यह मर्मस्पर्शी संस्मरणात्मक कहानी मेरी मां श्रीमती सुमन चतुर्वेदी द्वारा एक सत्य घटना पर लिखी गई थी। तब यह कहानी दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित हुई थी। शासकीय हाईस्कूल में हिंदी की अध्यापिका के रूप में पदस्थ मेरी मां की एक आकस्मिक दुर्घटना में 4 जून 2001 को मृत्यु हो गई थी। अभी एक दिन किताबों की अल्मारी में यह कहानी मेरे हाथ लग गई। मैंने इसे पढ़ा और तय किया कि इसे वेब पर मातृभारती वेबसाइट पर दोबारा प्रकाशित करना चाहिए। सादर समर्पित एक मां के द्वारा लिखी गई एक मां की कहानी।
बचपन से ही घर के सामने देखी गई रोज की वेदना विवशता और उसकी अनुभूति आज भी मुझ निरीह को अस्तित्व हीन कर देती है। यथार्थ के भोगे गए सत्य की क्या यही परिणिति हो सकती थी। यह प्रशन जब भी जेहन में उतरता हो तो सांसे सहसा थम सी जाती हैं और अनिर्णय की चरम स्थिति में मैं किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाती हूं। क्या में ऐसा कर सकती हूं या मेरे साथ भी कुछ ऐसा हो सकता है जैसे अनेक प्रशन आते और अंतकरण को भेदकर चले जाते। मैं सहसा अपने चारों बेटियों को हंसता खेलता देखकर लंबी सांस लेती और फिर सहज हो जाती जैसे स्वर्णिम सुख की प्राप्ति हो गई है।
बचपन की उस भयावह डरावनी और मां बेटे को एक दूसरे से पिता द्वारा विरक्त करने की जीती जागती घटना से मेरे मन में समाज की ऐसी घिनौनी हरकतों के प्रति अंतर्निहित तीव्र अनास्था पुरूषत्व का अहम रखने वालों के प्रति विद्रोहए सांप्रदायिक्ता का अभावए परंपराओं की दिशाहीनता से उत्पन्न अविश्वास की बंधी बंधाई सीमाओं से विपरीत हो गया। कहीं ऐसा भी होता है कि बलात मां को ही पुत्रों से अलग कर दिया जाए या पुत्रों को मां के आशीष से अलग कर दिया जाए।
सिर्फ इसलिए कि वह पुत्र पड़ोस में रहने वाले सरदार जी के यहां आता जाता है। सपष्ट है कि वह सीधे सज्जन और महान इंसान थे लेकिन सरदार जी के यहां बनने वाले मांसाहार भोजन के कारण सभी स्नेहिल रिश्तों को बला ए ताक रखकर आने जाने पर पाबंदी लगाने वाले पिता भी होते है। मोहपाश में बंधे पुत्र द्वारा आना जाना बंद न करने पर पुत्र को ही घर से निकाल देने का निश्चय करने वाले कठोर हृदय पिता भी होते हैं। मां को पुत्रों से अलग करने वाले वाले या पत्नी को अपने ही पुत्रों से न मिलने देने के लिए पत्नी को तालों में रखने वाले पति भी होते हैं। यह प्रश्न अक्सर मुझे चिढ़ाते रहते हैं और गुजरे अतीत का जब भी पूरा प्रकरण चलचित्र की भांति याद आता है तो आंखों के सामने से सारा घटनाक्रम गुजरने लगता।
उस समय मेरी उम्र लगभग आठ वर्ष रही होगी और मैं पास के प्रायमरी स्कूल में संभवत कक्षा दो या तीन में पढ़ती थी। मेरे घर के सामने ही शर्मा जी का मकान था शर्मा जी उनकी पत्नी और दो पुत्र एक हंसता खेलता परिवार था। जहां में अक्सर खेलने के लिए चली जाती थी। शर्मा जी को मैं ताया जी और उनकी पत्नी को ताई जी कहती थी। ताई जी की सुंदरता देखते ही बनती थीए उनके दोनों पुत्र भी ताई जी जैसे ही दिखते थे और वे भी दोनों बेहद खूबसूरत थे। ताई जी के पिता जेलर थे और उसी शहर में नियुक्त थे जबकि ताया जी बैंक में प्रबंधक थे। ताया जी का बड़ा बेटा पढ़ लिखकर सेना में भर्ती हो गया था और छोटा बेटा अभी पढ़ रहा था।
मुझे अच्छी तरह से याद है कि मेरे घर के बगल में एक पंजाबी परिवार था जो मुझे बेहद प्यार किया करता था। इस परिवार के रहने वाले सदस्यों में मेरे मुंहबोले चाचा जी चाची जी और उनके तीन बच्चे यानी मेरे तीन भाई थे। मेरा इन दोनों घरों में खेलने के लिए रोज ही जाना होता था। उसी प्रकार इन तीनों घरों के बच्चों का एक दूसरे के घरों में रोज का ही आना जाना लगा रहता थाए लेकिन ताया जी को अपने बच्चों का पंजाबी परिवार में आना जाना अच्छा नहीं लगता था। इसका सीधा सा उनके पास एक ही तर्क था कि वे लोग मांस मछली खाते हैं संस्कारित नहीं है। ताई जी के बड़े बेटे फौज में होने के कारण स्वतंत्र विचारों के थे इसलिए उन पर इस समझाइश का कोई असर नहीं हुआ। वे पूर्ववत पंजीबी परिवार में आते जाते रहे और वहां खाना आदि भी खाते रहे।
बहुत मना करने पर भी जब बड़े भईया ने अपनी आदत नहीं बदली तो ताया जी ने उन्हें घर से निकाल दिया। अब बड़े भईया अपने घर नहीं जाते थे लेकिन दूर किराए के मकान में रहकर चाचा जी के यहां आते जाते रहे। जब उन्हें मालूम होता कि पिताजी घर पर नहीं है तो वे अपने घर जाकर अपनी माता जी से भी मिल आते थे। लेकिन ये बात ज्यादा दिन तक छुप नहीं सकी और ताया जी को भईया के घर आने की सूचना मिल गई। बस फिर क्या था ताई जी की तो शामत आ गई। उनके साथ मारपीट की गई और घर में इतनी कलह हुई पूरे मोहल्ले में बात फैल गई। अब बड़े भईया ने घर आना जाना बंद कर दिया लेकिन ताईजी अपने छोटे बेटे को अक्सर बड़े भाई की खबर लाने भेज दिया करती थीं। जब ताया जी को इसकी भनक लगी तो उन्हेांने फिर ताई जी के साथ मारपीट की और छोटे बेटे को भी घर से निकाल दिया। अब ताई जी के दोनों बेटे अपने पिता की हठधर्मिता के कारण घर से बाहर किराए पर रहते थे और घर में ताई जी अकेली रोती बिलखती रहती थीं।
नारी होना और नारी होकर मांग में सिंदूर भरना सौभाग्य का सूचक है। इस सौभाग्य की सबसे बड़ी परिणति प्रसव पीड़ा होती है जिसका आनंद उसके जीवन की सबसे बड़ी खुशी होती है। मातृत्व का भाव नारी के जीवन की पूर्णता होती है जिसे प्रत्येक मां बनने वाली नारी ही समझ सकती है। इसी मातृत्व भाव को भुनााने के लिए हर मां की अभिलाषा होती है। कि उसकी प्रसव पीड़ा का मीठा फल उसके नेत्रों के सामने रहे, लेकिन ताईजी का ऐसा सौभाग्य कहां था। अब दोनों बच्चों के लिए मां का स्नेह उतनी ही दूर था, जितनी दूर ईश्वर का साथ था। ऐसे में तायाजी की अनुििपस्थ्त में दोनों बच्चे सड़क पर
घूमते रहते थे और ताईजी कमरे के बाहर छज्जे पर ही खड़ी होकर नेत्रसुख ले लेती थीं। लेकिन ये सुख भी ज्यादा समय तक नहीं रह सका और तायाजी ने घर से बाहर होने की दशा में ताईजी को ताले में बंद करना शुरू कर दिया। यद्यपि इसकी पूरे मोहल्ले में तीखी प्रतिक्रिया हुई, मेरे मन में भी तायाजी के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकला और तायाजी अपनी हठधर्मिता और मनमानी पर ही डटे रहे।
मोहल्ले में तरह तरह की चर्चाएं होने लगी। यह सुनकर ताईजी की मनोस्थिति बिगड़ गई। कोई कहता कि बच्चों के वियोग में वे पागल हो गई हैं। कोई कहता कि वे हर समय पूजा में लीन रहती हैं, तो कोई कहता वे पूरे समय रोती और विलाप करती रहती हैं। मेरा बालमन यह सब सुनकर दुखी हो जाता और में ताईजी से मिलने के लिए बेताब हो जाती लेकिन मेरे घर में भी ऐसी स्थिति हो जाने पर ताईजी से मिलने के लिए पाबंदी लगा दी गई। मैं अपने घर की छत पर खडे़ होकर देखा करती कि कभी ताईजी पूजा कर रही हैं तो कभी गोरे पैरों में महावर लगा रही हैं तो कभी बाल खोलकर भयावह शक्ति के रूप में घूम रही हैं।
काफी दिन ऐसे ही बल्कि कुछ महीने ऐसे ही गुजर गए। एक दिन सुबह पता चला कि ताईजी अपने मायके भाग गई। रात में उन्होंने साड़ियों को बांधकर नीचे लटका दिया और उसका एक पल्ला खिड़की से बांधकर साड़ियों के सहारे वे रात के अंधेरे में नीचे उतरकर अपने मायके चली गई। सुबह इस बात की चर्चा पूरे मोहल्ले में आग की तरह फैल गई। सभी ने इस बात की खुशी जाहिर की कि चलो उन्हें इस कैद से तो मुक्ति मिली। मुझे भी बहुत खुशी हुई कि ताईजी अपने मायके में हंसी खुशी रहेंगी और वहां उनके दोनों बेटे उनसे मिलते रहेंगे।
लेकिन मायके की वह खुशी ज्यादा दिन तक नहीं रही। तायाजी जबरन ताईजी को उनके मायके जाकर लिवा लाए।
तायाजी अब और ज्यादा कठोर हो गए थे। उन्होंने ताईजी को कई तालों में कड़ी पाबंदी के साथ रखना शुरू कर दिया। मेरा बालमन तो रोने लगा और मैं ईश्वर से ताईजी की मुक्ति की कामना करने लगी। ताईजी की यह मुक्ति संकट से नहीं बल्कि जीवन से ही हो गई और कुछ सप्ताह बाद उन्होंने भी हार मानकर मिट्टी का तेल डालकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। एक दिन शाम पांच बजे जब मैं स्कूल से लौटी तो तायाजी के घर के सामने भारी भीड़ थी। घर जाने पर मुझे सब पता चल गया। मैं खूब रोई थी और ताया को पता नहीं क्या क्या कह कर कोसती रही थी। पूरे मोहल्ले के लोग यही कह रहे थे कि बेचारी को अब मुक्ति मिल गई। अब वह अपने बच्चों के साथ अद्श्य रूप में रहने के लिए स्वतंत्र हैं।
सुंदरता की साक्षात मूर्ति ताईजी का जला हुआ चेहरा भयावह हो गया था, जिसकी छवि जीवन के साढे़ चार साल बीत जाने के बाद भी बनी हुई है।
बचपन की यह सत्य घटना आज भी मन में गूंजती रहती है कि ताईजी का क्या दोष था, क्या उनके कष्टों का यही अंतिम पश्चाताप था। क्या मां होने का यही सुख है और मात्त्तव की प्रसव पीड़ा का दर्द क्या इतना दुखदाई होता है। प्रश्नों का झंझावात जब भी उठता तो पूरे जहन को झकझोर जाता और मैं केवल ताईजी की आत्मशक्ति की ही ईश्वर से कामना कर पाती कि वह जहां भी हों, जिस रूप में हो अपना मात्त्व लुटाये और अपने बच्चों को मां का सुख दे।
सुमन चतुर्वेदी