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साढ़े तीन वज्र

इंद्र का दरबार खचाखच भरा था। विशेष रूप से आमंत्रित राजा, महाराजा और पृथ्वी के उच्च पदस्थ ऋषि भी शामिल थे। रंगोत्सव चल रहा था। इंद्र की विशेष कृपापात्र नृत्यांगना उर्वशी और उनके साथी अद्भुत नृत्य कर रहे थे। राजाओं और सम्राटों के लिए इतनी सुंदर महिला को देखना और आसानी से प्रसन्न होना स्वाभाविक था, लेकिन ऋषियों को इतने आकर्षण से प्रभावित करना आसान नहीं था। धीरे-धीरे नृत्य के साथ गंधर्व का संगीत भी आने लगा। अब ऋषि-मुनियों के और उस सभा में संगीत या नृत्य का ज्ञान रखने वालों
के भी धन्यवाद मिलने लगे।
केवल एक ऋषि दुर्वासा शांत बैठे थे। उनकी मुखाकृति अभी भी अत्यंत गंभीर थी। इंद्र ने उर्वशी से कहा कि यह तुम्हारे लिए एक चुनौती है। कृपया मुनि दुर्वासा को प्रसन्न करें।
उर्वशी स्वयं सोलह श्रृंगार से अलंकृत हुईं। भव्य रंगीन कपड़े, लंबे बाल और एक आकर्षक फूलों की सज्जा जो किसी के भी ऊपर से एक मोहिनी डाल देती है, ऐसी सजधज कर पुरी ताक़त लगाती मुनि के सामने नृत्य करने लगी। उसका बहुत ही युवा शरीर जो लालित्य और हावभाव से भरा था, जो जितना संभव हो उतना ध्यान आकर्षित करता था, इससे कोई भी खुश हो जाता है , मोहित होते मूर्छित ही सकता है। काश, किन्नरों में भी, काम, हाव-भाव, वेशभूषा और नृत्य जो काम को प्रज्वलित करते हैं, यह सब नाकामियाब रहा।,
यह नृत्य काफी देर तक चला। उर्वशी के साथी न नर्तक अब थक गए। उर्वशी भी।
इंद्र ने उनके सामने देखा। क्रोध, आक्रोश, फिटकार, उपालंभ सब उस दृष्टिमें था।
हारी हुई उर्वशी ने कहा, "महाराज, सुपात्र के सामने ही सब कुछ ठीक है। पत्थर पर पानी डाला जाएगा, तो वह नीचे की ओर ही बह जाएगा।
सदा वनमे पड़े रहते ऋषि को कला की क्या जानकारी होगी? और साहित्य संगीत कला के बिना का मनुष्य साक्षात बिना पूंछ के पशु समान होता है।"
दुर्वासा ने यह सुना। क्रोध का दूसरा नाम दुर्वासा है!
" क्या कहा कन्या? फिर से बोल तो?" उर्वशी के सामने गुस्से से लाल होते उन्होंने पूछा।
"ऋषि, आपको कई क्षेत्रों का विस्तृत ज्ञान होगा लेकिन आप कला, संगीत और सौंदर्य के बारे में नहीं जानते हैं। आप वज्र की तरह कठोर हैं। मैंने आपको खुश करने के लिए जो मेहनत की है वह सब व्यर्थ है।"
दुर्वासा मुनि उठ खड़े हुए।
"मुझे जानवर कहने वाली तुम कौन होती हो? दो कौड़ी की नर्तकी, जो स्वर्ग में कृपापात्र होते सर पर चढ़ गई है! जाओ। मै तुम्हें श्राप देता हूँ - तुम एक जानवर के रूप में पृथ्वी पर जाओगी। एक अकेली महिला की स्थितिमें रातको और दिन में घोड़ी।
बैठक में चुपकी छा गई। उर्वशी का चेहरा डर से लाल हो गया। यह पृथ्वी की ओर गतिमान होने लगी। आते ही घोड़ी में बदल गई।
इंद्र और सभी देवगणो दुर्वासा को शांत करने लगे। उर्वशी ने जाआने से पहले ऋषि से क्षमा याचना करते हुए उनके चरण स्पर्श किए।
अब थोड़े शांत हुए दुर्वासा ऋषि कहते हैं, "जाओ। जब साढ़े तीन वज्र तुम्हारे शरीर को छू लेंगे तो तुम्हारा श्राप दूर हो जाएगा।"
बैठक वहीं टूट गई। देवता, राजा और मुनि लज्जित होकर चले गए। उर्वशी घोड़ी बनकर धरती पर जाती रही।
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एक घोड़ी को जो भी कर्म भाग्यवश मिले, उर्वशी को यामह सब भुगतना पड़ा। उस में असहय दर्द भी शामिल था। उसे हर खरपतवार के लिए जंगल हमें भटकना पड़ता था। जंगली जानवरों से बचाव के लिए भागना पड़ता था। और जब रात होती थी, तो वह एक अकेली, नि:सहाय सुंदर स्त्री हो जाती थी। राहगीरों और लुटेरों से खुद को बचाने के लिए इधर-उधर घूमना और भागते रहना पड़ता था ।

वही पर एक दिन सुंदिर राज्य के राजा डॉंगव उस जंगल से निकल रहे थे। ऐसी सुंदर घोड़ी को अकेली घूमते देख वह उसे पकड़कर अपने महल में ले गया। दिन में घोड़ी काठी में घास खाती फिरती, राजा उस पर सवार होकर शिकार करता था या लड़ता था, जहां जाना चाहता था वहां उस पर सवार होकर जाता था। वह घोड़ी के पेट में लात भी मारता था। रक्षक भी घोड़े को चाबुक मारते थे।

रात में अकेली, जोबन का खज़ाना सम महिला घोडे रखने की जगह के पास एक पेड़ के नीचे बैठी रहती थी।

एक दिन डांगीर राजा को जंगल में देर हो गई। उसने घोड़े को एक पेड़ से बांध दिया और जमीन पर सो गया। रात में घोड़ी औरत बन गई। वह बंधन में थी। इस तरह ही जीना है! साढ़े तीन वज्र एक साथ आने की संभावना नहीं थी। यह सोचते उसकी आंख से एक गर्म आंसू गिर गया।
उस पर आंसू अपने पर गिरते ही राजा डांगीर जाग उठा। एक घोड़ी की बजाय बंधन में एक अवर्णनीय सुंदर महिला को देखते वह आश्चर्यमुग्ध हो उठा। वह सुंदरी फूट-फूट कर रो रही थी।
राजा ने उसके आंसू पोछे। उर्वशीने अपनी दास्तान सुनाई। ,राजा को उर्वशी की कहानी पर विश्वास नहीं हुआ। फिर भी उसने कहा "मेरा मानो, तुम मेरी रानी बनो। दिन में तेरा अलग घोड़ार और रात में मेरा महल।
उर्वशी ने एक शर्त पर स्वीकार किया कि वह यह सच्चा भेद किसी को नहीं बताएगी और किसी भी परिस्थिति में किसी के सामने आत्मसमर्पण नहीं करेगी।
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स्वर्ग में नृत्य बैठकें फीकी पड़ गईं। चाँद के बिना हैअकेले तारे रात में कैसे भी कितनी चमक दे सकते हैं! उर्वशी के बिना इंद्र भी नहीं रह सकते थे। इन्द्रने स्वर्ग और पृथ्वी के बीच एकमात्र मध्यस्थ नारदजी से सलाह मांगी। नारदजी ने कुछ करने का वचन दिया। बहुत सोचा।
अंततः नारदजी वासुदेव कृष्ण के महल में गए। जवहाँ उनका बहुत अच्छी तरह से स्वागत हुआ। फिर उन्होंने कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न को निजी तौर पर बुलाया और कहा कि सुंदिर राज्य के राजा डांगीर के पास एक अद्भुत आकर्षक रानी है। इसकी भव्यता की सराहना करने के लिए शब्दों कम है।
वह सुन्दरता यादवों की बुआ के पुत्र पांडवों के शत्रु दुर्योधन का खंडित राज्य के राजा डांगिर की बिना ब्याही रानी है।

उस रानी, ​​जिसका अभी तक पाणिग्रहण नहीं हुआ, वह तो यादवों के परिवार के प्रद्युम्न के बिस्तर में सुशोभित हो सकती है। डांगीर जैसे खंडिया राजा की नहीं। सच्चे हीरे का एक नया हार भिखारिन की गर्दन के लिए या रानी की गर्दन को सुशोभित करने के लिए है!

नारदजी को यकीन था कि कृष्ण ऐसी बातों में नहीं पड़ेगे, लेकिन प्रद्युम्न का युवा खून गर्म हो गया। काम से प्रज्वलित हो उठा। नारदजी ने उस रूप का कामुक वर्णन देकर उसमें घी डालने का कार्य किया।
प्रद्युम्न उस महिला का हरण करने के लिए तैयार हो गया। मगर कृष्ण ने इसे समझाया, तो वह कहने लगा कि तुमने मेरी माँ रुक्मिणी को भी इसी तरह से प्राप्त किया है!
कृष्ण को आखिर नारदजी ने उकसाया कि प्रद्युम्न के पास यह महिला होने में कुछ भी गलत नहीं था जो शाही परिवार की श्रंगार होने लायक ही थी। प्रद्युम्न ने डांगीर के सुंदिर राज्य पर आक्रमण कर दिया।

डांगीर ने पूरी ताकत से प्रतिकार किया। खूब लड़ा। पूरे जनून से।
लेकिन चींटी को मात करने में पूरे लश्कर को कितना समय लगता है? आखिरकार डांगिर अपना वादा कि वह महिला को किसी को नहीं सौंपेंगा - उसका पालन करने के लिए उन्होंने हस्तिनापुर के राजा दुर्योधन से मदद मांगी।
दुर्योधन ने कहा, "मैं अपनी बलवान सेना सिर्फ एक गणिका को बचाने के लिए नहीं दूंगा।" लेकिन वो भी कृष्ण वासुदेव की सेना के खिलाफ तो था। फिरभी उसने सोचा और कहा, "उनकी रणनीति और विशाल सेना के खिलाफ मेरा काम नहीं। इसके अलावा, प्रद्युम्न मेरा भतीजा है क्योंकि वह मेरे फुफेरे भाई कृष्ण का पुत्र है। मुझे उसे एक अच्छी दुल्हन मिले इसमें सहाय करनी हो या युद्ध, किसीकी पत्नी उठा लाने? ऐसे गलत कार्यमें मेरी सहाय मत लो।"

निराश होकर, डांगीर ने राजा दुर्योधन के शत्रु, पांडवों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
वह सही था। पाणिग्रहण न भी हुआ तो भी यही कन्या उसकी शरणमें थी इसलिए उसकी रक्षा करना डांगीर का कर्तव्य था। क्षत्रिय धर्म किसी भी तरह से आत्मसमर्पण करने वालों की रक्षा करना है। युधिष्ठिर ने धर्म की व्याख्या की। साथ ही पूछा, "क्या हम अपने चचेरे भाई कृष्ण के खिलाफ एक गणिका के लिए लड़ेंगे?"
भीम कहते हैं, "एक बार वासुदेव ने हमारी मदद जो की, तो वह सर चढ़ा हो गया है। एक बार सामना करने दो। पर, एक बात स्पष्ट है- वह 100 प्रतिशत अपना घातक सुदर्शन चक्र लाएगा। तो आइए, हम शुरू से ही अपने पास त्रिशूल रखें, जो शिवजी द्वारा अर्जुन को दिया गया था। सब कुछ सही है। प्यार और युद्ध में।"
यादव सेना का सामना करने के लिए, पांडवों ने शिवजी का त्रिशूल लिया और एक अनजानी गणिका के लिए दोनों फूफी मामा के पुत्र आमने-सामने आ गए। युद्ध में क्षत्रिय को किसी भी तरह से जीतना ही होता है। इसलिए जब कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र भेजा, तो पांडवों शिवजी के त्रिशूल से उसका सामना करने आ गए।
यादव और पांडव सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ। बहुत तबाही हुई । न कोई पलायन होता है,न हार स्वीकार करता है। युद्ध रुकने का नाम नहीं ले रहा है। नारदजी के मन में यह विचार आया कि अब हमें हस्तक्षेप करना चाहिए। इन्होंने अब माया की रचना की।
उर्वशी को रथ पर बिठा कर डांगिर ले जा रहा है और वही से उर्वशी को उठाते उसका हरण करते प्रद्युम्न भागने की कोशिश करता है। डांगीर राजा नीचे रथ के पास अपने जीवन की चिंता किए बिना लड़ रहा है, डांगिर और यादवसेना के बीच एक भयंकर युद्ध।
कृष्ण की यादव सेना ने आखिरकार सुदर्शन चक्र छोड़ दिया। जवाब में, पांडव सेना ने शिवजी के त्रिशूल से उस चक्र पर हमला किया।

दोनों ऐसे वज्र से बने थे जो टकराते है, आग भी बरसाते हैं मगर किसी भी हाल में नहीं टूटते। दिव्यास्त्र किसे कहते हैं !
प्रद्युम्न ने कृष्ण से सलाह पूछी, कृष्णने अब नारदजी को पूछा कि क्या किया जाए। नारदजी बस इस मौके की ही तलाश में थे।
नारदजी की सलाह से प्रेरित होकर, कृष्ण ने तुरंत हनुमानजी को इन दोनों हथियारों को नाकामियाब करने के लिए बुलाया। शिवजी का त्रिशूल और सुदर्शन चक्र आकाश में टकरा गए थे और उनका अलग होना नामुमकिन था। दोनों ने चुंबकत्व ग्रहण कर लिया था। जर
अब हनुमानजी का पूरा शरीर वज्र का था। इन्हों ने कहा कि यदि मैं एक छलांग के साथ आकाश में पहुँच तो जाऊं, फिर मैं एक हाथ से दोनों हथियारों को पकड़कर छोड़ दूँगा। लेकिन जब मैं नीचे आऊँगा, तो मेंरे प्रहार से पृथ्वी पर एक बड़ा भूकंप आ जाएगा। मुझे जमीनमें उतर जाने से रोकने के लिए वज्र की किसी वस्तु रखें।
अचानक भीम ने कहा, "बड़े भाई, ( दोनों पवनपुत्र थे) मैं अर्ध वज्र हूं। एक बार हम पांचों भाई पूजा करने से पहले नदी में स्नान करते थे। स्नान करते समय मैं गिर गया। मेरे विशाल शरीर ने नदी के प्रवाह को रोक दिया। माता पार्वती ने शिवजी से कहा कि मेरे कपड़े पानी में डूबे हुए हैं। कुछ करो। शिवजी हंसने लगे।के
शिवजी ने मुझे उठाने के लिए मेरे शरीर को छुआ। उस की बदौलत मेरा बायां अंग वज्र का है। मैंलेट कर सो जाऊंगा। तुम अपने हथियार गिरा दो और मुझ पर कूद पड़ो।"
आग की लपटों बरसाते उन दिव्यास्त्रों को पकड़ने के लिए हनुमानजी ने आकाश में छलांग लगाई। एक हाथ से सुदर्शन चक्र और दूसरे हाथ से शिवजी का त्रिशूल धारण किया। चुंबकीय शक्ति से सटे दो वज्र, तीसरा वज्र खुद हनुमानजीके हाथों में पकड़े गए और उनसे आग छोड़ना हनुमानजी के द्वारा बंद कर दिया गया। हनुमानजी 'जय श्री राम' कहते हुए जमीन पर कूद पड़े। नीचे, भीम पृथ्वी को उनके झटके से पृथ्वी को बचाने के लिए अपनी बाईं ओर लेटा हुआ था।
दो वज्र के बने दिव्यास्त्र, वज्र से बना हनुमानजी का शरीर यानी तीसरा वज्र, और उनके चरण स्पर्श से भीम.. आधा वज्र.. साढ़े तीन वज्रों का मिलन हुआ और..
रथ पर बंधी एक सुंदर कन्या उर्वशी आकाश में उड़ गई। सभी के मुंह खुले रह गए।
साढ़े तीन वज्र मिले और उर्वशी अपने श्राप से मुक्त हुई!
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