप राउरकेला स्टेशन तक जाकर ढूँढ़ आइए । "
सत्यनारायण जी जैसे गठियाए हुए आदमी की भी आँख में एक आँसू छलक आया । वे आभार प्रकट करते हुए बाहर आ गए । कुछ ही देर में जीप आ गई । साइकिल को उसमें चढ़ा कर वे भी उसमें बैठकर घर आए ।
" बाबूजी, सँभल के । " मंजू ने चाय से भरा थर्मस फ्लास्क थमाते हुए कहा, तो सत्यनारायण जी ने साइकिल उतारी और अपनी बेटी के माथे को सहलाया । " बिटिया, अपनी माँ को सम्भालो, बहुत तनाव में है वो । " और निकल पड़े ।
तीन आदमी थे जीप में, ड्राईवर, एक सिपाही, और सत्यनारायण जी ख़ुद । और दो बड़े टॉर्च-लाइट, एलुमिनियम के बने, जिनके अन्दर चार-चार बैटरियाँ डलती थीं, और जिनकी रोशनी की फेंक कम से कम बीस फूट दूर तक बहुत तेज़ पड़ती थी । स्टेशन पहुँचने की जल्दी थी, सो रघुनाथपल्ली वाले छोटे रास्ते से निकल पड़े । सड़क के दोनों तरफ़ ढूँढ़ते हुए बढ़ने लगे । कस्बा तो मामूली-सा लेकिन घनी आबादी वाला था, पर न बत्तियों वाले खम्भे थे, न घरों से छनती हुई कोई ज्योति, और न ही कोई आदमी । घोर अँधेरा, चारों तरफ़ सन्नाटा । एक-आध ट्रक तेज़ी से गुज़र जाता तो इन्हीं को अपनी जीप उस संकीर्ण सड़क से नीचे उतारनी पड़ जाती । रास्ते में पुलिस का एक दस्ता मिला, तो उनके पूछने पर सत्यनारायण जी ने सच बताया तो ज़रूर, लेकिन बात और आगे बढ़ने न दी । वे केस दर्ज करके पुलिस और अफवाहों का झँझट नहीं पालना चाहते थे । इसी तरह ढूँढ़ते हुए राउरकेला स्टेशन पहुँच गए । जीप वहाँ रोक कर पहले अप्सरा टॉकीज़ में पूछताछ की । उन लोगों को कुछ मालूम नहीं था । रात का शो भी कब का छूट चुका था । फिर रेलवे स्टेशन में एक-एक प्लॅटफार्म पर ढूँढ़ा, एक-एक चाय वाले से पूछा, पूछताछ-केन्द्र में भी पता किया और आख़िर घबरा कर आर.पी.एफ. वालों के पास विनोद का नाम, हुलिया और घर का पता लिखाकर वापस जीप में आ बैठे । सत्यनारायण जी ने घड़ी देखी, १.३० बजे थे । उन्हें कहाँ मालूम था कि ठीक उसी वक़्त, उनसे तीन सौ मीटर दूर, विनोद अपने ज़ख़्मी शरीर और अलमस्त जियरा को लेकर पटरियों के साथ चलता हुआ निकल पड़ा था, घर की ओर..... ।
अब सत्यनारायण जी को लगा कि स्टेशन के और चक्कर काटने से कोई फायदा नहीं । कुछ देर सोचने पर उनको याद आया कि वहाँ के औद्योगिकी क्षेत्र में देर रात को कभी-कभार लड़के शराब पीकर हुल्लड़दंग मचाते हुए पकड़े जाते थे । तो क्या विनोद भी..... ? हो सकता है, सत्यनारायण जी ने सोचा, चलो देख लेते हैं । उन्होंने ड्राईवर से जीप को उस तरफ़ दौड़ाने को कहा । वहाँ पहुँचे, तो चुप्पी और निर्जनता के सिवा कुछ न था । अब उन्होंने जीप को और रोकना मुनासिब नहीं समझा और दूसरे रास्ते से वापस चल पड़े । यह रिंग रोड की लम्बी सड़क थी, जिसके दोनों तरफ़ राउरकेला इस्पात कारखाने के कर्मचारियों के लिए घर बने हुए थे । वैसे, बाग़-बगीचे और खुली ज़मीन ज़्यादा थी । जहाँ रिंग रोड ख़त्म होती थी, वहाँ से कच्ची सड़क शुरू होती थी । ड्राईवर ने जीप रोकी । यह बहुत ख़तरनाक इलाका था, वीरान, अँधियारा, दूर-दूर तक कोई घर नहीं, कोई मानव-चिह्न नहीं । सड़क के दोनों तरफ़ जितनी भी दूर नज़र दौड़ाई जाए, सिर्फ़ मिट्टी और कंकर । कोई चट्टान या पत्थर भी नहीं । और न ही कोई पेड़, न घास का एक तिनका । जीप में बैठा सिपाही भी एक बार थरथरा गया । " साहब, वो जो घर से चाय लाये हैं आप, थोड़ी-सी पी लें क्या ? " सत्यनारायण जी को गुस्सा आया, कि यहाँ वे अपने बेटे के लिए छटपटा रहे हैं, और इस आदमी को चाय सूझ रही है । फिर उन्होंने उस सिपाही को ग़ौर से देखा, कोई २३-२४ साल का लड़का रहा होगा । उनको तरस आ गया । और ख़ुद भी कुछ कँपकँपी महसूस हुई । तब थर्मस फ्लास्क से तीनों ने गर्म चाय पी, तो बदन में स्फूर्ति लौट आई और खौफ़ कुछ जाता रहा ।
जीप धीरे से आगे बढ़ी । सत्यनारायण जी उस वीराने में आशातीत आशा बाँधे हुए, अपने बेटे को ढूँढ़ते रहे, भगवान् से प्रार्थना करते रहे, मनौतियाँ गढ़ते रहे..... । और रह-रह कर यह ख़याल भी सताता रहा कि अगर दोपहर में ही पैसे दे दिए होते तो नालायक मैटिनी शो देखकर शाम को ही लौट चुका होता, और वे रात के तीसरे पहर में इस तरह बखेड़ा गले में लटकाए भटक न रहे होते । अब हर सौ मीटर के बाद जीप को रुकवा कर चारों ओर टॉर्च का फोकस मारे जा रहे थे । कितना समय गुज़र गया, उन्हें ध्यान ही न रहा । अब तक उनका तन-मन लथपथ हो चुका था, पसीने से, घबराहट से, खीझ से, गुस्से से..... । आख़िर थक-हारकर उन्होंने ड्राईवर से वापस घर पहुँचाने को कह दिया ।
क्वारीसाइडिंग की बत्तियाँ दिखीं, तो सत्यनारायण जी ने अपनी घड़ी पर नज़र डाली । ४.३० बज गए थे । जीप को डोलोमाइट की खान की ओर जाना था, सो सत्यनारायण जी वहीं उतर गए और घर तक के अन्तिम सौ मीटर भारी कदमों से तय करने लगे । नज़दीक पहुँचे, तो घर के बाहर कुछ भीड़ जमी हुई थी और बाहर एम्बुलेंस वाली गाड़ी भी थी । सत्यनारायण जी का मन डूबने लगा । जिस अनहोनी के बारे में सोच-सोच कर वे पिछले छः घण्टों से काँप रहे थे, अब उसके संकेत देखकर उनका दिल रो बैठा । वे भीड़ को छाँटते हुए, उद्भ्रान्त-से, दरवाज़े की ओर बढ़ने लगे तो सभी उनकी तरफ़ करुणा और सहानुभूति से देख रहे थे । अब तो सत्यनारायण जी को विश्वास हो गया कि त्रासदी टूट पड़ी है......, विनोद उन सबको हमेशा के लिए छोड़कर जा चुका है......। " हाय, कैसे अभागे हो ? " उनकी अन्तरात्मा ने उन्हें भर्त्सना दी । " बाप हो या कसाई ? क्या कभी एक प्यार-भरी नज़र डाली तुमने अपने बेटे पर ? आख़िरी बार कब गले लगाया था अपने कलेजे के टुकड़े को ? कब उसके कन्धों पर बाज़ू रखकर गर्व महसूस किया था ? वात्सल्य नाम की एक भावना होती है, आख़िरी बार कब महसूस किया था ? कुछ याद है ? या बदन और दिमाग की तरह दिल भी पूरा गठिया चुका है..... ? "
अब सत्यनारायण जी की आँखें भी डबडबा गईं । ' क्या अपने बेटे की मृत देह देखने का साहस है मुझमें ? ' सोचते हुए दालान के पार कदम रखा तो कुछ आश्चर्य हुआ कि कोई रो नहीं रहा है.....! पूरी उद्विग्नता से दो कदम और बढ़ाकर बैठक में दाखिल हुए तो देखा, विनोद एक बेंच पर बैठा पूरे चाव से पूड़ी सब्ज़ी खा रहा है, उनकी पत्नी दूध का गिलास लेकर उसके माथे को सहला रही है, मंजू उसके बाएँ टखने पर गर्म सेंक लगा रही है और पुष्पा अपने भाई की ओर देख हँसे जा रही है । विनोद ने उनको देखा तो उठ खड़ा हुआ और उसके चेहरे पर वही बेफ़िक़्र हँसी फैलने लगी । इस हँसी का उनके बाबूजी पर क्या असर होता है, यह मंजू ख़ूब जानती थी, इसलिए विनोद को पहले से मना कर रखा था । लेकिन जीव-जन्तुओं में सहज प्रवृत्ति नाम की एक चीज़ होती है, जिसे रोका नहीं जा सकता है, जिसके कारण आहट सुनते ही कुत्तों के कान खड़े हो जाते हैं, छींक आते ही हमारी आँखें बन्द हो जाती हैं, और अपने बाबूजी का अभिवादन करते वक़्त विनोद की हँसी छूट पड़ती थी । फिर भी मंजू ने आख़िरी कोशिश की, और आदत के अनुसार अपने पाँव से विनोद के टखने को टहोका । संयोग से यह विनोद का घायल टखना ही था, सो पीड़ा की एक अस्थि-भेदी लहर उसके शरीर में फैल गई और मुँह टेढ़ा हो गया । इससे उसकी हँसी में एक विचित्र ऐंठन आ गई ।
" प्रणाम, बाबूजी, " उसने कहा ।
सत्यनारायण जी के हृदय में एक पल पहले तक वात्सल्य और आत्म-ग्लानि का जो आप्लावन था, वह तत्क्षण सूख गया । और उसकी जगह ले ली एक प्रचण्ड कोप ने, कि जिस बेटे की सलामती के लिए पिछले पाँच घण्टों में उन्होंने ज़मीन-आसमान का ज़ोर लगा दिया था, उत्कण्ठित यातना भुगत चुके थे, वह यहाँ बैठकर अपनी माँ और बहन से सेवा करवा रहा है, मज़े से पूड़ी-सब्ज़ी खा रहा है, और अब उनकी खिल्ली उड़ा रहा है । वहाँ बैठी मंजू को इस अवश्यम्भावी धमाके की पूर्ण आशंका थी । इससे पहले कि सत्यनारायण जी के क्रोध का लावा फूट पड़ता, वह बोली, " बाबूजी, पसींजर गाड़ी छूट गई थी, सो विनोद पटरियों के रास्ते पैदल लौट रहा था, रास्ता भटक गया, गड्ढे-वड्ढे में गिर भी गया । मामूली से घाव हैं । कम्पाउंडर चाचा ने पट्टी कर दी है और दवा भी दे दी है । चिन्ता की कोई बात नहीं । आप भी थके हुए हैं, कुछ देर सो जाइए । बाक़ी की बातें बाद में कर लेंगे । " पूरी बात एक साँस में कह डाली । सत्यनारायण जी ने अपने हाथ में पकड़े टॉर्च और थर्मस फ्लास्क को कुर्सी पर पटका, नज़र भर कर विनोद को सर से पाँव तक ताड़ा, और उसकी तरफ़ बढ़े । सब की साँस रुक गई । सत्यनारायण जी ने विनोद का कन्धा थामकर पूछा, " ठीक हो न ? "
" जी बाबूजी । " विनोद अब गरम दूध पी रहा था ।
" जाओ, सो जाओ.... । "
.......
नर्म बिस्तर और गर्म कम्बल की परतों के बीच विनोद धीरे-धीरे नींद में समाने लगा । मनमौजियों को वैसे भी पलंग छूते ही नींद आ जाती है, उस पर से आज इतनी थकावट ! जल्द ही विनोद एक तरंगित त्रिभुवन में विचरने लगा । उसके सुषुप्त मानस-पटल पर अलग-अलग दृश्य तैरने लगे, लेकिन उल्टे क्रम में । पहले, घर पहुँचने पर माँ और मंजू का प्यार-दुलार और पुष्पा की स्नेहिल ठिठोली, और उसकी आप-बीती सुनते हुए उन तीनों के विस्मित चेहरे, फिर पटरी पर अपने सूजे हुए पाँव और घायल शरीर को घसीटते हुए वो तीन घण्टों की पैदल-यात्रा, जब उसे लगा था कि वह नौ किलोमीटर नहीं, पृथ्वी के दूसरे कोने तक चल रहा है । उसके बाद खाली डिब्बे के अन्दर की कलाबाज़ी और गोताखोरी ! और आख़िर में अयस्क-धातु से भरे हुए डिब्बे का सफ़र, वो अलमस्ती, वो पुलकाई, वो स्वप्निल संसार .... । उस इन्द्रलोक में एक क्षण के लिए उसे अपने बाबूजी का तमतमाया हुआ चेहरा दीखा । उसकी सूक्ष्म-संवेदना ने उस चित्र को तुरन्त हटा दिया । और उसकी जगह ले ली एक त्रिलोक-सुन्दरी ने । वह निकट आई तो विनोद को लगा कि यह सुरबाला कुछ जानी-पहचानी लग रही है । और अचानक सब कुछ डोलने लगा, हिल्लोलने लगा ... । सुषुप्ति में ही विनोद ने अपने बाल झटके, हाथ से सँवारा और मुस्कुराता हुआ, अपने अनुभूतिमय मायालोक में खो गया ....... ।
----------- समाप्त -----------