भाग 15
पिछले भाग में आपने पढ़ा की रस्तोगी का दिल बदल जाता है। वो अपनी और अपने क्लाइंट के प्रति जिम्मेदारी को समझता है। उसे अहसास होता की वो गलत राह पर था। उसका फर्ज तो पीड़ितों और दुखियो को न्याय दिलाना है। ये वो किस रह पर चल पड़ा था। उसके लालच की वजह से कितनी पीड़ा पहुंचती होगी उसके क्लाइंटो को ये उसने सोचा ही नहीं कभी। आज भी अगर मैं उसके और नियति के केस के बीच नहीं आता तो शायद रस्तोगी कभी नहीं बदलता। अब आगे पढ़े।
मैं पूरी तैयारी के साथ मुकदमे की तारीख की प्रतीक्षा कर रहा था। मेरे साथ साथ रस्तोगी भी अब अपनी तंद्रा से जाग कर केस की अच्छे ढंग से पैरवी के लिए कमर कस चुका था। उसे खुद को मेरी नजर में एक काबिल वकील साबित करना था। साथ ही दोस्ती भी निभानी थी। उसने जो गलतियां की थी उसे सुधारना था। अब तक उसकी कोशिश थी जितना केस को टाल सके, उतना टालना। परंतु अब उसकी कोशिश थी, जितनी जल्दी वो केस का फैसला करवा सके उतना अच्छा हो।
तय तारीख भी आ गई। मां को भी पता था। वो भी मेरे साथ चलना चाहती थी। उन्हे बस नियति की एक झलक देखनी थी। जो ख्वाहिश बरसों से उनके दिल में डेरा जमाए थी। उसे पूरा होने की उम्मीद अब नज़र आने लगी थी। नियति के मिल जाने से उनके अरमानों को पंख लग गए थे। उन्होंने जिद्द पकड़ ली की "मुझे भी साथ ले चलो कोर्ट।" पर मैं कैसे ले जाता उन्हे? कैसे परिचय करवाता? क्या कहता नियति से की मां को क्यों कोर्ट ले कर आया हूं? मां को समझाना बहुत मुश्किल था। किसी तरह उन्हें समझाया। वो इस शर्त पर मानी की जितनी जल्दी हो सके मैं नियति से उन्हें मिलवाऊं। अब जगह चाहे जो भी हो। या उसे घर ले आऊं या मां को खुद लेकर नियति से किसी जगह मिलवाने ले जाऊं। मैने वादा कर दिया की बहुत जल्द मैं उनसे नियति को मिलवाने की कोशिश करूंगा। अब मां मान गईं। खुशी खुशी मुझे कोर्ट जाने दिया।
मां से विदा ले मैं कोर्ट चल दिया। रास्ते में मुझे रस्तोगी को भी लेना था। जिस जगह रस्तोगी ने मिलने को कहा था वो मेरे रास्ते में ही था। मैं वहां पहुंचा तो देखा की रस्तोगी पहले से वहां खड़ा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। मैं खुश हो गया रस्तोगी को टाइम से पहले खड़ा देख कर। अब वाकई ये महसूस हो रहा था की वो नियति के केस को गंभीरता से ले रहा है। मेरे गाड़ी रोकने पर दरवाजा खोलकर साथ की सीट पर बैठ गया। मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखकर बोला, "अब भाई ये सिर्फ एक केस नही है। ये तो मेरे दोस्त की खुशी का मामला है। अगर तू जरा भी लेट होता तो मैं सवारी करके कोर्ट पहुंच जाता।
अब तो तुम मुझे लालची वकील का तमगा नहीं दोगे?"
मैने भी उसकी इस बात का जवाब उसी के अंदाज में दिया। बोला, "ना!! तू नहीं नही बदल सकता! अब देख इसमें भी तेरा ही स्वार्थ है।"
रस्तोगी ने नाराजगी जाहिर करते हुए मेरी ओर घूरा। मैं बोला, "अब देख लालच तो तेरा इसमें भी है। तू बुरा क्यों मन रहा है? हां ये बात और है की इसमें अब तुझे दोस्त की खुशी का लालच है।"
रस्तोगी मेरी बात से प्रसन्न हो गया। मेरे कंधे थपकी देते हुए हो हो कर के हंस पड़ा। और बोला, "हां यार तू बिलकुल सच कह रहा है। ये लालच तो मुझे बहुत ज्यादा है। बाकी दूसरी चीजों का लोभ तो मैं छोड़ सकता हूं पर इसका कभी नहीं। नो … नेवर।"
इस बात पर दोनों दोस्त हाथ से हाई फाई दे हंस पड़े।
इस सब बातों में ही कोर्ट आ गया।
वहां हमे नियति भी प्रतीक्षा करती मिली। पर जितने उत्साह के साथ हम गए थे सब ठंडा पड़ गया। हमारी बारी पांचवे नंबर पर थी। जब हमे पुकारा गया। हम तो मौजूद थे पर दूसरा पक्ष नदारद था। बार बार आवाज देने पर एक जूनियर आया। वो तबीयत खराब का बहाना बना कर लंबी डेट की मांग रख दी। जज साहब ने काफी सोचा समझा। रस्तोगी ने तत्परता से अपना पक्ष रक्खा। बोला, " मेरी क्लाइंट को बिना किसी कारण के उसकी अबोध बच्ची से दूर रक्खा जा रहा है। पति के ना रहने पर वो बच्ची ही उसके जीने का सहारा है। और जान बूझ कर लापरवाही दिखा कर बिना किसी कारण केस को लंबा खींचा जा रहा है।"
जूनियर वकील भी मंजा हुआ खिलाड़ी था। उसने तुरंत विरोध किया। बोला, "बच्ची की दादी नीना देवी उस बच्ची को बेहतर परवरिश दे रही है, जो बच्ची की मां नही दे सकती है।" वो और भी अनाप शनाप आरोप लगाने की शुरुआत करने लगा। पर रस्तोगी उसकी मंशा समझ गया। तुरंत ही ऑब्जेक्शन किया। जज साहब ने भी जूनियर को बिना किसी सबूत के एक स्त्री पर आरोप लगाने से मना किया। वो बोले, "आप जो आरोप नियति जी पर लगा रहे है। वो सिर्फ हवा हवाई नही होना चाहिए। आप जो भी दोषारोपण कर रहे है सोच कर करिए..! उन्हे आपको साबित भी करना होगा। अगर ऐसा आप नहीं कर पाए तो आप समझ सकते है। मैं क्या कुछ कार्यवाही आपके खिलाफ कर सकता हूं?" जज साहब की निगाह टेढ़ी होते देख जूनियर वकील डर गया। अभी तो उसके करियर की शुरुआत ही थी। शुरुआत में ही वो कोई खतरा मोल नही लेना चाहता था। इस लिए जज साहब से माफी मांग कर ये वादा किया की आगे से वो ऐसा नहीं करेगा। अब जो कुछ भी कहेगा सबूत के बिनाह पर ही कहेगा।
परवरिश ना कर पाने का आरोप लगाने पर रस्तोगी ने विरोध दर्ज किया बोला, "मेरी क्लाइंट नियति जी एक अच्छी जॉब में है वो बच्ची की अच्छी परवरिश कर सकती हैं।"
इस पर जूनियर वकील ने कहा की, " जब वो जॉब के लिए बाहर जाएंगी तो बच्ची अकेली हो जायेगी। मेरी क्लाइंट नीना देवी घर पर बच्ची के साथ रहती है इस लिए वही बेहतर देखभाल बच्ची की कर सकती है।"
रस्तोगी ने भी तुरंत इसका जवाब दिया "मेरी क्लाइंट एक ज्वाइंट फैमिली में रहती हैं। जहां उनकी मां के साथ ही उनका एक बड़ा परिवार है। जो नियति जी की काम पर जाने के बाद बच्ची की देखभाल कर सकता है।"
इस पर उल्टा जज साहब ने जूनियर वकील को टोकते हुए कहा, "फिर तो आपके हिसाब से जितनी भी माएं कामकाजी है और अकेली रहती है वो अपने बच्चे की देख भाल सही ढंग से नहीं कर रही हैं!"
जूनियर वकील जज साहब के इस तरह उल्टा प्रश्न पूछने से घबरा गया। वो बोला, "माय लॉर्ड मेरा ये मतलब नही था। मैं तो नियति मैडम की बात कर रहा था।"
जज साहब फिर नाराज होते हुए बोले, "आप कोई बात साबित भी करेंगे या यूं ही अंधेरे में तीर चलाते रंहेगे। आपके साथ कोई न दिक्कत सदैव बनी रहती है। कभी आपकी क्लाइंट मौजूद नहीं रहती है। कभी आपके सर आपको भेज के छुट्टी पा लेते है। क्या कोर्ट का टाइम बरबाद नहीं हो रहा है? आप कैसे जानते है की नियति मैडम एक अयोग्य मां है?"
जो जूनियर अभी तक पूरा केस अकेले ही लड़ने का हिम्मत दिखा रहा था। अब वो बिल्कुल घबरा गया। बार बार जज साहब से सॉरी बोल रहा था।
मैं बैठा सब कुछ ध्यान से सुन और देख रहा था। अदालत की कार्यवाही बिलकुल मेरे आशा अनुरूप ही चल रही थी।
रस्तोगी की तत्परता देखते ही बन रही थी। आज वो जैसे अपनी दोस्ती का हक अदा कर देना चाहता था इस केस को नियति के पक्ष में करके। दूसरी ओर नियति भी अब कुछ इत्मीनान में दिख रही थी। उसके बुझे मन में आशा के दीप टिमटिमाने लगे थे।आज की रस्तोगी की केस की पैरवी ने उसे संतुष्ट कर दिया था।
जज साहब ने दोनो ही पक्षों को रोकते हुए कहा, "इस बहस का कोई मतलब नहीं है। जब दूसरा पक्ष यहां मौजूद नहीं है। मैं अब कोई लापरवाही नहीं सुनूंगा। अब अगले डेट पर सारे वादी, प्रतिवादी मौजूद होने चाहिए।
अब ऐसा नहीं चलेगा। मैं कोर्ट का वक्त आपकी लापरवाही की वजह से बरबाद नहीं होने दे सकता।" इतना कह कर जज साहब उठ कर चले गए।
कोर्ट की कार्यवाही खत्म होने पर मैं रस्तोगी और नियति के साथ बाहर आ गया। आज की इस अच्छी बहस का श्रेय नियति मुझे देना चाहती है ऐसा उसकी नजरों से साफ झलक रहा था। रस्तोगी में तत्परता मेरे हिदायत के बाद आई है ये उससे छिपा नहीं था। कुछ देर बात कर रस्तोगी अपने ऑफिस के लिए निकल गया। मुझे भी निकलना था और नियति को भी। पर आज मैने अपने दिल पर काबू किया और ड्रॉप करने का ऑफर नही दिया। मैं ये नही चाहता था की वो मेरी इस मदद को अन्यथा ले। इस लिए उसे वहीं छोड़ मैं अपने ऑफिस के लिए निकल गया।
अगले भाग में पढ़िए। क्या पहले दिन की ये कार्यवाही आगे भी ऐसे ही नियति और मेरे मन मुताबिक हुई? क्या मां से लिया गया वादा मैं पूरा कर पाया?