पेंच Deepak sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

पेंच

(1)

सुरेश शांडिल्य का उल्लेख सबसे पहले मां ने किया था: "तुम्हारी उषा के बैंक में कोई एक सुरेश शांडिल्य है, आयु उसकी पच्चीस वर्ष है, कद पांच फुट दस इंच है और है भी पक्का शाकाहारी। उषा से कहो रमा की बात उसके संग चलाए..."

मां नहीं जानती रहीं पिछले दो महीनों से उषा और मैं अपनी तनख्वाहें और छुट्टियां एक-दूसरे के साथ न खर्च रहे थे। अढ़ाई महीने पहले तक हमने अपने दाम्पत्य के पूरे दो साल और तीन महीने एक राजा और रानी की तरह बिताए थे: हर छुट्टी पर बारी-बारी से एक-दूसरे के शहर पहुँचते रहे थे और अपनी सम्पूरित पूँजी एक-दूसरे के काम में लाते रहे थे। किन्तु अढ़ाई माह पूर्व उषा के शहर की एक टिकान के दौरान मेरे पैर की एक हड्डी चरक गयी थी और बाध्य कर रूप से लगातार बिताए गए उन पन्द्रह दिनों में उषा की अनुशासनहीनता जो मुझ पर उजागर हुई थी तो मैं अपनी खीझ दबाए न दबा पाया था। परिणामस्वरूप एक कड़वी झड़प के बाद मैं अपने पैर के प्लास्टर समेत अपने शहर लौट आया था। उसके बाद उषा मेरे शहर आने की अपनी बारी बारम्बार टालती चली गयी थी। मैंने भी उषा से टेलीफोन पर बात करने की अपनी बारम्बारता कम कर दी थी-सप्ताह में छः फोन करने की अपनी पहल घटाकर मैं दो पर ले आया था।

किन्तु रमा की शादी की खातिर अगले ही दिन मैं उषा के बैंक जा पहुँचा। बैंक मेरा जाना पहचाना था| अपनी बदली से पहले मैं वहीं काम करता रहा था| उषा मुझे यहीं मिली थी| तीन साल पहले|

पहले ही काउन्टर से उषा की मेज मुझे साफ दिखाई दे गयी।

पंक्तिबद्ध सात काउन्टरों के पीछे रखी चार मेजों में से तीसरी मेज उसकी रही।

वह एक पुरूष की बात सुन रही थी: अपने परिसज्जित हावभाव के समूचे प्रदर्शन के साथ; सिकुड़ती और फैलती अपनी गू-गू गोल आंखों के साथ; सिहरती और स्थावर दशा ग्रहण करती अपनी मांसल गालों के साथ; फूलती और विश्राम लेती अपनी नुकीली नाक के साथ; मुड़कती और निश्चल होती अपनी लम्बी ठुड्डी के साथ...

पुरूष की मेरी तरफ पीठ रही किन्तु उसके उग्र कन्धों तथा मजबूत सिर की झूमाझूमी से स्पष्ट था: वह किसी अनुग्रह का रस ले रहा था....

क्या वह अनुग्रह किसी प्रेमानुभव का पुनर्धारण था? अथवा पूर्वधारण?

मैं काउन्टर के पास रूक लिया।

तत्काल उनके पास पहुँचकर मैं उन्हें उलझन में नहीं डालना चाहता था।

"हाय, स्पून (अभिवादन, शोख लड़के)" तभी किसी एक मेज से एक महिला का स्वर मेरी दिशा में मुखर हुआ, "लॉन्ग टाइम, नोसी, आए से (बहुत दिनों बाद भेंट हो रही है, अचरज है....)"

"ओह, अरूणा?" बैंक की यह डिप्टी मैनेजर मेरी पुरानी सहयोगिनी रह चुकी थी| मुझसे उम्र में दस वर्ष तो अवश्य ही बड़ी रही होगी किन्तु एक तो अपने कपटपूर्ण श्रंगार और बालों के सुविचारित कटाव के बूते पर वह हरदम घोषणा करती लगती- मैं एक भव्य सुकुमारी हूं-  तिस पर उसकी जिद भी रही उसकी अंग्रेजी स्लैंग की खास बोली समझने वाले उसके परिचित उसे उसके पहले नाम से ही बुलाएं, "हाऊ आर यू?"

"आए एम ऑल राइट जैक (मैं अपने सौभाग्य से सन्तुष्ट हूं)," वह हंसी "इन गुड निक (अच्छी हालत में हूं), इन फुल स्विंग (पूरी तरह से काम कर रही हूं- सफलतापूर्वक), इन माय एलीमेन्ट (अनुकूल स्थिति में हूं), बट यू लुक ऑफ़ फॉर्म (परन्तु तुम अपने सामान्य तल पर नहीं); एण्ड नो मिस्टेक (और मैं कतई गलत नहीं)।"

"उषा? उषा कहां है?" मैं सिगरेट पीना चाहता था किन्तु जैसे ही मैंने जेब से अपनी सिगरेट की डिबिया निकाली, अरुणा ने मुझे टोक दिया, "यहाँ नहीं....."

मैंने तुरंत डिबिया अपनी जेब में लौटा ली और इसी बीच मेरी गरदन अरूणा की ओट से बाहर हो ली।

उषा की मेज की दोनों कुर्सियां अब खाली थीं।

"शी मस्ट बी टचिंग हरसेल्फ अप फार यू (तुम्हारे सामने आने से पहले वह अपना दिखाव-बनाव चमका ही होगी)," अरूणा फिर हंस दी।

"आओ," काउन्टर नम्बर पांच पर हमारा आमना-सामना हुआ तो उषा खंखारी।

खंखारने की उसे बुरी आदत रही।

"मेरे पास अधिक समय नहीं," मैं गुरार्या, "मैं बाहर पोर्टिको में हूं..."

बैंक के पोर्टिको में इस बैंक के एक पुराने ग्राहक और मेरे अच्छे परिचित की मारुति सुजुकी डिज़ायर हमारी प्रतीक्षा कर रही थी।

गाड़ी में बैठने का अभ्यास उषा के लिए अभी भी नया ही रहा। वह एक मध्यमवर्गीय परिवार से आयी थी और वाहन के नाम पर उसके पिता तथा दोनों भाइयों के पास स्कूटर ही रहे। अपनी एक निजी मारूति खरीदने का इरादा हम दोनों रखते थे किन्तु रमा की शादी के बाद।

"यहां कब तक हो?" उषा ने अपना गला साफ किया।

"बताऊंगा," अपना उत्तर मैंने जान-बूझकर संक्षिप्त रखा।

कोई भी निर्णय लेने से पहले अभी कुछ देर और मैं सोचना चाहता था।

"फीस्ट चलो," ड्राइवर को मैंने आदेश दिया।

"जी, साहब।"

(2)

फीस्ट पर उषा के साथ मैं बहुत बार आ चुका था। बल्कि उषा के सम्मुख अपनी शादी का प्रस्ताव मैंने फीस्ट ही में रखा था...

अपने कांटे में चिकन चाओमीन लपेटकर चिकन मन्चूरिया का एक बड़ा टुकड़ा वह फंसा रही थी जब मैंने अपनी हथेली उसकी कलाई पर टिका दी थी, "तुमसे एक सवाल पूछना है उषा..."

"क्या?" उसने गला खंखारा था।

"तुम शादी के बारे में क्या सोचती हो?" अपना सवाल मैंने बदल लिया था। उसकी खंखार से पहले मैं उसे पूछने वाला था, क्या तुम मुझसे प्रेम करती हो, उषा? किन्तु खंखार ने उसका मुझे प्रेम करना, दुःसाध्य बना दिया था।

"क्या सोचती हूं?" उषा फिर खंखारी थी, "पहले तुम बताओ तुम क्या सोचते हो?"

"मुझे लगता है तुम मुझसे शादी कर सकती हो," बिना किसी उत्साह के, बिना किसी आवेग के, मैं वे शब्द बोल गया था।

"नेम द डे," उसने अपना गला फिर साफ किया था।

उसकी कलाई पर टिकी अपनी हथेली मैंने तत्काल हटा ली थी और वह अपने कांटे पर टूट पड़ी थी...

(3)

गाड़ी में बाकी समय हम दोनों ने एक बेआराम चुप्पी में बिताया।

मेरे साथ बातचीत शुरू या खत्म करने की स्वायत्तता उषा अपने पास न रखती थी। मुझसे संकेत लेकर मेरी बात आगे बढ़ाती या घटाती...

"वेटर," फीस्ट पर पहुँचते ही मैंने मेजबान की भूमिका आधिकार में ले ली, "दो चिकन कार्न सूप लाओ..."

"दो?" वेटर ने आश्चर्य से उषा की ओर देखा।

"हां, दो, नए हो क्या?" मैंने वेटर पर नजर दौड़ायी|

"इतना नया भी नहीं," वेटर हँसा, "आप को नहीं जानता, मगर दीदी को जानता हूँ....."

"जान लो," मैंने उषा के चेहरे पर अपनी टकटकी बाँधते हुए कहा, "मैं इन का पति हूँ...."

"जी," वेटर के चेहरे पर एक कटाक्ष भाव स्पष्ट उभर आया|

उषा की खांसी शुरू हो ली|

"तुम यहाँ अकसर आती हो?" वेटर के लोप होते ही मैंने उसे भेदना चाहा|

"नहीं, ऐसा भी नहीं....."

"किसी शाकाहारी के साथ?"

उसकी खांसी तेज हो गयी|

(4)

"सूप अच्छा है," निर्णय मैंने ले लिया।

उषा को अपने पक्ष में रखना अभी जरूरी था।

रमा की खातिर।

पांच वर्ष पहले एक सड़क दुर्घटना के अन्तर्गत स्वर्गवासी हुए मेरे पिता मुझ पर मेरी दो बहनों का जिम्मा छोड़ गए थे। बड़ी की शादी तो कालेज-अध्यापक मेरे पिता की जीवन-बीमा पालिसी तथा ग्रैच्युटी निकाल ले गयी थी किंतु छोटी, रमा, की शादी के लिए मुझे उषा का सहयोग चाहिए था- आर्थिक और पारम्परिक।

"हां," उषा खंखारी।

"अपने बैंक के सुरेश शांडिल्य को तुम जानती हो?" मैंने तह जमायी।

"कैसे?" उषा खंखारना भूल गयी।

"यों ही पूछा मैंने," मां का उल्लेख अभी कुछ देर के लिए मैंने टाल देना चाहा, "उसके बारे में बाद में भी बात कर सकते हैं..."

"नहीं," घिग्घी बंधी उसकी आवाज चिटकी, "अभी बात करो। अभी बताओ तुम उसे कैसे जानते हो?"

"उसका एक दोस्त मिला था। कह रहा था वह शादी करना चाहता है..."

मैंने अंधेरे में एक तीर छोड़ा।

वह रोने लगी।

उसे इतनी संवेदनशील अवस्था में मैंने पहले कभी न देखा था।

"क्या तुम मुझे छोड़ देना चाहती हो?" अप्रत्याशित उस घुमावदार पेच के लिए भी मैं तैयार होकर न आया था।

"नहीं?" उसकी खंखार लौट आयी, "कतई नहीं। मुझे माफ कर दो। आइन्दा ऐसा न होगा..."

सुरेश शांडिल्य का नाम उस दिन के बाद हम दोनों ने एक-दूसरे के सम्मुख दोबारा न लिया।

उसी दिन उषा मेरे साथ मेरे शहर आ गयी।

मां को टेलीफोन मैंने अगले दिन दफ्तर जाकर किया, "सुरेश शांडिल्य ठीक नहीं। मांसाहारी है। शराब पीता है। स्त्रियों के साथ घूमता है। आवारा है। बहुत आवारा है। रमा की शादी अन्यत्र करेंगे और कुछ समय बाद करेंगे। उषा की बदली पहले यहां हो जाय। उषा और मेरे एक ही शहर में रहने से रमा की शादी की व्यवस्था करने में अधिक सुविधा रहेगी।"

********