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मुर्दों की बस्ती

समय बड़ा बलवान है उससे भी कहीं अधिक बलवान है मानव का भाग्य। जो कुछ उसके भाग्य में है उसे कोई छीन नहीं सकता और जो चीज़ उसके भाग्य में नहीं है यदि वह कोई उसे दे भी देगा तो उसके पास रहेगी नहीं। भाग्य के ये खेल युगों से जारी हैं। प्रकृति महान है। मानव जाति में कुछ ऐसे भी अभिमानी पैदा हुए हैं, जो प्रकृति को भूलकर अपने को ही महान कहने लगते हैं। वे इस बात को भूल जाते हैं कि समय बदलते कोई देर नहीं लगती।

राजा सुखपाल का राज्य बहुत बड़ा था। पहले कई वर्ष तक तो शादी के पश्चात् कोई संतान नहीं हुई थी परन्तु दस वर्ष की लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात् प्रभु की कृपा से उनके घर में चाँद सा बेटा पैदा हुआ था।

बेटे के जन्म के साथ ही पूरे देश में खुशी के जश्न मनाए गए। । गरीबों को कई दिनों तक मुफ्त खाना खिलाया गया, कपड़े बाँटे गये, मंदिरों में आरतियाँ की गई। कई स्थानों पर यज्ञ भी किए गये।

चालीस दिन का बच्चा होने पर 1100 ब्राह्मणों का भोजन तैयार करके वेद पाठ करने के पश्चात् सब को जी भर कर खिलाया गया। साथ ही बच्चे का नामकरण करके उसके भाग्य के बारे में पूछा गया। उसी समय ब्राह्मणों ने उस बच्चे का नाम विजय बहादुर रखा और कहा-"यह लड़का बहुत भाग्यशाली होगा। जब तक जीवित रहेगा तो दूसरों की सेवा करेगा। इस संसार में लोग सदा इसे याद रखेंगे। अमर होगा यह बच्चा"

राजा ने अपने बच्चे का उज्जवल भविष्य सुना तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। वह मन से यही चाहता था कि उसका बच्चा बड़ा होकर अपने वंश का नाम रोशन करें। जिस दिन विजय बहादुर का जन्म हुआ तो उस दिन उस देश में पूरे नौ हजार बच्चे पैदा हुए थे। राजा ने उन सब बच्चों के पालन-पोषण का खर्च सरकारी खजाने से बाँध दिया गया।

विजय बहादुर जैसे ही बड़ा हुआ तो वह शिकार पर जाने लगा। इतनी छोटी आयु का कोई भी बच्चा आज तक शिकार खेलने नहीं गया था और इससे भी आश्चर्य की बात तो यह थी कि विजय बहादुर केवल शेर, हाथी, गैंडे जैसे बड़े-बड़े जानवरों का शिकार करता था ऐसे जानवरों का शिकार खेलने से राजा लोग भी डरते थे। जब विजय बहादुर पंद्रह वर्ष का हुआ तो उनके पड़ौसी राजा विक्रम देव सिंह की लड़की रूपमति भी जवान होने लगी।

एक बार विजय बहादुर की नजर उस पर पड़ गयी। न जाने क्यों इस छोटी सी आयु में ही विजय बहादुर के मन में यह ख्याल पैदा हुआ कि-"यह लड़की तो बहुत सुन्दर है। यदि यह किसी तरीके से उसके साथ शादी करने के लिए तैयार हो जाए तो जीवन का बड़ा ही आनन्द आएगा। "न जाने क्यों वह राजकुमारी से इतना प्रेम करने लगा था?

प्रेम में इन्सान अपना सब कुछ भूल जाता है। प्रेम को अंधा भी कहा गया है। जवानों का प्रेम अंधा होता है परन्तु किशोर उम्र के प्रेम को तो दिली प्रेम ही कहा जाएगा। विजय बहादुर अन्दर ही अन्दर उस राजकुमारी के प्रेम में अंधा होकर फिरता तो रहा मगर उससे कुछ भी कहने का साहस न कर सका।

एक दिन जब विजय बहादुर का मन बड़ा ही उदास हो रहा था तब वह शिकार पर जाने के लिये तैयार हो ही रहा था. तो उसे राजकुमारी रूपमति की याद आ गई। मन हद से अधिक व्याकुल हो गया तो उसने अपने मित्र रणवीर को बुलाकर अपने मन की सारी बात बतायी।

उसके मित्र ने झट से कहा- "इसमें चिंता करने वाली कौन सी बात है? अपने पिता जी से कहो कि मुझे उस लड़की से शादी करनी है। राजा विक्रम सिंहतो सिर के बल चलकर अपनी लड़की का विवाह तुम से करने चले आयेंगे।"
"नहीं.... नहीं....! मैं यह नहीं चाहता रणवीर
'तो फिर तुम क्या चाहते हो ? प्रेम से उस मासूम लड़की को अपना बनाना चाहता हूँ। प्रेम में जोर-जबरदस्ती का कोई काम नहीं और न ही मैं भिक्षा के रूप में उसे प्राप्त करना चाहता हूँ।
"मामला तो बहुत गम्भीर है मित्र! तो फिर इसे सीधा करो ?"
"सीधा! हाँ... हाँ...मित्र! तुम ने ठीक कहा, बिल्कुल ठीक कहा। अब यह मामला सीधा ही होगा। हमारे लिये यही अधिक ठीक रहेगा सीधा "मैं तुम्हारी बात समझा नहीं । ? "
"समझोगे...समझोगे...! जब हम दोनों सीधे ही उस लड़की के पास जाकर अपने प्रेम के बारे में सब कुछ बता देंगे।यदि उसने ना कहदी तो ?"और यदि हाँ कहदी तो ?"

दोनों मित्रों में आपस में नोंक-झोंक चलती रही और कुछ देर के पश्चात् वे दोनों राजकुमारी रूपमति के महल की ओर चल पड़ें। दोनों के घोड़े बहुत तेजी से दौड़ रहे थे। राजा विक्रम सिंह राजा सुखपाल के बड़े पुराने मित्र थे। दोनों एक-दूसरे के सुख दुःख में काम आते थे। जब कोई बाहरी शत्रु उन दोनों में से किसी एक पर आक्रमण करता तो दूसरा मित्र झट से अपनी सेना लेकर सहायता के लिये आ जाता।

आज जैसे ही उसने अपने मित्र के लड़के विजय बहादुर को अपने महल में आते देखा तो बड़े ही खुश होकर उसे गले से लगाया और अपने साथ ही महल के अन्दर ले गये। नौकर लोग सेवा के लिये चारों ओर कठपुतलियों की भाँति नाचने लगे थे। दोनों मित्र बड़े आनन्द से कमरे में बैठे एक-दूसरे से इशारे कर रहे थे कि रूपमति से कैसे मिला जाए?

"किसी नौकर को पटा लो।बात तो तुम बहुत काम की करते हो।
विजय बहादुर ने जैसे-तैसे एक नौकर को लोभ लालच देकर पटा लिया और फिर बड़ी होशियारी से राजकुमारी के कमरे तक पहुँच ही गया। कौन हो तुम? " राजकुमारी एक अंजान युवक को अपने कमरे में देखकर हैरान हो गयी थी।

"घबराओं मत रूपमति! मैं राजा सुखपाल सिंह का बेटा विजय बहादुर हूँ।"हमारे महल में कैसे आना हुआ ?"
'केवल आपसे मिलने के लिये आप के महल तक आया हूँ।'
"मिलने! और वह भी मुझ से ? " क्या आप इसका अर्थ समझती हो ?" "हाँ!"जरा बताएँगे मुझे ?'

"सुनो राजकुमारी! मैंने जब से तुम्हें देखा है मेरा दिल काबू में नहीं। आपके बिना मेरा मन कहीं नहीं लगता। सत्य बात तो यह है कि मुझे तुमसे प्यार हो गया है। मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ। मुझ से विवाह करोगे ?" "सोच तो यही रहा हूँ।"

"सोच बुरी नहीं है, फिर सोचने के ऊपर कोई प्रतिबन्ध भी नहीं है। तो क्या तुम शादी के लिये तैयार हो ? " ''हाँ! लेकिन उसके लिये मेरी भी एक शर्त है। क्या शर्त है तुम्हारी ? हमारी शर्त है कि आप हमारे एक प्रश्न का उत्तर लाकर दो।'
"कौन सा प्रश्न है आपका ? "
"सुनो राजकुमार! हमारे प्रश्न को जरा ध्यान से एक बार देखा, दूसरी बार देखने की हवस है। बताओ यह कौन है, कहाँ है....और यह बात क्यों कहता है? यदि आपने मेरे इस प्रश्न का उत्तर ठीक से दे दिया तो मैं सारी आयु आपकी दासी बन कर रहूंगी।"

"देखो राजकुमारी! तुम मुझे एक वर्ष का समय दो। मैं
तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे पाऊँगा।' "ठीक है। हमे मंजूर है।
विजय ने राजकुमारी की शर्त का पालन करने के लिये अपने मित्र रणवीर को साथ लिया। उसे राजकुमारी वाली शर्त के बारे में बता दिया था। हालाँकि विजय बहुत निराश था फिर भी अपने मित्र का दिल रखने के लिये बड़े अंदाज से बोला

'प्यार किया तो डरना क्या? आखिर एक दोस्त ही दोस्त के काम आता है। दोनो मित्र उस प्रश्न के उत्तर के लिये देश के बाहर निकल पड़े। जंगलो, पहाड़ों, देशों को पार करते हुए वे दोनों एक ऐसे स्थान पर जा पहुँचे जो चारों ओर घने जंगल से घिरा हुआ था।राजकुमार थका हुआ होने के कारण सो गया। उसका
मित्र बैठा जंगल के जानवरों को देख रहा था। इतने में ही उसने एक भेड़िये को देखा जो हरी-हरी घास में छुपकर बैठा हिरणी के मासूम बच्चे पर झपटना चाहता था।

एक अवसर ऐसा भी आया जब वह भेड़िया उस हिरणी के बच्चे पर टूट पड़ने के लिये तैयार हो गया तो रणवीर ने जोर से आवाज लगाई।बच...बच...बच जाओ।"

तभी उस भेड़िये ने रुक कर रणवीर की ओर देखा और फिर बोला-"ओ सखी हातिम की औलाद! तूने यह क्या किया? मेरा शिकार भगा दिया।" मैं और क्या करता ?
उस गरीब जानवर से पेट की आग बुझाना क्या कोई पाप है? अब मैं अपना पेट कैसे भर सकता हूँ?"

"यदि तुमने उस बच्चे की हत्या करके ही अपना पेट भरना है तो मैं अपनी जाँघ का माँस निकाल कर तुम्हें दे देता हूँ।" यह कहते हुए रणवीर ने अपनी जाँघ से माँस का टुकड़ा निकाल कर उसके आगे डाल दिया।
भेड़िये ने बड़े मजे से उस माँस को खाया। पेट भरने पर
वह स्वयं ही उठकर जंगल में चला गया। रणवीर ने जोश में आकर अपनी जाँघ में से माँस तो तलवार से निकाल दिया था परन्तु उस जख्म का दर्द उसे चलने भी नहीं देता था। मजबूर होकर वह एक वृक्ष के नीचे जाकर लेट गया। दर्द के मारे वह तड़प रहा था। उस समय एक गीदड़ उसके पास आया और उसे तड़पते देखकर सोचने लगा कि यह मानव इस जंगल में कहाँ से आ गया? इसे तो जंगली जानवर खा जाएँगे। मुझे तो यह कुछ बीमार सा भी लग रहा है। देखो न! इसके पैर से खून बह रहा है। " उस समय उसकी पत्नी गिदड़ी भी वहाँ आ गयी थी।

दोनों पति-पत्नी मिलकर उसे अपने घर ले गये। वहाँ पर मिलजुल कर दोनों ने उसकी सेवा की। उसके जख्मों पर मरहम लगाते रहे। जंगल में कुछ जड़ी बुटियाँ ऐसी भी होती हैं जिसका रस मरहम का काम करता है।

दो दिन में ही रणवीर के सारे घाव भर गये तो वह जाने के लिये तैयार हुआ और गीदड़ तथा उसकी पत्नी को धन्यवाद देने लगा-"तुम दोनों ने मेरी जान बचाई इसके लिये आप मेरी ओर से धन्यवाद स्वीकार करें। यदि मेरे योग्य कोई सेवा हो तो बताओ?
हे हमारे परदेसी मित्र! असल में हमें एक भेड़िये ने बहुत तंग कर रखा है। वहहमारे बच्चों तक को उठा ले जाता है और उन्हें मार कर खा जाता है। यदि आप उस भेड़िये को मार डालें? बस फिर तो हम शांति से जी पायेंगे।मैं प्रयत्न करता हूँ। आगे भगवान मालिक हैं। " रणवीर ने अपने मित्र विजय को सारी कहानी सुना दी और साथ ही उस भेड़िये को मारने का जो वचन गीदड़ को दिया था उसके बारे में भी बता दिया।

विजय ने अपनी तलवार निकालते हुए कहा-"चलो, पहले चल कर उस भेड़िये का अंत करते हैं जो मासूम बच्चों को भी खा जाता है। पापी कहीं का।विजय बहुत क्रोध में भरा हुआ था। रणवीर भी उसके साथ हो लिया। कुछ ही क्षणों में वे भेड़िये के ठिकाने पर पहुँच गये।

भेड़िया भी कुछ कम खूनी नहीं था। मानव जाति का तो वहशत्रु होता है। उसने बिजली की तेजी से उछल कर विजय के गले को दबोचने का प्रयास किया, लेकिन इस से पहले वह विजय को काट लेता विजय की तलवार ने उसका गला काट कर फेंक दिया।

उस समय गीदड़ भी छिप कर सारा दृश्य देख रहा था। उसने विजय और रणवीर का बहुत-बहुत धन्यवाद किया।
विजय ने जैसे ही जाने के लिये कदम बढ़ाया तो गीदड़ ने उसका रास्ता रोकते हुए कहा-"ठहरो!क्यों?" विजय ने गीदड़ की ओर देखकर पूछा "देखो मित्र! मैं जानता हूँ कि आप दोनों मित्र किसी विशेष काम से ही जंगल में भटक रहे हो। तुम कैसे जानते हो ?"
हमारे बाप-दादा ज्योतिष विद्या का ज्ञान रखते थे। उन्हीं की कृपा से मैं भी हर आदमी के मन की बात को जान लेता हूँ। अब मुझे यह पता चल गया है कि आप को किस चीज की तलाश है ?
तो फिर हमें उस तक पहुँचाने में हमारी सहायता करो।"

'देखो, आप लोग इस से आगे आने वाले पहाड़ों को पार करके जंगल में चले जाओ। वहाँ तक पहुँचने के दो ही रास्ते हैं- एक तो शीघ्र पहुँचने का रास्ता है मगर उस रास्ते पर चलना पाप है क्योंकि वहाँ पर हर पग पर मौत मानव की प्रतीक्षा कर रही है। दूसरा रास्ता दाएँ हाथ से जाता है जिसमें डर वाली कोई बात नहीं।'

"ठीक है। "यह कहकर वे दोनों आगे बढ़ गये। विजय तो डरने वाला था नहीं। हाँ, रणवीर के मन में थोड़ी शंका थी। दोनों बड़े मजे से चल रहे थे कि सहसा उन्होंने बहुत से रीछों को देखा जो उन की ओर बढ़े। कुछ देर के लिये तो वे दोनों सोच में पड़ गये। इतनी बड़ी रीछ सेना ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया था। अब तो वे दोनों उनके सामने हथियार डालने के लिये मजबूर थे। रीछों ने उन्हें कैदी बनाया और अपने राजा के पास ले गये। राजा ने उन्हें देखा तो बड़े प्रेम से बोला-"तुम राजा सुखपाल के बेटे हो न राजकुमार! आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ। "महाराज! जब हम आपके देश में आ ही गये हैं तो क्या खुशी और क्या गम? हम तो केवल सेवक हैं।

'देखो राजकुमार विजय बहादुर ! मेरी बेटी जवान हो 44 चुकी है। मैं चाहता हूँ कि तुम उस कन्या से शादी कर लो।
विजय का सिर घूम गया। "एक रीछनी की लड़के से शादी.....? हीं....हीं...हीं...." वह काफी देर तक खड़ा सोचता रहा।

रीछ राजा ने जब उसकी ओर से उत्तर न मिलते देखा तो क्रोध में आकर बोला- "इन्हें जेल में डाल दो। ऐसा क्यों महाराज ? "
हमारा कहा जो नही मानता हम उसे जान से मार देते हैं क्योंकि तुम एक राजकुमार हो इसलिये हम तुम्हें जान से न मारकर जेल में ही बन्द करते हैं। तुम्हारे साथी रणवीर सिंह भी तुम्हारे साथ जेल में रहेंगे। जब तुम शादी के लिये तैयार हो जाओगे तो तुम्हें छोड़ दिया जायेगा।"

"शादी...? वह भी इस जादूगर जंगली की लड़की से जो किसी चुड़ैल या भूतनी से कम न होगी। फिर मैं तो रूपपति को दिल दे बैठा हूँ। उससे प्रतीक्षा करने के लिये कह के आया हूँ। नहीं राजा साहब मैं आपकी लड़की के साथ शादी नहीं कर सकता।"

"तो फिर हमारा भी फैसला सुन लो तुम दोनों जीवन भर हमारे देश की जेल में सड़ते रहोगे। यही पर मरोगे।

"मरना तो एक दिन सब ने ही है राजन! फिर हम जेल से डरते नहीं हैं। " उसी समय उन दोनों को पत्थरों की एक गुफा गया। में बंद करके उसके मुँह पर भारी पत्थर रख दिया

रात को विजय ने सपने में देखा कि एक महात्मा जी उसके पास आये और बोले-"देखो बेटा! यदि तुम अपनी रूपमति को पाना चाहते हो तो इस जादूगर की लड़की से विवाह कर लो। नहीं तो यह खूनी तुझे भूख से तड़पा-तड़पा कर मार डालेगा।" उस महात्मा की बात मानकर विजय उस जादूगर रीछ की लड़की से विवाह करने के लिये तैयार हो गया।

राजा ने जब उसे देखा तो झट से बोल उठा-"अरे तुम तो एक रात में ही बोल गये। आ गये न अपनी लाइन पर बोलो शादी करोगे ? "
हाँ करूँगा।वाह! वाह! वाह!" राजा खुश हो गया उसने उसी समय अपने सारे सगे सम्बन्धियों, देश के महान लोगों को बुला कर शादी की तैयारियाँ बहुत जोर-शोर से शुरू कर दीं।

एक दिन विजय के जीवन में वह मोड़ आ ही गया जिसे वह मन से नहीं चाहता था। मजबूरी और समय की मार इन्सान को मजबूर कर देती है। वह न चाहते हुए भी चाहने लगता है। शादी हो गयी। रणवीर बेचारा अकेला रह गया। अब विजय अपनी पत्नी के साथ बुझे हुए दिल से दिन काट रहा था। वह अक्सर उदास ही रहता था।

एक रात विजय ने अपनी पत्नी से अपने मन की बात कह डाली और फिर उससे प्रार्थना करने लगा कि- "यदि तुम मेरी खुशी चाहती हो तो अपने पिता से कहकर दो मास की छुट्टी दिलवा दो ताकि अपने माँ-बाप से मिलकर उन्हें यह तो बता दूँ कि मैं यहीं पर अपना घर बसा चुकी हूँ। "

राजा ने उसकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। विजय और रणवीर एक बार फिर मिले और अपनी प्रेमिका के प्रश्नों के उत्तर की तालाश में चल पड़े।

एक लम्बी यात्रा के पश्चात् वे एक ऐसे स्थान पर जा पहुँचे जहाँ सैकड़ों प्रकार के फल और फूल दूर से ही चमक रहे थे। रणवीर ने विजय का हाथ पकड़ कर जोर से दबाते हुये कहा-"भैया! भाभी को कहाँ छोड़ आये?अरे छोड़! कौन सी भाभी, कैसी भाभी जान बची तो लाखों पाये, लौट के बुद्ध घर को आये।
हा...हा...हा...हा...हा...हा'' दोनों दोस्त खूब हँसे । रणवीर मजाक में बोला "एक था राजा एक थी रानी। बस इतनी सी थी कहानी।"
नेकी कर कुएँ में डाल महात्मा द्वारका जी सुबह उठकर गंगा स्नान करने के लिये जा रहे थे। अंधेरे में उनकी ठोकर किसी ऐसी चीज से लगी जिसके मुख से यही आवाज निकली- "हे राम! आप ही मेरे रक्षक हो। राम का नाम सुनकर महात्मा जी रुके और पश्चाताप के लिये उन्होंने रास्ते में पड़े युवक को अपनी दोनों बाँहो में भर कर उठाया।हे दुःखी प्राणी! आप इस प्रकार मार्ग में क्यों पड़े हो ? इस घने जंगल और पहाड़ों में इस प्रकार से पड़े रहकर रोना कुछ आश्चर्य सा लगता है। "

"प्रभु की माया है स्वामी जी! शुक्र है भगवान का कि - आपने मेरे दुःख को पूछा तो सही बन इस स्वार्थी संसार में लोग दुःखी आदमी का मजाक उड़ाते हैं। कोई भी उसका दुःख सुनने के लिये तैयार नहीं।बेटा! धर्म, दया, प्रेम इस संसार से कभी नहीं मिटते। कुछ मिटता है तो अभिमान। तुलसी जी ने कहा भी है कि दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान तुलसी दया न छोड़िये
जब तक घट में प्राण बेटे अब तो मैं गंगा स्नान करने जा रहा हूँ। मेरी पूजा में विलम्ब हो रहा है। आप सामने मेरे आश्रम में आ जाना। मैं आपके कष्ट दूर करने का प्रयास करूंगा। तुम्हें निराश नहीं होना चाहिये। जीवन के दुःखों से भागना इन्सान की सबसे बड़ी मूर्खता है। साहस से काम लेने वाले लोग ही सफल होते हैं। हर सच्चा ईश्वर भक्त कष्ट तो भोगता ही है परन्तु आत्मिक शांति भी उसे ही मिलती है। "

इतनी बात कहकर महात्मा जी चले गये किन्तु उनका एक-एक शब्द उसके मन में लिखा गया। उनके इन शब्दों ने उसके विचार ही बदल दिये। वह तो आत्महत्या करने के लिये निकला था। वह इस जीवन से तंग आ गया था। इस संसार में सत्यवादी को कौन पूछता है?

महात्मा जी कहते हैं कि "विजय तो सदा सत्य की ही होती है। सत्य, साहस विजय के प्रतीक हैं। फिर मैं क्यों निराशावादी होकर इस जंगल में पड़ा हूँ। मुझे भी साहस से काम लेना चाहिये। मौत से पहले तो इन्सान को हर दाँव लगाना चाहिये। मौत तो कभी भी मिल सकती है लेकिन यह जीवन कभी नहीं मिलेगा। जब तक साँस तब तक आस।"

राजा चन्द्रपाल अर्थात उसके पिता ने केवल उसकी बुद्धि परीक्षा लेने के लिये ही तो प्रश्न पूछे हैं। बस इसी बात से क्रोधित होकर वह मरने चल दिया। आज इस महातमा ने आकर उसकी आँखे खोल दी हैं। उसने मन में ठान लिया कि -"अब मैं मरूँगा नहीं बल्कि संघर्ष करूंगा। प्रभु के सहारे मैं पिता के इन प्रश्नों का उत्तर देकर राजगद्दी पर बैठँगा यही मेरी परीक्षा है।" यह सोचकर वह महात्मा जी के दर्शन करने तथा आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये उनके आश्रम में गया।"आ गये बेटे ?
हाँ स्वामी जी! आपने जीने की राह तो दिखा दी परन्तु उस राह पर चलने की शिक्षा नहीं दी। बस, उसे ही प्राप्त करने के लिये आपकी शरण में आया हूँ। हुक्म करो।"

"स्वामी जी! मेरे पिता राजा चन्द्रपाल ने मेरे सामने तीन शर्तें रखीं हैं। यदि मैं इन तीनों शर्तों को पूरा करूँगा तभी वे मुझको राजगद्दी पर बैठने का अधिकार देंगे।"

"तो क्या हुआ? इसमें कौन सी बुरी बात है? दिल छोटा क्यों करते हो? अपने आप पर विश्वास रखो ईश्वर पर भरोसा रखो। इस संसार में सफलता उसे ही मिलती है. जिसका तन-मन साफ हो। जिसे प्रभु पर भरोसा हो वह इन्सान तीन प्रश्न तो क्या तीन सौ प्रश्नों का भी उत्तर दे सकता है। क्या तुम मुझे बता सकते हो कि उसने कौन तीन प्रश्नों का उत्तर पूछा है?

उनका पहला प्रश्न है कि हिमालय पर्वत पर एक ऐसी गुफा है जिस तक कोई भी इन्सान नहीं गया। इसका हाल पता करना ?

उनका दूसरा प्रश्न है कि मंगल की रात को जंगल से एक रहस्यमय आवाज आती है कि-मुझे इस बात का बहुत दुख है
है कि जो काम करना था वह काम मैंने किया नहीं। वही काम मेरे काम आने वाला था। आखिर ऐसा क्यों?'
उनका तीसरा प्रश्न है कि जो हीरा साँप के मुँह में से होकर उसके पेट में बसा है वहलाकर दो ?"

'साधु बोले! बस यही तीन प्रश्न आपके लिये बोझ बन 44 गये हैं? अरे भले इन्सान यह सब काम तो तुम बड़े आराम से कर सकते हो। जाओ मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। "

साधु का आशीर्वाद पाकर वह बहुत प्रसन्न हुआ। अब उसमें यह विश्वास पैदा हो गया था कि-"मैं यह काम पूरा कर लूँगा। अब मैं अपने पिता को अपनी योग्यता सिद्ध करके दिखा दूँगा। उन्हें मजबूर होकर यह कहना ही पड़ेगा कि उस राजगद्दी का अधिकारी मैं ही हूँ। "

जब वह अपने शाही महल से बाहर निकल रहा था तो उसे रास्ते में राजकुमारी सत्यवती मिली थी। वह अपने पिता वीरसिंह के साथ ही अपने घोड़े पर चल रही थी। आश्चर्य की बात तो यह थी कि राजकुमारी ने वही प्रश्न उसके सामने रखे थे और साथ में यह भी कहा था-"मेरे सपसनों का राजकुमार तो वही होगा जो मेरे प्रश्नों को पूरा करके दिखाएगा।' करने का जो फैसला किया था उसे मन से निकाल दिया। दृढ़ विश्वास के साथ वह आगे बढ़ रहा था। महात्मा जी ने उसे जो मार्ग दिखाया था। उसी पर चलते हुए वह उस विचित्र गुफा तक पहुंचा था।

जैसे ही वह उस गुफा के अन्दर गया। सीधा जाकर एक पानी के तालाब में जा गिरा। उस तालाब में चौबीस घंटे तक गोते खाता रहा। इस के पश्चात् ही उसके पाँव धरती पर टिक सके। तालाब से बाहर निकला तो सामने एक ऊँची दीवार थी जिसमें एक लकड़ी का द्वार लगा हुआ था। प्रताप ने द्वार को धक्का देकर खोला तो उसके अन्दर एक पूरी बस्ती बसी हुई थी जिसके अंदर बड़े-बड़े सुन्दर मकान थे। उन मकानों से बहुत से काले देव निकल कर उसकी ओर दौड़ पड़े।

इससे पहले कि वे काट कर खा जाते तो एक देव बोला-"ठहरो! इसे कोई भी देव खाने की भूल न करे। यह तो एक मानव है। इसका माँस तो बड़ा स्वादिष्ट होता है। इसे तो केवल हमारा राजा ही खायेगा।
दूसरा देव बोला-"देखो राजा की बेटी की आँखो में दर्द है। शायद यह उसे ठीक कर दे।

बात ठीक थी। वे लोग प्रताप सिंह को पकड़ कर अपने राजा के पास ले गए और उसके कान में सारी बात बताई तो राजा उससे बोला "देखो! हमारी बेटी की आँखे बहुत खराब हो चुकी हैं। बहुत दवा-दारू की पर फिर भी वह ठीक नहीं हो पाईं। यदि तुम उसकी आँखों को ठीक कर दोगे तो हम तुम्हें बहुत इनाम देंगे।'

"ठीक है महाराज!" यह कहते हुए उसने अपनी अँगूठी में जड़ा मोहरा पानी के गिलास में घोल कर राजा के हाथों में देकर कहा- "आप यहपानी उसे इसी समय पीला दो।"

राजा ने जैसे ही वह पानी अपनी बेटी को पिलाया तो .राजकुमारी अपने आप बोल उठी-"मेरी आँखें ठीक हो गई हैं। अब मुझे दर्द महसूस नहीं हो रहा है। मैं ठीक हो गई हूँ। लड़की खुशी से नाचने लगी।

राजा ने प्रताप की बड़ी ही प्रशंसा की। जादूगरों के देश में दूसरा जादूगर यह तो आश्चर्य की बात थी। अपनी बेटी को ठीक होते देख कर राजा ने प्रताप को अपने पेट का रोग भी बताया कि-"मैं पिछले कई सालों से पेट के रोग से दुःखी हूँ।"

'आप खाना कैसे खाते हैं? " प्रताप ने पूछा।हम सब लोग एक साथ बैठकर खाना खाते हैं।तो ठीक है। आज रात के खाने पर मैं भी आप के पास बैदूंगा।" "ठीक है आप भी आयें और हमारे साथ खाना खायें।" उसी रात सब लोग एक साथ खाने पर बैठे। प्रताप ने देखा अनेक प्रकार के भोजन मेज पर सजा कर रखे गये थे। बादशाह खाना शुरू करने लगा तो प्रताप ने कहा-"ठहरो!"
राजा का हाथ वही रुक गया। प्रताप ने माँस से भरे बर्तन का ढक्कन उठाया और उसे सब लोगों ने बड़े ध्यान से देखा। देखने के पश्चात् उसे फिर ढक्कन से ढक दिया गया। थोड़ी देर के पश्चात् उसे फिर उठा दिया गया तो उस बर्तन में कीड़े ही कीड़े भरे पड़े थे। सब ने आश्चर्य से उसे देखा।

प्रताप ने राजा से कहा-"आपने जो खाने के बर्तन में कीड़े देखे हैं यह सब उस नजर का फल है जो आप सब लोगों के सामने खाना खाते हो। आज के बाद आप यह निर्णय कर लें कि आप जब कभी भी भोजन करेंगे तो केवल अकेले में। "

प्रताप की बात उसके मन को भा गयी। तब राजा ने बड़े सम्मान से अपने पास बैठाया और गले से कर, बोले-"तुम हमारे विशेष मेहमान हो। हमारे खजाने से कुछ भी माँग सकते हो। हम खुशी से तुम्हें देंगे। इस गुफा में आप पहले मानव हो जो जीवित बचकर जाओगे। केवल जीवित ही नहीं बल्कि हमारा मन जीत कर जा रहे हो। "

राजा जी आपने मेरा इतना सम्मान किया यह मेरे लिये खुशी की बात है। आप मुझे इनाम देना चाहते हैं। इसके लिये एक बार फिर से धन्यवाद करता हूँ क्योंकि मेरे पास ईश्वर दिया सब कुछ है। बस मुझे तो आपका यह प्रेम ही मिल जाये तो मेरेलिये बहुत है। और कुछ न सही तो जाते समय एक उपहार तो हमारी ओर से ले जाओ। हम लोगों के दिल तुम ने जीत लिये हैं। "

यह कहते हुए राजा ने अपने गले में पहना मोतियों का हार उसको उपहार के रूप में दे दिया।अब आप मुझे अपने देश भेजने का प्रबन्ध भी कर दें तो आपकी अति कृपा होगी।
क्यों नहीं!" राजा ने उसी समय एक काले देव को बुला कर कहा कि-"हमारे मेहमान को इसी समय इसके घर तक पहुँचा कर आओ।"

काला देव प्रताप को अपनी पीठ पर बैठाकर उड़ता हुआ उसके घर छोड़ आया।प्रताप सिंह अपने पिता के पास जाकर उनसे उस रहस्यमय गुफा की पूरी कहानी सुना रहा था। प्रमाण के लिये उसने मोतियों का हार राजा को दिखाया वह अपने बेटे की बहादुरी की प्रशंसा करने लगे।
बेटे की सफलता से बाप को बहुत खुशी हुई थी। परन्तु अभी उसने केवल पहली परीक्षा ही पास की थी। अभी उसकी दो परीक्षाएँ बाकी थीं।

उधर राजकुमारी प्रताप सिंह राजकुमारी सत्यवती से मिला तो उसने उसके भी पहले प्रश्न का उत्तर दे दिया तो वह बहुत खुश हुई। असल में वह राजकुमार से प्रेम करने लगी थी। वह मन से यही चाहती थी कि राजकुमार अपनी परीक्षा में सफल हो जाये। जिससे उसको बुद्धि और शक्ति का पता चल सके।

अब राजकुमार के सामने दूसरा प्रश्न था-"एक ऐस रहस्यमय आवाज जो केवल मंगलवार को ही सुनाई देती है। जिसके कारण गाँव ज्वालपुर के सब लोग हर समय ही डरे रहते थे। उस गाँव वासियों के डर का सबसे बड़ा कारण यह भी था कि उसे जो भी सुनता था उसका पूरा शरीर काँपने लगता था। कुछ लोग तो ऐसे डर गए थे कि पागल होकर अपने घर छोड़कर भाग गये थे।
प्रताप सिंह ऐसे ही घटनाओं के लिये ही घर से निकला था। एक गाँव से दूसरे गाँव, दूसरे से तीसरे गाँव, जंगलों, नदियों, नालों को पार करता हुआ वह एक ऐसे गाँव में जा पहुँचा जिस गाँव के सब लोग इकट्ठे होकर रो रहे थे। प्रताप ने उन लोगों के पास जाकर पूछा-"भाई लोगों! आप सारे के सारे इस प्रकार से क्यों रो रहेहो ?"

उनमें से एक आदमी ने उठकर रोते-रोते कहना शुरू किया-"भैया! क्या बताये? हमारे गाँव में मंगलवार के दिन पहले तो तेज आँधी आती है फिर काले बादल और उसके पश्चात् एक भूत आता है। जो गाँव के किसी न किसी आदमी की हत्या करके उसे खा जाता है। हमारे गाँव वालों ने मिलाकर यह निर्णय किया था कि हम अपनी इच्छा से हर मंगलवार किसी भी एक प्राणी को स्वयं ही भूत के हवाले कर देंगे। इससे केवल एक ही आदमी को उसका डर सताएगा। शेष तो चैन की नींद सोयेंगे।

आज हमारे गाँव के सरदार के बेटे का नम्बर आ गया। दुःख तो इस बात का है कि सरदार का वह अकेला बेटा है। उनके वंश का तो बीज नाश हो जाएगा। बस इतनी सी बात के लिये पूरा गाँव रो रहा है?"

"हाँ तो फिर आप सब लोग रोना-धोना बंद करो। आप उस बच्चे को बच्चा सकते हैं। सारे गाँव वाले आचर्य से उसकी ओर देखने लगे थे-"वह कैसे?
मुझसे कुछ भी मत पूछो। अब मैं आप लोगों को जो कुछ भी कहता जाऊँ वही करते जायें। " "ठीक है! आप हुक्म करो।
"देखो सबसे पहले मुझे एक बहुत बड़ा शीशा ला कर दो और उसे स्थान पर लगवा दो जिधर से वह भूत आता है।"
ठीक है बन्धु! ऐसा ही होगा।" गाँव का मुखिया सरदार अपने बच्चे को बचाने के लिये पूरी भाग दौड़ कर रहा था। उसने झट से एक बहुत बड़े शीशे का प्रबंध किया और उसे उसी स्थान पर लगवा दिया जिधर से वह भूत आया करता था। उस शीशे को एक कपड़े से ढक कर प्रताप सिंह उसके पीछे छुप गया। आधी रात को प्रताप के कानों में बड़ी भयंकर आवाज सुनाई दी- "हू हू हू हू हू हू हू ।ही... ही ही ही ही...

उन आवाजों को सुनते ही पूरे गाँववासी बुरी तरह डर गये थे। मुखिया बेचारे की तो हालत खराब थी। वह बार-बार अपने बेटे की ओर देख रहा था। उधर प्रताप सिंह समझ गया था कि भूत आ चुका है। अब वह मुखिया के लड़के की तलाश में होगा। प्रताप ने शीशे के पीछे बैठे-बैठे ही उसका ऊपर का कपड़ा हटा दिया। भूत ने अपनी ही तस्वीर सामने लगे शीशे में देखी तो वह समझा शायद एक और भूत उसे मारने के लिये आ गया है। क्रोध के मारे वह और भी अधिक भयंकर आवाजें निकालने लगा। फिर काली आँधी आयी। काले बादल चारों ओर से घिर-घिर कर आ गये।"

प्रताप ने सूखी लकड़ियों में आग चारों ओर लगाकर उनमें गूगल की धुनी और लहसून को जला दिया। जिसका प्रबंध उसने पहले से ही कर रखा था। काला भूत अपनी ही छाया से युद्ध कर रहा था। उसे इस बात का जरा सा भी पता प चल सका कि उस आग के चारों ओर प्रताप ने लोहे से लकीर खींच कर उस पर लोहे के खूँटे गाढ़ दिये हैं। फिर गायत्री मंत्र का पाठ करने लगा।

वह भूत भागने की तैयारी करने लगा किन्तु भागता कैसे प्रताप ने तो आग जलाकर लोहे के खूँटों से पहले से ही बाँध रखा था। उसके भागने के रास्ते बंद हो चुके थे। अब जाये तो कहाँ जाये ?

आग बराबर उसकी ओर निरंतर बढ़ रही थी। देखते ही देखते वह भूत आग में जल गया। गाँव वालों ने उसकी अंतिम चीख सुनी। अब उन चीखों में डर नहीं था बल्कि ऐसा लग रहा था जैसे कोई दया की भिक्षा माँग रहा हो।
काले, भूत का अंत हो गया था। उस गाँव के लोगों कि मन से भूत के साथ-साथ मौत का डर भी समाप्त हो गया था, किन्तु एक बात जो सबसे विचित्र थी कि अब मंगलवार की रात को फिर से ऐसी ही आवाजें आने लगी थी।

-प्रताप सिंह को जब गाँव के लोगों ने बताया कि भूत के मरने के पश्चात् भी मंगलवार की रात को भयंकर आवाजें सुनाई देती हैं तो प्रताप की समझ में यह बात नहीं आयी।
उसने जब रात के समय उन आवाजों को सुना तो उसे पता चला कि ये एक भूत नहीं बहुत से लोगों की आवाजें हैं। वह रात के समय उठकर उन आवाजों की तरफ चल दिया। चलते-चलते वहश्मशान भूमि में जा पहुंचा।

उस समय जब इतना थक चुका था कि उसमें आगे चलने की हिम्मत ही नहीं थी। उसने सोचा कि "क्यों न यहीं पर कुछ देर आराम कर लूँ।"यही सोचकर वह एक कोने में हरी-हरी घास पर सो गया।
आदमी के मन में डर भरा हो उसे नींद कहाँ आती है? कितनी ही देर तक वह करवटें बदलता रहा। सहसा उसने देखा कि आस-पास की सारी अधजली चिताओं की आग भड़क उठी है। हर चिता की राख से एक-एक बूढ़ा निकला जिसके शरीर पर सफेद चादर थी।

एक बूढ़े ने घास पर ही सफेद चादर को बिछा दिया उस पर के सब बूढ़े बैठ गये। थोड़ी देर के पश्चात् एक समाधि में से एक आदमी निकला। उसके कपड़े भी बड़े पुराने थे। शक्ल से बड़ा ही दुःखी और उदास लगता था। वह उन सब से अलग-अलग होकर बैठ गया। शेष सब लोग चाय-कॉफी पीने लगे। मगर उस बेचारे को किसी ने भी आकर न कहा कि "तुम भी चाय पी लो।"

वह बेचारा उन सब को चाय, काफी पीते देखकर ठंडी आहें भरते हुए कहने लगा- "मुझे दुःख है कि मैंने वो काम न किया जो आज की रात मेरे काम आता।" देखते-देखते सबके आगे बड़ा स्वादिष्ट भोजन आ गया। उसकी थाली में कंकर-पत्थर रखे थे।

प्रताप एक कोने में छुप कर यह सारा दृश्य देख रहा था। न जाने कैसे उन लोगों की नजर प्रताप पर पड़ गयी। तभी उनमें से एक ने एक खाने की सजी थाली प्रताप के आगे भी रख दी। तब प्रताप ने उस आदमी से पूछा-"भैया! उस बेचारे का क्या दोष है जो आप उसे पत्थर और कंकर खाने को दे रहे हैं?"
"इस प्रश्न का उत्तर यदि आप स्वयं ही जाकर उस आदमी से पूछेंगे तो अधिक उचित रहेगा।ठीक है। अब मैं स्वयं ही उससे बात करता हूँ। यह कहकर प्रताप सीधा उस आदमी के पास पहुँचा। उसे नमस्कार करके वह उसके पास ही बैठ कर पूछने लगा कि-"आपके साथ ऐसा व्यावहार क्यों हो रहा है?"

उसे बेचारे के मुहँ से तो कुछ न निकला परन्तु आँखों से बहते आँसू उसकी दर्द भरी कहानी सुनाने के लिये व्याकुल हो रहे थे। थोड़ी देर के पश्चात् उसने अपने आँसुओं पर काबू पाते हुए कहना शुरू किया-"तुम पहले आदमी हो जिसे मेरी इस हालत को देखकर दया आयी है। बर्ना मेरे साथ तो कोई भी हमदर्दी करने को तैयार नहीं।

"बस....बस....! आप रोना बंद कर दें। आँसू बहाने से कुछ नहीं मिलता। इससे तो केवल अपने मन की आग को शांत कर सकते हैं। मैं तो केवल आप की इस हालत के बारे में जानना चाहता हूँ कि इसका कारण क्या है?'

"देखो भाई! मेरा नाम धनीराम है। मैं बड़े गरीब घर में पैदा हुआ था परन्तु कमाने के रास्ते मुझे पता चल गये। मैंने हर उल्टे-सीधे मार्ग से खूब धन कमाया। नाम धनीराम था तो काम से भी धन ही धन हो गया। धन मैंने खूब कमाया और कमाता ही चला गया परन्तु उस धन को तिजोरियों में ही बंद करके रखा। न तो कहीं दान दिया और न ही किसी के भले के लिये उसका उपयोग किया।धन धन धन
धन कमाने और धन इकट्ठा करने में ही लगा रहा। यहाँ तक कि जिस मंदिर में हर दिन सुबह के समय पूजा करने जाता था उस मंदिर को भी भूल कर घर पर ही मंदिर बनवा लिया। सत्य बात तो यह थी कि धन अधिक होने के कारण मैं अपने माता-पिता, बहन-भाइयों, मिंत्रों तक को भूल गया। मैं और मेरा धन, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे। इन सबके सिवा मुझे कुछ याद नहीं रहा। यही मेरा मेरा सब कुछ बन गया था।

एक दिन मेरा यह अभिमान टूट गया। जब डाकुओ ने आकर मेरा सब कुछ लूट लिया। उसी गम में घुल-घुल कर मेरी मृत्यु हो गयी। मरने के पश्चात् तो मेरा कोई साथी नहीं रहा था। सब कुछ छूट गया। धन, बीवी, बच्चे सब के सब छूट गये।

आज मेरी औलाद धक्के खा रही है क्योंकि धन के नशे में अंधे होकर अपने अभिमान में रहते हुए औलाद ने कभी काम जल्द से जल्द करके आपको इन सब कष्टों से मुक्ति दिलवा दूंगा। साथ ही आपकी संतान के भी सब दुःखों से दूर कर दूँगा।"

यह सब बातें उसे कह कर मैं जाने के लिये उठा तो मुझे धनीराम की हालत देखकर बहुत ही दुःख हुआ और सोचने लगा कि- "इन्सान का जीवन क्या है? कुछ भी तो नहीं। वह अपने साथ लाता क्या है और क्या ले जाता है धन कमाते-कमाते वह पागल हो जाता है। उस इन्सान से बड़ा पागल कौन हो सकता है जो सारी आयु धन कमाता है, अपने स्वार्थ के लिये झूठ बोलता है। दुनिया भर से धोखे करता है। पाप करता है, और अंतिम समय खाली हाथ जाता है ?

यही नहीं मरने के पश्चात् उसे भगवान के घर में अपने पापों का जो दंड मिलता है उसे बाँटने वाला कोई नहीं। संसार के सब अमीर लोगों को कंकर-पत्थर ही खाने को मिलते हैं।" यही सोचता हुआ प्रताप सिंह वहाँ से चल दिया।

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