मॉटरनी का बुद्धु - (भाग-10) सीमा बी. द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मॉटरनी का बुद्धु - (भाग-10)

मॉटरनी का बुद्धु---(भाग-10)

"मॉटर जी, मुझे संभव को अच्छे से प्रिपेटरी स्कूल में डालना है...उसका बेस अच्छा होगा तभी आगे बढेगा फिर सभ्यता को भी आगे पढाना होगा, ढूँढिए कोई स्कूल", मॉटरनी ने तो अपना फरमान सुना दिया पर भूपेंद्र जी सोच में पड़ गए। " मॉटरनी जी इस गाँव में ऐसा कोई स्कूल नही है, उसके लिए तो शहर रहना पड़ेगा और अपनी तो जॉब यहीं है तो बताओ कैसे करे"? "देखो ये तुम समझो, यहाँ सरकारी स्कूल में 6Th से अंग्रेजी शुरू होती है, बताओ बच्चे कैसे सब सीखेगें", भूपेंद्र की बात सुन कर संध्या भी अड़ गयी। द्ददा, माँ और बाबा बेटे बहु की बातें सुन और समझ रहे थे और जानते थे कि उनकी बहु गलत नहीं कह रही।" संधु अगर City के अंदर जाना है तो 45 मिनट लगेगे एक साइड के तो बताओ कितना टाइम वेस्ट होगा"?"तुम ठीक कहते हो पर कोई और रास्ता"? जिससे हम संभव को स्कूल जैसा माहौल दे सके, क्योंकि घर में तो मर्जी करने लगता है", संध्या की बात सुन कर वो बोले," मैं जल्दी ही कुछ सोचता हूँ तुम टैंशन मत लो"! 2-3 दिन बीत गए दोस्तो से बातचीत करके हल निकालने में पर कुछ समझ नहीं आ रहा था तो भूपेंद्र ने घर आ कर संध्या को कहा," संधु ऐसा करो तुम अब सही में मॉटरनी बन जाओ, मैं पास में ही तुम्हें एक दो कमरो का घर दिलवा देता हूँ तुम अपना किंडर गार्डन खोल लो.....सब बच्चों को शुरू में फ्री पढाओ, देखो कितने बच्चे आते हैॆ फिर आगे का सोचेंगे"! तुम तो बहुत ही होशियार निकले मॉटर जी... घर में इतने काम होते हैं, वो कौन संभालेगा जो एक और काम बता रहे हो"!" बिल्कुल सही कह रहा है भूपेंद्र, तुम बच्चों को पढाओ घर के काम हो जाँएगे उसकी चिंता न करो बहु", माँ की बात में द्ददा और बाबा ने भी सहमति जता दी और बन गया एक छोटा सा किंडर गार्डन। थोड़ी मुश्किले आयीं पर सबने मिल कर संभाल लिया। महेश और उसकी बीवी ने खूब मदद की, शुरूआत में 5-7 बच्चों से शुरू किया, द्ददा और बाबा ने बहुत साथ दिया। छोटे बच्चो को पढाती संध्या थी पर उनकी साफ सफाई का ध्यान द्ददा और बाबा खुशी खुशी रखते। बच्चे स्कूल आएँ इसके लिए बाबा कभी फल तो कभी चॉकलेट ला कर बच्चों को खिलाया करते। बच्चे आते गए और लोग जुड़ते गए। 1-2 लड़कियों को संध्या ने हेल्प के लिए रख लिया और एक काकी को आया का काम बता दिया गया। थोड़ी सी फीस जरूर रखी गयी जिससे फ्री की आदत न हो जाए सबको और खर्चे भी निकलते रहे। संभव को पूरे 2 साल दिए संध्या ने जिससे वो अपना इंटरव्यू को आसानी से पास कर गया। इस बीच द्ददा जी नहीं रहे, एक दिन सोए और सोते ही रह गए, पर अंतिम समय उनका सुख में बीता इसका सुकून था सबको। उनके बेटों को खबर पहुँचा दी गयी, पर अंतिम संस्कार वो पहले ही बोल कर गए थे कि भूपेंद्र को करना है,जिससे उनका परिवार नाराज हो गया पर भूपेंद्र ने द्ददा की इच्छा पूरी की। द्ददा जी के जाने के बाद माँ और बाबा ने चारो धाम की यात्रा पर जाने का मन बना लिया तो तीनो भाइयों ने सब इंतजाम करके एक बस जो यात्रा करवा रही थी, उसमें भेज दिया। संध्या का छोटा सा स्कूल चल निकला था। इन दो सालों में भूपेंद्र जी ने कोशिशे करके अपना तबादला बरेली में करवा लिया। संध्या स्कूल को छोड़ बरेली आ गयी। स्भव का एडमिशन हो ही गया था, अब सभ्यता को पढाना था, उसे थोड़ी देर स्कूल भेज देती ताकि बैठने की आदत बने पर पढाने के लिए वो स्कूल पर डिपैंडेंट नहीं रही, उसे घर पर पढाती। बच्चों के पढने की किताबें, कहानियाँ, कॉमिक्स सब मँगवाती जिससे संभव मजे मजे में खूब पढे।भूपेंद्र जी बच्चों को लेकर बेफिक्र थे, क्योंकि उनकी मॉटरनी बहुत अच्छी माँ भी थी। कितने निश्चिंत हो कर उन्होंने नौकरी की.......कई बार कहते "संधु किसी बहुत पैसे वाले से शादी करती दिल्ला या किसी बड़े शहर में रहती तो तुझे इतनी मेहनत न करनी पड़ती", तो वो कहती," हाँ सही कह रहे हो मॉटर जी पर का करे मॉटरनी का दिल अपने बुद्धु पर जो आ गया....कहते है न दिल आया बुद्धु पर तो टाटा बिरला क्या चीज हैं"? संध्या ऐसे ही कहावतों को मिला कर अपनी नयी कहावत गढ़ देती और वो समझ ही न पाते कि कैसे रिएक्ट करें, बस मुस्कुरा कर उसे देखते रहते और कोई गाना गुनगुना देते। उसे भूपेंद्र जी की आवाज में गाने सुनना बहुत पसंद था। जब भी अच्छे मूड में होती तो फरमाइश कर देती," मॉटर जी आज गाना सुना दो", वो बिना आनाकानी किए शुरू हो जाते और वो आँखे बंद करके उनके सीने पर सर रख लेट जाती। "पापा, पापा" की आवाज उन्हें वापिस ले आयी....संभव ने कमरे की लाइट को ऑन कर दिया। "क्या हुआ बेटा", भूपेंद्र जी उठ कर बैठ गए। " पापा चलो आप चाय पी लिजिए, मैं मॉम के लिए दूध लाया हूँ"! "हाँ पिलाओ दूध मॉटरनी को अब सब रिवर्स में हो रहा है बेटा, पहले ये हम तीनों को खिलाती पिलाती रहती थी, अब ये मजे में है और हम तीनो इसके आगे पीछे घूमते रहते हैं", कह कर हँस दिए और फ्रेश होने चले गए।
"जी पापा आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, पर मॉम को ज्यादा दिन मजे नहीॆ करने देंगे, जल्दी से उठ कर इन्हें ही सब संभालना पडेगा"! बाथरूम में भूपेंद्र जी संभव की बातें सुन रहे थे और अपनी नम हुई आँखो को पानी से धो रहे थे। बच्चे को साथ चाय पी कर संभव को ले कर बाजार चले गए। उसके लिए फार्मल कपड़े खरीदे और थोड़ा बहुत सामान भी ले लिया। सभ्यता अपनी मॉम के पास बैठे पढ़ रही थी। वो अपना ज्यादा से ज्यादा वक्त किताबों को देती थी क्योंकि दोस्त या सहेलियाँ उसकी थी नहीं.... मॉम के होते उसको किसी दोस्त की जरूरत नहीं लगी और उसके बीमार होने के बाद वो दोस्त बना नही पायी। कितना नाराज होते थे पापा जब मॉम उसे खाना सर्व करने को कहती या अपने पास खड़ा करके चाय बनवाती। 7Th में आने के बाद से डिनर के टाइम दो रोटी जरूर बनान पड़ती जो हमेशा मॉम ही खाती।आगे के 2 सालो में वो चावल, दाल बनाना सीख गयी। कभी कभार सब्जी भी माँ के सामने बना लेती। आज वो सोचती है तो उसे लगता है कि मॉम कितनी दूर का सोचती थी, तभी तो जब वो बीमार हुई तो धीरे धीरे दादी के साथ सब संभाल लिया उसने। दादा दादी भी तो एक साल में ही भगवान जी के पास चले गए, नहीं तो वो कुछ दिन गाँव रह कर फिर आ जाते थे उनके पास तो पापा और दोनो बहन भाई खुश रहते थे। घर की घंटी बजी तो वो दरवाजा खोलने गयी। पापा औऱ भाई आ गए थे। संभव उसे शॉपिंग करके क्या क्या लाए वो दिखाने लग गया और भूपेंद्र जी कपड़े बदलने चले गए। लीला काकी खाने की तैयारी करने लगी। भूपेंद्र जी के कमरे की सारी दीवारे तस्वीरों से सजी हैं। बच्चों के पैदा होने से लेकर बड़े होने की... पति पत्नी की कई तस्वीरे लगी हैं और बीच में संध्या और उनकी बड़ी सी फोटो लगी है। कमरे में आ कर वो बस अपनी यादों में खो जाते हैं....हर फोटो के पीछे की कहानी उन्हें याद आने लगती हैं, ये तो उनके साथ हमेशा ही होता है पर अभी के लिए अपनी यादों को झटक बाहर संभव के पास आ गए। वो ज्यादा से ज्यादा वक्त संभव के साथ बिताना चाह रहे थे। संभव टी.वी देख रहा था। उसने बताया कि, "दोनो चाचा चाची और बच्चे संडे को मिलने आ रहे हैं"। "ये अच्छा हुआ मैं सोच रहा था कि तुम जा कर एक बार मिल लो सबसे, पर उनका आना ठीक है, मेरा भी सबसे मिलना हो जाएगा"।"हाँ पापा, इसलिए ही मैंने उन्हें फोन करके बुला लिया है", संभव ने कहा तो वो मुस्कुरा दिए। रमेश और महेश ने हमेशा उन्हे बाबा सा सम्मान दिया है ,बाबा थे तब भी और जब वो नहीं है तब भी। दोनो की पत्नियाँ भूल से भी ऐसी कोई बात नहीं कहती या करती जिससे उनके पति नाराज हो जाएँ। उन दोनो ने बहुत कोशिश की पर न तो तीनो के मन को बााँट पायी और न ही जमीन को। वो आज भी बटाई पर चल रही है और महेश की देखरेख में है तो भूपेंद्र जी को चिंता नही है। महेश की पत्नी को मंझली भाभी का व्यवहार पसंद तो नही है पर निभाना ही है, पति की बात को मान कर चुप ही रहती है। संध्या के साथ सबकी बनती थी और संध्या के होते हुए तीनो भाइयों को औरतो की बातों से कोई मतलब नहीं होता था। सब रिश्तों की डोर को संध्या और माँ ने संभाला हुआ था।
क्रमश: