भाग 10
जब फिर तुम्हे देखा
पिछले भाग में आप ने पढ़ा, की नियति नीना देवी के कहने पर अपनी ससुराल छोड़ कर मायके में रहने आ जाती है। फिर कुछ समय बाद जॉब कर लेती है। पुनः दूसरी जॉब के लिए हैदराबाद जाते वक्त ट्रेन में मुझसे मुलाकात होती है। फिर वो मुझसे दूर जाने के लिए बिना अपना कोई कॉन्टेक्ट दिए ही चली जाती है। मैं दीवाना सा हर महीने हैदराबाद की हार उस संभावित जगह पर नियति को तलाशने की कोशिश करता हूं। पर वो हैदराबाद से दिल्ली जा चुकी होती है । मुझे मिलती कहां से..? फिर अचानक एक दिन अपने दोस्त संतोष को मदद के लिए कोर्ट जाने पर अप्रत्याशित रूप से मुझे नियति दिख जाती है। वो अपनी बेटी मिनी की कस्टडी के लिए आई थी। उसका वकील रस्तोगी मेरा अभिन्न मित्र है। वो मुझे देख कर खुश होता है और मेरा इंट्रोडकशन नियति से करवाया है। अब आगे पढ़े।
रस्तोगी ने मेरा परिचय नियति से करवाते हुए बोला, " नियति जी ये मेरे बहुत ही खास दोस्त है, मिस्टर प्रणय सिन्हा। ये कार्पोरेट जगत के वकीलों के बादशाह है। पूरी दिल्ली में शायद ही कोई हो जो इनके नाम से, या इनसे अपरिचित हो।"
मैने हंसते हुए रस्तोगी को चुप रहने का इशारा किया और बोला, "अब बस भी करो यार…! अब ऐसा भी नहीं है की इतनी बड़ी दिल्ली में सब मुझसे परिचित ही हो।"
फिर नियति के बारे में मुझे बताने लगा बोला, "प्रणय ये मेरी क्लाइंट नियति जी है। मैं इनका केस लड़ रहा हूं। इन्हें अपनी बेटी की कस्टडी चाहिए। जो इनकी सास के पास है।"
● मैं नियति को देख उससे अपने मन की बात करने के लिए व्याकुल था, पर ये स्थान अपनी भावुकता प्रकट करने के लिए उचित नहीं था। मैं चाहता था कि पूछूं नियति से की वो ऐसा कैसे कर सकी उसके साथ! एक बार उससे मिल कर, अपनी बात कह कर तो देखती! इस तरह उसकी जिंदगी से बिना किसी बात वो क्यों चली गई? एक बार भी नहीं सोचा की मुझ पर क्या गुजरेगी? अपनी भावनाओ पर नियंत्रण रख मैं नियति को बस देख रहा था। मना की हमारा साथ चंद घंटों का ही था। हमने आपस में कोई वादा कोई इकरार नही किया था। पर क्या जबान से ही सब कुछ कहना जरूरी है ...? क्या आंखो ही आखों में बातें नही होती..? क्या मौन की भाषा नही होती…? सब कुछ बोल कर ही जरूरी नही होता है। नियति हमने एक दूसरे की आंखों को पढ़ा था। दिल के जज्बात समझे थे। शायद ….? नही श्योर अपने दिल में उभरते मेरी तस्वीर से डर कर भाग गई थी।
सारे जख्म भूल कर मैं भगवान का शुक्रिया अदा कर रहा था की उन्होंने चाहे जितनी मेरी परीक्षा ली भगवान ने लेकिन आखिरकार उन्हें मुझ पर रहम आ ही गया। आज मेरा विश्वास जीत गया था। नियति की मनोस्थिति का अंदाजा मैं नहीं लगा पा रहा था। मुझे देख उसे खुशी हुई या दुख हुआ। उसके चेहरे के किसी भी भाव को मैं समझ नही पा रहा था। रस्तोगी से नियति ने ये नही जाहिर किया कि वो मुझे जानती है। पर मैं इस बात को छुपाने के लिए बिल्कुल भी तैयार नही था। मैने रस्तोगी से कहा, "रस्तोगी लोग कहते है ये दुनिया बहुत बड़ी है। कभी कभी पूरी जिंदगी बीत जाती है पर किसी सहयात्री से दुबारा मुलाकात नहीं होती। पर मेरा मानना है ये दुनिया बहुत छोटी है इसलिए देखो आज नियति जी से मेरी दुबारा मुलाकात हो रही है। मैं इन्हें जानता हूं। मैने और इन्होंने हैदराबाद तक का सफर एक साथ तय किया था। हम सहयात्री थे। क्यों नियति जी आपको याद नही? आप भूल गई!"
नियति ने मेरी ओर देखा और अटकते हुए बोली, "ओह…! आप ही प्रणय जी हो…" पहचान तो वो रही ही थी पर खुद से पहल नहीं करना चाह रही थी।
नाटकीय अंदाज में मैने कहा, "चलिए आपको याद तो आया। वरना मैं तो समझा आपको कुछ भी याद नही।"
इधर जब मैं नही आया तो संतोष कुछ देर इंतजार कर वापस मुझे देखने आया की मैं कहा रह गया ? बिना मेरे आस पास गौर किए की कौन है? मेरे पास आकर बोला, "क्या प्रणय तुझे तो हर जगह कोई न कोई परिचित मिल ही जाता है। अब मेरी हियरिंग होने ही वाली है और तुम यहां लटक गए ।"
संतोष मेरी ओर नियति की पूरी कहानी जनता था। मेरे मोबाइल में उसकी फोटो भी देखी थी। जब मैंने नियति की ओर इशारा किया तो वो भी नियति को देख चौक गया। मेरा हाथ पकड़ धीरे से बोला, "ये तो वही ट्रेन वाली नियति जी है ना।"
मेरे "हां" कहने पर हंसते हुए बोला, "देखा दोस्त की मदद करने पर भगवान ने कितनी जल्दी मनोकामना पूरी कर दी।"
फिर बोला, "चल जल्दी चल मेरी मदद कर तो अब जो कुछ भी चाहेगा वो भी मिल जायेगा।"
मैने कहा, "बस दो मिनट में आया।" नियति का नंबर और पता तो मुझे रस्तोगी से भी मिल जाता पर मैं चाहता था की नियति खुद मुझे दे।
मैने रस्तोगी को सहेजा की नियति का केस मेरा ही केस समझ कर लड़े और जो कुछ भी प्रोग्रेस हो शाम को बताए। फिर नियति से बोला, "क्या अब हम शाम को मिल सकते है?"
नियति ने अपना कार्ड मुझे दिया और बोली, " संडे को कॉल कर लीजिएगा।" नियति ने सोचा रस्तोगी हर पेशी पर उससे एक अच्छी खासी रकम वसूलता है। उसके बाद भी करता कुछ भी नहीं है, सिवाय आश्वासन देने के। वो बार बार कोर्ट के चक्कर लगा लगा कर थक गई थी। इसलिए सोचा की प्रणय का तो बहुत नाम है। फिर रस्तोगी भी प्रणय का मुरीद लग रहा था। प्रणय के सहयोग से वो रस्तोगी पर दबाव डलवाना चाहती थी की वो उसके केस में तत्परता दिखाए और जल्दी से जल्दी मिनी की कस्टडी उसे दिला दे। रस्तोगी के टाल मटोल से नियति को ये भी लगने लगा था की शायद वो उसकी सास नीना देवी से मिला हुआ है। सिर्फ केस को लंबा खींचना चाह रहा है। प्रणय से वो बात कर किसी नतीजे पर पहुंचना चाह रही थी की किसी दूसरे योग्य वकील के हाथ में केस सौंपे या रस्तोगी गंभीरता से केस लड़े।
मैं उसका कार्ड ले कर झूम उठा। मेरी आंखों को यकीन नहीं हो रहा था कि नियति ने अपना कार्ड मुझे दिया और वो मुझसे संडे को मिलने को कह रही है। मैने संडे को कॉल करने की बात दोहराई और बोला, "संतोष मेरा इंतजार कर रहा है। मैं अभी चलता हूं ।" और मैं संतोष के पास चल पड़ा। उसके केस की सुनवाई बस शुरू ही हुई थी। वो मेरा बेसब्री से इंतजार कर रहा था। मैं संतोष के पास जाकर बैठ गया। केस की सुनवाई शुरू हुई। मैं बैठा बैठा देख रहा था और सोच रहा था की संतोष कैसे सामना कर पा रहा है इन परिस्थितियों का। जिस पत्नी ने सात जन्म तक साथ निभाने का वादा किया था फेरे लेते वक्त । वही चंद सालों के साथ में ही समाज में नंगा करने में कोई कसर नही छोड़ रही है। खैर वो क्या कर सकता है इसमें ? पर बैठ कर कार्यवाही देखते हुए कई पॉइंट पर संतोष के वकील को अपनी राय देना चाहता था। जिससे संतोष निर्दोष सिद्ध हो सकता था।
संतोष के केस की सुनवाई के बाद मैने उसके वकील से एक छोटी सी मीटिंग की ओर अपनी ओर से कई जरूरी पॉइंट बताए जिससे उन्हें मदद मिली। फिर मैं वापस अपने ऑफिस चला आया। क्योंकि एक क्लाइंट को समय दे रक्खा था। इसी कारण नियति के केस की कोई जानकारी रस्तोगी से नहीं ले पाया। मैने सोचा शाम को रस्तोगी से फोन पर पूरी डिटेल ले लूंगा केस की। आज मंगलवार था और संडे को नियति को मिलना था। उससे मिलने के पहले मुझे सारी जानकारी इक्कठी कर लेनी थी। मेरे पास चार दिनों का समय था।
अगले भाग में पढ़े रस्तोगी ने क्या डिटेल दी नियति के केस की? क्या रस्तोगी पैसा और दोस्ती में से मुझे चुनेगा…? क्या वो सच में नीना से मिला हुआ था? नियति क्या संडे को आई मिलने? पढ़े अगले भाग में।