Motorni ka Buddhu - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

मॉटरनी का बुद्धु - (भाग-7)

मॉटरनी का बुद्धु....(भाग-7)

"पापा आप अभी तक लेटे हैं? आपकी तबियत तो ठीक है न"? संभव ने कमरे की लाइट ऑन की और भूपेंद्र जी के माथे को छू कर देखा। " मैं ठीक हूँ शायद आँख लग गयी थी और टाइम का पता नहीं चला, तुम कब आए"? "पापा थोड़ी देर पहले ही आया, खाना तैयार है चलिए डिनर कर लेते हैं", संभव ने कहा तो भूपेंद्र जी बिस्तर से उठ बैठे, "तुम चलो मैं अभी आता हूँ", कह कर बाथरूम में चले गए। संभव अपनी मॉम पर एक नजर डाल बाहर चला गया। भूपेंद्र जी आए तब सभ्यता ने सबको खाना परोसा, "काकी चली गयी"? "हाँ पापा वो 7 बजे चली गयी थीं। अब वो सुबह का नाश्ता और दोपहर का लंच बना कर चली जाती हैं और शाम को 5 बजे फिर से आ जाती हैं, कह रही थी कि उनकी बेटी के भी 12 वीं के एग्जाम हैं तो घर के काम होते हैं", सभ्यता ने बॉउल में दाल डालते हुए कहा तो भूपेंद्र जी बोले," हाँ ठीक है, पूरा दिन वो यहाँ बैठ कर क्या करेगी"! "संभव बेटा तुम लिस्ट बना लो क्या क्या चाहिए फिर संडे को जा कर सब ले आएँगे"। "पापा अभी मुझे कुछ नहीं चाहिए.. एक बार वहाँ जा कर देखता हूँ, फिर सब कुछ तो है, जो नहीं होगा वो वहीं से ले लेंगे यहाँ से सब कुछ ले कर जाने की क्या जरूरत है", संभव की बात भूपेंद्र जी को ठीक लगी। "ठीक है बेटा, मैंने तेरे नानाजी को कह दिया है वो वहाँ अरैंज करवा देंगे पर वो जिद कर रहे थे कि तुम उनके साथ रहो"!
सभ्यता----" वाहहहह ये तो ठीक है भाई"।
संभव--- "पापा मैं नानी घर एक दो दिन के लिए चला जाऊँगा पर मैं ऑफिस के आस पास रहूँगा, वैसे भी शुरू के कुछ दिन ऑफिस वाले हमारे रहने का अरैंज करेंगे"।
भूपेंद्र जी--- "मैं भी यही चाहता हूँ कि तुम कम से कम ट्रैवल करो पर तुम्हारे नाना को फोन पर समझाना मुश्किल था सो ये काम वहाँ जाकर तुम करना, अपनी जॉयनिंग से 2-3 दिन पहले निकल जाओ तो पहले से सब देख लेना ठीक रहेगा"।
संभव--- " पापा आप दोनो मुझे छोड़ने नहीं जाओगे"?
भूपेंद्र जी--- "आना तो चाहता हूँ पर तेरी माँ को अकेला कैसे छोड़ कर जा सकता हूँ"?
संभव --- "कोई बात नहीं पापा मैं चला जाऊँगा और वीकेंड पर आऊँगा आप तीनों से मिलने"।
भूपेंद्र जी--- "एक बार सभ्यता के पेपर हो जाएँ तो इसे भेज दूँगा कुछ दिन के लिए तेरे पास"!
सभ्यता--- बाद की बाद में सोचेंगे, मैं तो अभी से मिस करने लगी हूँ तुम्हे भाई।
संभव--- "तू ज्यादा नौटंकी मत कर, जल्दी से खाना खा और जा कर पढाई कर"।
खाना खा कर सब अपने अपने कमरों में चले गए। खाने के बाद कुछ मीठा खाए बिना संध्या को चैन नहीं पड़ता था। गर्मियों में आइसक्रीम या पान और सर्दियों में तो गुडपारे या गज्जक जरूर खाती थी, कभी कुछ न होता तो गुड़ ही खा लेती। भूपेंद्र खीज जाता था कई बार क्योंकि उनको मीठा जरा भी पसंद नहीं था, पर अब वही मीठा भओई उन्हें मीठा नहीं लगता, इन्हीं ख्यालो में खोए हुए खाने के बाद हाथ अपने आप ही गुड़ की तरफ बढ़ गए.....। कमरे में आए और सबसे पहले संध्या का बिस्तर चैक किया, डाइपर बदला और उसके सर और बालों को सहलाते हुए पास रखे स्टूल पर बैठ गए और बोले, "संधु तेरे संभव को अकेला भेज रहा हूँ दिल्ली, तू ध्यान रखना उसका, पापा को बोल दिया है वो वहीं जाएगा सीधा अपने नाना के पास तो चिंता थोड़ी कम है"। "तुम काहे चिंता करते हो मॉटर जी, हमारा बेटा जिम्मेदार और समझदार है सब संभाल लेगा", फिर से जो सुनने का दिल करता है भूपेंद्र जी का वही खुद दोहरा दिया। कई बार वो संध्या को अपनी जगह रख कर भी सोच लिया करते हैं कि वो ऐसे में क्या कहती या क्या करती? कुछ देर ऐसे ही बैठे रहे फिर बेड पर संध्या के बगल में जा कर लेट गए, यादें फिर उन्हें पुकार रही थी और उन्होंने भी बिल्कुल आना कानी नहीं की यादों में खो जाने से और पहुँच गए अपनी झाँसी की रानी के पास। आस पडो़स में संध्या और उनके व्यवहार से सब बहुत खुश थे। सामने वाले घर में एक पति पत्नी किराए पर रहने आए। मिश्रा परिवार था, दोनो ही प्राइमरी टीचर थे पर अलग अलग स्कूल में। कुछ दिन तो लगे जानपहचान में पर सुबह सुबह स्कूल जाने का लगभग एक टाइम होने से दोस्ती भी जल्दी हो गयी। भूपेंद्र उन्हें सर और मैडम ही कह कर बुलाया करते थे, पर संध्या संजय भैया और रेखा भाभी कह कर बुलाती थी। उन लोगो की शादी को तब 2 साल हो चुके थे। संभव को मिलने के बहाने या फिर चाय पर अक्सर संध्या बुला लेती थी या फिर यूँ कहा जाए कि मिश्रा मैडम खुद को इंवाइट करवा लेती थी, तो संध्या भी क्या करती? जान पहचान पुरानी होती गयी और पति पत्नी के कलह क्लेश की बातें सामने आती गयी। पहले धीरे धीरे शायद लड़ते थे पर फिर लडा़ई की आवाजें पड़ोसियों को आने लगी तो संध्या ने किनारा करना शुरू कर दिया पर रेखा भाभी को तो संध्या से बातें करना अच्छा लगता था और जाते जाते अपने पति को काबू में रखो की बिन माँगी राय दे जाती। मिश्रा सर अपनी बीवी के जुल्मों की दास्तां भूपेंद्र को यदा कदा सुनाते और लगे हाथ संध्या भाभी की तारीफ भी कर देते। रात को जब दोनो साथ होते तो एक दूसरे को सब बताते और खूब हँसते। रेखा भाभी का झुकाव भूपेंद्र जी की तरफ कुछ ज्यादा ही हो रहा है ये संध्या भाँप गयी थी, पर वो अपने बुद्धु को जानती थी.... इसलिए चुप रही। जैसे औरत किसी आदमी की गलत नजर को पहचान जाती है वैसे ही आदमी को भी औरत की नजरे पढने आती हैं, ये संध्या ने तब जाना जब संध्या किसी काम से संभव को भूपेंद्र के पास छोड़ कर बाहर गयी। रेखा भाभी मौका देख कर उनके घर आ गयी। भूपेंद्र जी ने उसे बाहर से लौटाना चाहा पर सफल न हो पाए। संभव को खिलाने के बहाने वो कभी अपना साडी का पल्लू ठीक कर रही थी तो कभी ब्लाउज के डीप नेक से झलकती उसकी पीठ और गरदन से नीचे के दर्शन करवा रही थी। भूपेंद्र सोच सोच कर परेशान हो गए थे कि संधु आएगी तो वो क्या सोचेगी? शैतान को याद करते ही शैतान की नानी आ ही गयी। संध्या को आया देख रेखा भाभी ने रूकना ठीक नहीं समझा पर संध्या ने उसे छोड़ा नहीं, भाभी चाय पी कर जाना। चाय पीने के बाद संध्या ने उसे कहा," भाभी आप बुरा मत मानना पर ये लो कट ब्लाउज और ढलकता पल्लू पहनना है तो संभालना सीखिए.....मेरे मॉटर जी को पसंद नहीं है , देखिए शरम के मारे पानी पानी हो रहे हैं...कह कर जोर से हँस दी"। मिश्रा भाभी उसके बाद काफी टाइम तक संध्या से छुपती रही पर संध्या को कोई फर्क ही नहीं पड़ता था । कितने ही साल भूपेंद्र को उस दिन की बात याद दिला कर तंग करती रही और भूपेंद्र हँस देता और कहता, "तुम थोड़ा जल्दी आ गयी नही तो मैडम बहुत रंगीले मूड मे थी, एक्सपीरियंस वाइल्ड भी हो सकता था", उनकी बात सुन कर वो बोली," तुम सिर्फ मॉटरनी के बुद्धु हो और तुम्हारी मॉटरनी से ज्यादा वाइल्ड तो शेरनी भी नही होगी, ऐसा कुछ करने के लिए मॉटरनी के मरने का इंतजार करना पडेगा का समझे कह कर फिर से बैलोस सी हँसी हँस दी। पता ही लगने देती थी कि कौनसी बात वो मजाक में कह रही है और कौन सी सीरियसली....पर भूपेंद्र जी उसकी ये बात सुनकर ही सिहर जाते और कस कर सीने से लगा लेते," तू कुछ भी बोला कर संधु बस मरने की बात मजाक में भी मत कहा कर कितनी बार कह चुका हूँ" और फिर उनका मुँह बन जाता पर उनकी मॉटरनी उन्हें मनाए बिना चैन न लेती।
क्रमश:

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