नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 72 - अंतिम भाग Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 72 - अंतिम भाग

72

कितने वर्षों के पश्चात वह अपनी मातृभूमि की रज छूने जा रही थी, समिधा का मन लरजने लगा | 

बीबी के घर तक पहुँचने तक वह खोई रही स्मृतियों में | पवन उड़ती रही जाने कहाँ –कहाँ ?वह गलियारों में आँख-मिचौनी खेलती रही किन्नी के साथ !न जाने वह कैसे आ गई थी ?जब अचानक कार उसके निर्देशित स्थान पर रुकी तब वह चौंकी उतरकर उसने वहाँ की रज उठाई और अपने माथे पर लगा ली | यह उसकी जन्मभूमि थी | 

स्वाभाविक था, घर बंद पड़ा था –पड़ौस की चौबे पंडताइन उसे पहचानकर फूट-फूटकर रोने लगीं | काफ़ी वृद्ध हो गईं थीं, मोतियाबिंद उतर आया था लेकिन उसे पहचान गईं | 

“आरी सुम्मी !”उन्होंने उसे ऐसे लपेट लिया जैसे कोई अपने नवजात शिशु को लपेट लेता है | 

“तुम तो यहाँ से ऐसे गए के देक्खा ही नईं मुड़के ? तेरी माँ के बारे में बताया था राजवती ने –ईब तो वो भी ” उनकी आँखों से फिर अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी | 

कितना मना करने पर भी उनकी बहुओं ने चाय बना ही दी | बीबी के घर की चाबी उन्हीं के पास थी, किन्नू ने बताया था | 

पंडताइन बोलीं –

“क्या देक्खेगी ? क्या करेगी ? भुतहा हो गया है मकान !”

समिधा ने उनकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया और एक बार फिर से चाबी माँगी | 

चाबी लेकर वह घर खोलने चली, ऊपर की दीवाल में पत्ते उग आए थे | उसने एक सरसरी दृष्टि उन पर डाली | दरवाज़ा खोला तो भरभराती मिट्टी उसके सिर पर गिरी, वह आगे बढ़ती गई | उसके साथ कोई अंदर नहीं आया था | उसने मुड़कर देखा, नाला वैसे ही बह रहा था जैसे उस समय बहा करता था जब बीबी की साइकिल उसमें गिरा करती थी | 

उसके पैरों के नीचे ज़मीन का वो टुकड़ा था, जहाँ उसने और किन्नी ने एक मृत कॉकरोच को दबाने के लिए जीजी से कपड़े का टुकड़ा माँगा था और उसे दबाकर उसके लिए प्रार्थना की थी| वह कॉकरोच उसके सामने से जैसे भागा जा रहा था, उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई | 

सामने ही वह सहन था जिसमें बीबी अपने मवेशी बांधा करतीं थीं | सभी तो वहीं होने का आभास हो रहा था | सहन पार करके जीजी का कमरा होता था जो बंद पड़ा था | उवह से लगा एक अजीब सी जिद्दी प्रतीक्षा में सहन की सीढ़ियों का दरवाज़ा मुँह फाड़े था, शायद उसे बंद ही नहीं किया गया था | 

वह तो बीबी से मिलने आई थी, बीबी का कमरा ऊपर था | खट खट करती वह ऊपर जा चढ़ी | 

गैलरी पार करते ही दो कमरे थे | एक बैठक और एक बीबी का कमरा ! मकान में काफ़ी बदलाव हो चुके थे परंतु मूल ढाँचा वही था अत: उसे भूगोल समझने में कोई अड़चन नहीं हुई | उसने बैठक खोली, सामने ही बीबी की खूबसूरत तस्वीर दीवार पर लगी हुई थी | तस्वीर देखते ही समिधा के मुँह पर मुस्कुराहट तैर गई | 

“नमस्ते बीबी” लगा बीबी मुस्कुराकर उसे उत्तर दे रही थीं | 

उस कमरे में सींकचों वाली बड़ी सी खिड़की हुआ करती थी जो ठीक उसके घर के सामने खुलती थी | उसने वह खिड़की खोलने की चेष्टा की | बहुत ज़ोर लगाने पर वह खुली । घर दिखाई दे रहा था | परंतु वह उसका वो घर कहाँ था जिसकी दीवारों के भीतर वह बड़ी हुई थी | वह बिल्कुल बदल गया था | अब वह बहुत बड़ा और सुंदर बन गया था | समिधा ने महसूस किया –और सब कुछ तो वैसा ही था | किसीकी उपस्थिति और अनुपस्थिति से किस पर क्या प्रभाव पड़ता है ? दुनिया को इसी प्रकार चलते हुए न जाने कितने वर्ष हो चुके हैं और अनेकों बदलावों के उपरांत के बावजूद भी वह उसी प्रकार चल रही है | आना और जाना जीवन का चक्र उसी प्रकार पहिए घुमा रहा है | अन्तर केवल इतना है कि जब तक मनुष्य इस दुनिया में भौतिक शरीर में है उसे पेट भरने को रोटी मिलती रहे | उसके पश्चात लाख ब्राह्मण जिमाओ तो क्या और न जिमाओ तो क्या ?

हम कितने लोगों को अपने समक्ष जाते हुए देखते हैं फिर भी एक गुमान में भटकते रहते हैं मानो हम अपने शरीर के लिए एक अमरपट्टा लिखवाकर लाए हैं | जितने प्राण मुझमें हैं, उतने ही तो दूसरे में भी हैं न ? फिर पेट भरा है तब भी एक-दूसरे के रक्त के प्यासे और-- खाली है, तब भी रक्त के प्यासे ! यह कौनसा दर्शन है ? कौनसा मानवीय व्यवहार है?कौनसी पिपासा है ? जीवन का कौनसा लक्ष्य है ?

यहाँ आकर समिधा को लगा अब उसने अपने बालपन की सभी स्मृतियों को भरपूर गले लगाया है | कोई कहीं नहीं गया, सब इधर ही हैं | भौतिक शरीर क्षण-भृंगुर है, आत्मा की अमरता को नहीं नकारा जा सकता –और इसी भौतिक शरीर से सब प्रकार की भूख-प्यास लिपटी है | जब तक मनुष्य ज़िंदा है तब तक उसे इस शरीर की भूख़-प्यास से जुड़े रहना है, उसीका ध्यान रखने की आवश्यकता है, कम से कम दो जून की रोटी तो सबको मिलती रहे | शेष सब छोड़ देना है | लोक-परलोक की चिंता करने का औचित्य कुछ नहीं | दुनिया में ज़िंदा रहते हुए सुख बाँटना, आनंद का संदेश देना बहुत आवश्यक है | मृत के लिए रोने के स्थान पर एक भूखे पेट को भरने का मार्ग प्रशस्त करना है, उसके हाथ में एक मशाल थमानी है | रोने की कहाँ आवश्यकता है ?उसने मन में सोच लिया था कि अब उसे समाज को आनंद देने, उसको जागृत करने में स्वयं को लगाना होगा अन्यथा उसकी सोच और किसी कसाई की सोच में क्या अन्तर था ?

कमरे से बाहर आने के लिए वह मुड़ी ही थी कि ऊपर से फट्ट से बीबी की मुस्कुराती तस्वीर नीचे आ गिरी | चारों ओर काँच ही काँच फैल गया था | उसे क्षोभ हुआ | नीचे झुककर उसने तस्वीर उठा ली, उसमें चिपके काँच के टुकड़े निकालकर एक ओर रख दिए और तस्वीर को कोने की मेज़ पर रखकर नतमस्तक हो प्रणाम किया | लगा, बीबी मुसकुराती हुई उसे आशीष दे रही हैं | अब वह कमरे से बाहर निकल आई और नीचे उतर गई | वह सामान्य हो गई थी | 

नीचे बाहर कई लोग जमा हो गए थे परंतु सब भयभीत दिखाई दे रहे थे | भीतर कोई नहीं आ रहा था | उसने बाहर आकार मुख्य द्वार का ताला बंद किया और मुस्कुराते हुए चाबी पंडिताइन को पकड़ाई | सब उसे ऐसे घूर रहे थे मानो कोई भूत-घर से निकला हो | टैक्सी बाहर खड़ी थी, उसने सबकी ओर देखा और हाथ जोड़कर प्रणाम किया | 

आते हुए चौबे पंडिताइन ने उसे गले नहीं लगाया था, उसे हँसी आने को हुई जिसे उसने टैक्सी में छिपकर छिपा लिया | उसके भीतर जीवन के प्रति एक नई आस्था ने नव-जन्म लिया था | 

पास के किसी घर से टेप पर बजता गीता का श्लोक उसके कानों में जीवन का फ़लसफ़ा प्रवाहित करने लगा | 

नैनं छिंदन्ती शस्त्राणि नैनं दहति न पावक: | 

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत: || 

 

इति ---

लेखिका

डॉ. प्रणव भारती

pranavabharti@gmail, com