साझा क्या ? Pallavi Pandey द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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साझा क्या ?

आसमान थोड़ा खुला तो कली ने शॉपर्स स्टॉप का रास्ता पकड़ा।

रविवार को कली न ऑफिस का काम करती थी, न किसी सहकर्मी से ऐसी आशा रखती थी । पर आज उसने ऑफिस ड्राइवर को बुला ही भेजा ।

पुणे की बारिश ही ऐसी है । बौछार नहीं, धार नही । सीधे जैसे विधाता ने पानी की चादर ही झटक कर फैला दी । उस पर नए अपार्टमेंट के डेकोरेटर की काली सफेद स्लेटी रंग संयोजना पूरे वातावरण को धूसर किए रहती थी । कुछ रंगीन कुशन पड़ जाएं तो शायद घर घर सा लगे, एक विस्तृत कार्यालय नही ।

आधा घंटा, बहुत हुआ तो चालीस मिनट । न तो कली को खरीदारी का विशेष चाव था, न ही निर्णय लेने में देर ही लगती थी उसे । हमेशा कहती थी, सही या गलत तो तुक्के होते है, निर्णय तो हमेशा परिस्थितिजन्य ही होते हैं ।

कार से उतरने पर साड़ी की प्लीट में सैंडल फंसी तो कली झुंझलाई । दस सालों से ये छह गजी बाना ही लपेट रही थी, फिर भी असहज ही थी । यह असहजता उस ने स्वयं ही वरी थी ।शायद यह उसे उसके मन की व्यग्रता , हताशा भूलने में सहायक हो । धीरे धीरे उस की इस ऑफिस वार्डरोब ने बाकी परिधानों को निष्कासित कर दिया। आज उस का साड़ी संकलन किसी हैंडलूम एक्सपो सा था । कड़क , रोल प्रेस्ड ।

दस वर्षों में कली खद्दर हो गई थी । रेशम की कोई लुनाई शेष नही थी ।
दस साल पहले ये ही कली बोस्की के थान सी लहराती थी.......अखिल के साथ




बिलिंग काउंटर पर कोई नहीं था । कली इधर उधर देख ही रही थी कि आंखें फंस कर रह गईं । उसी का सा कद, वैसी ही थोड़ी स्थूल काया। रंग उस से उजला था, पर उस में प्रसाधनों की कई परतों का हाथ था। जा चुके यौवन को मुट्ठी में जकड़ने के पूरे प्रयास करने पर भी आंखों और होंठों के कोरो पर बैठी चुगलखोर झुर्रियां यही बता रही थीं कि इमारत कभी बुलन्द थी , आज तो दरारें आ ही गई थीं। सुरुचिपूर्ण पहनावा । अभिजात्य की स्पष्ट छाप थी ।

दोनो अगल बगल खड़ी होती तो कली उन की कार्बन कॉपी लगती। चुनते लोग फिर भी ओरिजनल ही ।

अब तक कली के ध्यान के केंद्र को भी कुछ भास हो गया था और वो उस की ओर ही आ रही थी ।कली के पैर जैसे किसी अदृश्य कीलक से बिंध गए थे । हिल भी नहीं पा रही थी कि अचानक बिलिंग काउंटर से आवाज आई , " मैम ? "

कली ने एक गहरी सांस ली और घूम गई । बाल बाल बचे । भुगतान कर के पर्स सहेजती मुड़ी ही थी कि सीधी उस अवांछित परिचित से टकरा गई ।

" तुम कली हो ना ? "
कली ने गूंगी गुड़िया की तरह सिर हिलाया ।
" तुमने शायद पहचाना नहीं होगा । कभी फॉर्मली मिले नही न हम दोनो । तुम मेरे हस्बैंड से काफी जूनियर थी ना । आई एम अखिल्ज़ वाइफ ।"

पहचाना क्यों नही । सालों सोशल मीडिया पर आपकी हर गतिविधि पर नज़र रखी । हर कोण से देखा । बार बार सोचा, क्या है इनमें जो मुझे हमेशा अखिल के मन के महल में दोयम दर्जे की नागरिकता दिलाता है । क्यों हर बार ये लगा कि पत्नी तो खांटी कांजीवरम है, प्रेयसी सस्ती धर्मावरम।

ये कुछ भी नही बोला कली ने । उलट वो तो ऐसे गुमसुम खड़ी थी जैसे कॉलेज के पहले दिन रैगिंग लेते सीनियर के सामने किसी छोटे कस्बे से पहली बार निकली फ्रेशर । बातों की बागडोर " अखिल्स वाइफ" ने ही थाम रखी थी, और वो उसको लगभग ठेलते हुए फूड कोर्ट की दिशा में ले जा रही थीं " देखो , बारिश फिर बढ़ गई । थोड़ी कम हो तो निकलेंगे । कॉफी ? "

कली चौंक गई । कॉफी तो उन दोनो का कोड वर्ड था । काम के जलते थार में जब एक दूसरे के साथ की जलधार अनिवार्य हो जाती, तब फोन स्क्रीन पर एक शब्द चमकता " कॉफी? " मोबाइल के अदृश्य तारों से बंधे उन के सम्बन्ध के तंतु इतने क्षीण निकलेंगे , कहां जानती थी कली ?

" तुमसे मिलने का बड़ा मन था । देखना था कि अखिल किस से हारे ।"

तो क्या सब जानती थीं ये , और आज इस वर्षा प्रदत्त अवसर की आड़ में कोई पुराना दुखता फोड़ा फोड़ने चली थी ? अहंकार तो देखो , थी कली उन के " हसबैंड से काफी जूनियर ", पर आज तो कली उसी पद पर थी जिस से अखिल ने संस्था छोड़ी थी । उस के करियर ग्राफ की चढ़ाई अखिल की तुलना में काफी तीखी थी ।

कली सतर हो कर कॉफी टेबल पर बैठते हुए भरसक मुलायम स्वर में बोली , " हारे किधर , गुरु हैं वो तो हमारे । " आज भी अखिल का नाम लेने में उसे एक स्वाभाविक संकोच था ।

" और तुमने गुरु पर ही ज्ञान आजमा लिया ? " , सामने वाली ठठा कर हंस पड़ी । कली ऐसे ओछे परिहास की अभ्यस्त नही थी , सो चुपचाप कॉफी में चम्मच फिराने लगी ।

शायद वो समझ गई कि बात कुछ बिगड़ रही है , सो संभालते हुए बोलीं , " असल में अखिल की पोजिशन, एक्सपीरियंस के बावजूद, इतनी कम उम्र में किसी को इतना बड़ा असाइनमेंट मिले तो थोड़ा अचरज तो होता ही है, अखिल को भी हुआ था "

क्यों जी ? क्या मैं कम डिजर्विंग हूं ? या अचरज इस बात का कि बिना किसी पैरवी के उनको पछाड़ दिया था ।

सालों पहले टूटे सम्बन्ध की कुंठा में कली भूल सी रही थी कि अखिल से क्या क्या सीखा था उसने । कितनी बार ऐसा हुआ था कि अखिल से उस की आत्मीयता ने उस की उपलब्धियों को उचित अवसर दिलाए थे ।

या कि उस सम्बन्ध की नियति ही थी टूटना ।



कॉफी पर चर्चा पूरी हो जानी थी , पर मिसेज अखिल तो बरखा रानी से सांठ गांठ कर आई थीं। न वो थम रही थी, न ये ।

वैसे कली उन का नाम जानती थी । एक बार एक कोमल पल में अखिल के मुंह से उनका नाम निकल गया था , और कली जम सी गई थी । दबे स्वर में बोल ही बैठी थी , " हम वो नही हैं ।"
पहली और एक ही बार अखिल को बैकफुट पर जाते देखा था कली ने ।

पर वह दर्प भरी " आई एम अखिल्स वाइफ " उक्ति कली लाख चाहने पर नही झटक पा रही थी । उसे कहीं पढ़ी वह पंक्ति याद आ रही थी जो परवीन बाबी ने इटली की अदाकारा गीना लोलाब्रिगिडा से कही थी " आई एम विद माय मैन बिकॉज आई हैव अ मैन"।

कली निर्विकारता का लबादा ओढ़े सुनती जा रही थी , " असल में इण्डिया छोड़ने के दो तीन साल पहले से देख रही थी, काम का बोझ बहुत बढ़ गया । घर आ कर भी अखिल का फोन नही छूटता था, वीक एंड पर भी नहीं । अनमने से रहते थे घर में । इस शहर उस शहर बदलने से हालत नही बदलती । तुम तो देखती ही होगी, वर्क लाइफ बैलेंस बस कागज़ पर है इधर । फिर मैंने ही इनकरेज किया ओवरसीज जाने को ।
कॉलेज के समय से जानती हू उनको । उनके एंबीशन को कब कैसे हवा देनी है, खूब पता है । अखिल सरल हैं, मन में नहीं रख पाते , इसलिए उन को समझाया कि जब तक जाना पक्का न हो, किसी से मत कहो । पता नही कब किस की नज़र लगे ।"

और अखिल मान गए ? मान गए कि जो उन की एक एक खुशी के लिए छिरक छिरक जाती है , वो उनकी खुशियों पर नजर लगा सकती है । कली हतप्रभ थी । पूरा प्रयास कर रही थी कि मन के भाव चेहरे तक न आएं पर क्षोभ और विवश क्रोध उस का मन मरोड़ रहे थे ।"

" पहले तो लंदन में भी वोही हाल रहा । कितनी बार रात रात जाग कर लैपटॉप पर बिताई अखिल ने , पर वो शायद नई जगह में एडजस्ट करने तक ही । और उधर किधर यहां सी कुक ड्राइवर क्लीनर की फौज होती है । सच कहे तो पचास की वय में नई नई शादी सी स्थिति थी । नया शहर, घर के काम मिल कर करने की मजबूरी , और किसी की रोक टोक नही । धीरे धीरे न सिर्फ मुझे अपना हस्बैंड वापस मिला, बल्कि अपना बेस्ट फ्रेंड भी । "

कही पढ़ा था, किसी सम्बन्ध को सुदृढ़ करते है साझे अनुभव । कली और अखिल ने बांटा ही क्या था ? कुछ फोन कॉल्स, कुछ लम्बी ड्राइव्स, एक ही ऑफिस । वो साझा ऑफिस हटा तो बचा ही क्या जो वर्षों की मित्रता, दाम्पत्य, संतति , सुख दुख , हारी बीमारी से जीत पाता ।

कली इतना तो समझ गई थी कि अखिल की अन्यमनस्कता भले पकड़ी गई हो पर उस के मूल में कली थी यह अब भी गोपनीय था । पर क्या पुरुष का मन इतना निर्मोही होता है कि स्त्री के निर्मल निश्छल प्रेम को इतनी बेरुखी से भुला दे ? अब तो याद भी नहीं कि आखिरी बार बात कब हुई थी ।

बेसमेंट पार्किंग में पहुंच कर शिष्टाचार वश उन को गाड़ी तक छोड़ना तो था ही । बारिश थम गई थी, पर बातों का वेग नही । गाड़ी में बैठते बैठते मुड़ कर बोली, " कितना प्यारा मौसम है , महाबलेश्वर पंचगनी घूमने वाला । दस साल हो गए देखे । पहले अक्सर जाते थे, किसी भी मौसम में । अब बोलो अखिल से तो साफ मना कर देते है । कहते हैं अब और क्या देखने को रह गया है पंचगनी में ?"
इति