देश की अखंडता और सांप्रदायिक सद्भाव Dr Mrs Lalit Kishori Sharma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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देश की अखंडता और सांप्रदायिक सद्भाव

भारत अत्यंत प्राचीन राष्ट्र है । संसार के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों का सृजन यहीं हुआ।"
"राष्ट्र --"शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के श्री सूक्त में मिलता है। राष्ट्र के तीन प्रमुख अंग है ---(१) भूमि (२)उस भूमि में रहने वाले लोग (३) उन लोगों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति। राष्ट्र के प्रति उत्कृष्ट प्रेम भावना को ही "राष्ट्रीयता" कहा जाता है। राष्ट्र की अखंडता को बनाए रखने के लए राष्ट्र के प्रति भावनात्मक प्रेम और भौतिक प्रेम दोनों की आवश्यकता होती है। भावनात्मक प्रेम अर्थात संपूर्ण ---़राष्ट्र को एक इकाई के रूप में मानकर मन से उसका आदर करना तथा संकट आने पर राष्ट्र हेतु प्राण उत्सर्ग करने के लिए भी तैयार रहना। भौतिक प्रेम का अर्थ है---राष्ट्र में रहने वाले सभी व्यक्तियों के साथ भाईचारे की भावना रखना। जिस राष्ट्र के लोगों में यह भावना जितनी प्रबल होती है, वह राष्ट्र उतना ही अधिक शक्तिशाली, संपन्न और अखंड बना रहता है।

यह आवश्यक नहीं कि किसी भी राष्ट्र में रहने वाले लोगों के विचार एक जैसे हो। जीवन के प्रति सबका दृष्टिकोण एक समान हो। लोकतंत्र के देशों में सभी लोग अपनी-अपनी तरह से विचार करने के लिए स्वतंत्र होते हैं। हमारे देश में वैचारिक स्वतंत्रता प्राचीन काल से ही थी। इसीलिए यहां अनेक महान विचारक उत्पन्न हुए। उन्होंने ईश्वर, धर्म, समाज ,की अलग-अलग ढंग से व्याख्या की और इन विचारों के बताए मार्ग पर चलने वालों का अपना एक विशेष समुदाय बना। यह समुदाय कालांतर में "संप्रदाय "कहलाने लगे जैसे---शाक्त संप्रदाय, वैष्णव संप्रदाय ,शैव संप्रदाय आदि। अपने संप्रदाय के प्रति कट्टर आस्था की भावना को ही सांप्रदायिकता कहा जाने लगा। जब एक संप्रदाय के लोग अपनी बात मनवाने हेतु हठधर्मिता पर उतर आते हैं और यह हठधर्मिता अंततः मारकाट तक पहुंच जाती है तभी राष्ट्र की अखंडता को खतरा उत्पन्न हो जाता है ।

हमारे देश में सांप्रदायिकता का जहर, जो अंग्रेजो के द्वारा बोया गया ,उसी का परिणाम सर्वप्रथम 1947 में देश के विभाजन के रूप में दिखाई देता है और हमारा राष्ट्र खंडित हो गया। वस्तुतः विभाजन का बीजारोपण लार्ड कर्जन द्वारा सन् उन्नीस सौ पांच में ही कर दिया गया था जब उन्होंने देश के सबसे बड़े प्रांत बंगाल को धर्म के आधार पर---- पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल ----के रूप में दो भागों में बांट दिया । कालांतर में देश विभाजन के समय 1947 में पूर्वी बंगाल ही पूर्वी पाकिस्तान बंन कर वर्तमान में स्वतंत्र देश बांग्लादेश के रूप में स्थापित है। विभाजन का श्री गणेश यहीं से हुआ। अंग्रेजों की नीति ही यही थी----" फूट डालो और राज्य करो।"---अंग्रेज नहीं चाहते थे कि हमारे जाने के बाद भी भारत एक शक्तिशाली और अखंड राज्य के रूप में उभरे। इसी सांप्रदायिकता के कारण लाखों लोग बेघरबार हो जाते हैं । छोटी-छोटी बातों पर लोग अपने संप्रदाय की प्रतिष्ठा का सवाल बना लेते हैं और चंद घंटों में ही पूरा शहर सांप्रदायिकता की आग में झुलसने लगता है। सैकड़ों गोद सुनी हो जाती है। सैकड़ो मांगे उजड़ जाती है। बच्चे अनाथ हो जाते हैं और करोड़ों की राष्ट्रीय संपत्ति स्वाहा कर दी जाती है।

देश में सांप्रदायिकता बढ़ने के मूलभूत कारण--------
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सांप्रदायिकता की भावना दो धर्मों के मानने वालों के बीच तो है ही ,परंतु साथ ही एक ही धर्म के मानने वाले ,दो विभिन्न संप्रदायों के बीच में भी देखी जाती है--- जैसे शिया और सुन्नियों के बीच ,सवर्ण और हरिजनों के बीच। सांप्रदायिकता की दूषित भावना के विस्तार की कोई सीमा नहीं है। समय-समय पर अनेक नेता एवं समाज के अनगिनत लोगों को इस सांप्रदायिकता की भेंट चढ़ना पड़ा। देश की अखंडता के लिए यह सबसे बड़ा कलंक है। अवसरवादी राजनीतिक दल अपनी तुष्टीकरण की नीति के कारण इसे और अधिक बढ़ावा देते रहते हैं ।

देश में सांप्रदायिकता का बीजारोपण वस्तुतः उपनिवेशवाद या साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा किया गया। सांप्रदायिकता को फैलाने की अहम् भूमिका अंग्रेजों द्वारा की गई। वैसे तो भारत पर समय-समय पर अनेकों आक्रमण होते रहे, किंतु यह सभी आक्रमणकारी लूटपाट करने के बाद ही वापस लौट गए ,परंतु अंग्रेज भारत की समृद्धता को देखकर तथा विभिन्न राजाओं की आपसी फूट के कारण ,भारत का शोषण करने हेतु, दीर्घकाल तक, यहां रुकने की मानसिकता बना बैठे। लंबे समय तक शासन करने हेतु अंग्रेजों ने सर्वप्रथम हमारे गौरवशाली, प्राचीन इतिहास, संस्कृति, व शिक्षा नीति, में अपनी इच्छा अनुसार बदलाव करना प्रारंभ कर दिया। हमें कमजोर बनाने हेतु झूठा ,मनगढ़ंत ,तथा हीनता को बढ़ाने वाला इतिहास ,रचा गया। काल्पनिक इतिहास की संरचना की गई। एक बड़ा प्रमाण यह है के हमें इतिहास में अभी तक एलेग्जेंडर द्वारा महाराजा पुरु को हराने का तत्व पढ़ाया जाता रहा जबकि तथ्य ठीक इसके विपरीत सिद्ध हुआ है क्योंकि एक प्राचीन शिला चित्र में महाराजा पुरु द्वारा एलेग्जेंडर को रस्सी से बांधकर ले जाते हुए चित्रित किया गया है। क्योंकि हमारे ज्ञान के भंडार पूर्व में ही नष्ट किए जा चुके थे अतः वास्तविक तथ्यों से भारतीय सदा ही अनभिज्ञ रहे। पूर्ण सत्य व तथ्यों के संज्ञान में ना आने के कारण आज तक भी काल्पनिक इतिहास भारतीय युवा पीढ़ी को परोसा जा रहा है।

भारत में दो समुदायों के बीच में जहर घोलने का काम इस सीमा तक किया गया कि उनमें आपसी फूट की खाई निरंतर बढ़ती चली गई। यह एक राजनीतिक सत्य है कि दो की फूट के कारण सदैव ही तीसरे का लाभ होता है। इसीलिए अंग्रेज 1947 तक इस नीति का लाभ उठाते रहे।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी भारतीय राजनीति में अंग्रेजों द्वारा पैदा की गई आपसी फूट व साम्प्रदायिकता का प्रभाव निरंतर बना रहा। सांप्रदायिकतावादी भावना के कारण सरकार सदैव ही बहुसंख्यक विरोधी बनी रही तथा वोट नीति का लाभ उठाती रही। यह विषमता की खाई जितनी गहरी होती है उस देश की अखंडता की नींव उतनी ही कमजोर पड़ने लगती है। देश की अखंडता को सुदृढ़ बनाने हेतु सांप्रदायिकता की खाई को भरना बहुत आवश्यक है। अतः यहां इस बात पर विचार करना आवश्यक हो जाता है कि वर्तमान में ऐसे कौन से ठोस कदम उठाए जाएं जिससे सांप्रदायिक सद्भावनाओं को जागृत कर देश की अखंडता को सुदृढ़ बनाए जा सके ।


सांप्रदायिकता को दूर करने के उपाय------
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अयं- निज: परोवेति,गणना लघु चेतसाम्।
उदार चरितानाम् तु, वसुधैव कुटुंबकम्।


(१) शिक्षा द्वारा सद्भावना का विकास एवं जन जागृति-----

शिक्षा ही एकमात्र ऐसा अमोघ अस्त्र है जिसके द्वारा मानव हृदय के अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट किया जा सकता है। ज्ञान के द्वारा ही मानव ,मानवता से भी ऊपर उठकर, देवत्व को प्राप्त कर सकता है । जो समाज जितना अधिक शिक्षा संपन्न होता है वहां के मनुष्य उतने ही अधिक उदारवादी व विकासशील होते हैं, सद्भावना संपन्न होते हैं। इसी जनजागृति के कारण वे ऊंच-नीच ,मेरा -तेरा आदि अनेक विकृत मानसिकता से परे होते हैं। शिक्षा द्वारा ही समाज को सांप्रदायिकता की बेड़ियों से मुक्त किया जा सकता है। शिक्षा द्वारा इस जनजगृति की यात्रा में परम आवश्यक है कि सर्वप्रथम हम अपनी मूल संस्कृति की वास्तविकता व उसके उच्च आदर्शों को समझ सके। किसी भी संप्रदाय के आदर्श मानव को पतन कीओर नहीं ले जाते। अतः हमें शिक्षा द्वारा समाज के सभी लोगों को विभिन्न संप्रदायों के मूल वास्तविक तथ्यों को उनके उच्च आदर्शों को पुन: नए ढंग से समझाने की आवश्यकता है जिससे उनमें परस्पर सद्भावना का विकास हो सके। वह न केवल अपने संप्रदाय की वास्तविकता को समझ सके अपितु दूसरे संप्रदायों के आदर्शों को भी समझते हुए उनका सम्मान करना सीख सकें।

(२) अवसरवादी राजनेताओं की तुष्टीकरण की नीति का अंत------
अवसरवादी राजनेता अपने लाभ के लिए समाज के लोगों को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के रूप में बांटकर अपनी वोट नीति का लाभ प्राप्त करते रहे। देश की अखंडता हेतु उनकी इस तुष्टिकरण की नीति का अंत करना होगा।

(३) सभी सम्प्रदाय के लोगों की परस्पर एवं उत्सव आदि में सहभागिता-------

विभिन्न समुदाय के लोग यदि उदारवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए परस्पर एक दूसरे का सम्मान करें तथा एक दूसरे के उत्सवों में सहभागिता एवं सहयोग की भावना को स्थान दें तो निश्चय ही यह देश की अखंडता हेतु एक ठोस कदम होगा ।

(४) संपूर्ण भारतीय संस्कृति को जानने समझने व उससे जुड़ने के प्रयास-----

सभी संप्रदाय के लोगों को केवल अपने संप्रदाय के प्रति हठधर्मिता को छोड़कर एक भारतीय नागरिक होने के नाते संपूर्ण भारतीय संस्कृति को जानने का प्रयास करना चाहिए जिससे वह देश की सांस्कृतिक विरासत व उसकी अच्छाइयों को समझ सके और उनके प्रति सद्भावना पूर्वक उन्हें अपनाने हेतु सचेत हो सके। तभी प्रत्येक नागरिक देश की अखंडता में पूर्ण सहयोग प्रदान कर सकता है।

(५) युवा पीढ़ी को संस्कृति से अवगत कराने हेतु संपूर्ण भारत की सांस्कृतिक यात्रा हेतु साधन सुलभता-----

युवा पीढ़ी को भारतीय संस्कृति की धरोहर से अवगत कराने हेतु सरकार द्वारा संपूर्ण भारत की सांस्कृतिक यात्रा कराने हेतु सरल व सस्ते साधन उपलब्ध कराना चाहिए ।उन्हें रियायती दरों पर टिकट उपलब्ध हो, जिससे वह यात्रा कर अपने भारतीय संस्कृति को पहचान सके।

(६) धर्म और संप्रदाय की सही परिभाषा उचित अर्थ से विद्यार्थियों को अवगत कराना------

आवश्यकता इस बात की है कि आज के विद्यार्थियों को तथा भावी नई पीढ़ी को धर्म व संप्रदाय के उचित अर्थ से अवगत कराया जाए। जिससे वे इन शब्दों की सही परिभाषा व उचित अर्थ को समझ सके और दिग्भ्रमित न
हो।

(७) मानव धर्म व राष्ट्रीय हित की भावना का विकास करना----

वर्तमान पीढ़ी को यह समझाना बहुत आवश्यक है कि कोई भी धर्म या संप्रदाय मानव धर्म से ऊपर नहीं है। मानव धर्म वा राष्ट्रीय हित की भावना को सर्वोपरि समझा जाना अत्यंत आवश्यक है । तभी देश की अखंडता की नींव मजबूत की जा सकती है।

(८) विभिन्न धर्मों के विविधकरण की दूषित भावना का परित्याग----

सांप्रदायिक अवसरवादी लोगों द्वारा युवा पीढ़ी के मस्तिष्क में विभिन्न धर्मों के विभेदीकरण की दूषित भावना को भरने से हमें रोकना होगा क्योंकि

"मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना"

अतः हमें उपर्युक्त सभी बिंदुओं पर ध्यान देते हुए उनका उचित ढंग से पालन करते हुए देश की अखंडता को बनाए रखने हेतु सार्थक प्रयास करना चाहिए ।

इति