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भवभूति का दार्शनिक दृष्टिकोण

विश्व का प्रत्येक व्यक्ति मूलतः दार्शनिक होता है। विशेष रुप से कवि या नाटककार , ---- जो अपने जीवन दर्शन, विश्व दर्शन, ,आत्म- परमात्म दर्शन के अतिरिक्त साहित्य में अपने स्वतंत्र सृजन -धर्म से जुड़ा होने के कारण अपने वर्णों की विशेष छटा के साथ ,अपने दार्शनिक तथ्यों का प्रस्तुतीकरण करता है । भवभूति की रचनाओं में प्राप्त दार्शनिक सत्य एवं सिद्धांत, ,कवि के समकालीन समाज की आध्यात्मिक विचारधारा को प्रकट करते हैं। भवभूति ने सांख्य -योग, न्याय ,वेदांत -दर्शन, बौद्ध दर्शन ,आदि के तत्वों का विशेष रूप से उल्लेख किया है। इन सभी दर्शनों के तथ्यों का विश्लेषण करने से पूर्व कवि के मीमांसा -विषयक ज्ञान का उल्लेख करना अधिक उचित होगा। कवि तीनों नाटकों के प्रारंभ में सूत्रधार द्वारा अपना परिचय "पदवाक्यप्रमाणज्ञ: "कह कर देता है । "पद" व्याकरण है, "प्रमाण" तर्कशास्त्र है और" वाक्य "कवि के मीमांसा विषयक ज्ञान को प्रकट करता है। उत्तररामचरितम् में आया "अर्थ -वाद" शब्द (उत्तर रामचरितम 1/39--40 )स्तुति के सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हुआ है फिर भी यहां मीमांसा का पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है पदार्थों के सच्चे गुणों का कथन।


सांख्य दर्शन
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इदम् हि तत्वम् परमार्थ भाजाम्,
अयम् हि साक्षात् पुरुष: पुराण:।
त्रिधा विभिन्न प्रकृति : किलैषा ,
त्रातुं भुविं स्वेन सतोऽ वतीर्णा।।
(महावीर चरितम् 72)


ब्रह्म ज्ञानियों का परम- तत्व साक्षात, पुराण -पुरुष ---,सत्त्व, रज, तम--- ,इन तीनों गुणों में विभक्त प्रकृति ,सब पुरुषों के त्राण के लिए ,राम के रूप में अवतीर्ण हुए हैं । भवभूति का यह श्लोक सांख्य दर्शन के दो तत्व---- पुरुष और प्रकृति ---की ओर संकेत करता है। त्रिगुणात्मका प्रकृति की साम्यावस्था ,प्रलय तथा विषम अवस्था ,सृष्टि की प्रतीक है। सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों के कारण यह विश्व सुख ,दु:ख और मोह की विभिन्न अवस्थाओं का अनुभव करता है । प्रियतम- वस्तु की निकटता से प्राणी आनंद- अमृत की अनुभूति करता है ,परंतु उस वस्तु का अलगाव उसे अंगार की तरह तप्त करता है। (मालती माधव 1/20) यह विपरीत भाव गुण- जन्य ही है। पुरुष गुणातीत है। वह साक्षात चैतन्य है। चैतन्य उसका गुण या अभिधान नहीं है। तब फिर उसके अवतरण का कारण क्या है? कवि के शब्दों में---" त्रातुम् "--अर्थात् --"-साधुनाम् परित्राणाय"। यहां कवि त्रिगुणात्मका प्रकृति और पुरुष का उल्लेख करके भी उस परम तत्व की ओर संकेत करता है जिसे वेदांत में परम ब्रह्म की संज्ञा दी गई है।

योग दर्शन
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मालती माधव में महाकवि भवभूति का यह कथन----

"तत् परिचितनुचित्तप्रसादनी: चतस्रो मैत्रयादिभावना:। प्रत्या- -सीदति हि ते विशोका ज्योतिषमति नाम योग वृत्ति: ।"
यह योग दर्शन के महत्वपूर्ण निर्देशों की व्याख्या प्रस्तुत करता है।

भवभूति ने जिन चार मैत्रयादि भावनाओं का उल्लेख किया है, पतंजलि ने उन्हें मैत्री ,करुणा , प्रसन्नता और उपेक्षा आदि नाम दिए हैं---'

मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणाम् सुख-दु:ख ,पुण्यापुण्यविषयाणाम् भावनात : चित्तप्रसादनम् । (योग सूत्र 1/33)

अर्थात् सुखी मनुष्यों में मैत्री -भावना तथा दु:खी मनुष्यों में दया- भावना, पुण्यात्मा पुरुषों में , प्रसन्नता की भावना तथा पापियों में ,उपेक्षा की भावना रखने से, विकार नष्ट हो जाते हैं और चित्त प्रसन्न एवं निर्मल हो जाता है। मन की स्थिति के लिए कवि शोक को दूर करने वाली ज्योतिषमति योग -वृत्ति का प्रसंग प्रस्तुत करता है । पतंजलि ने इसे -‐-

"विशोका वा ज्योतिषमति "। (योगसूत्र 1 /36)

कहकर विश्लेषण किया है । अभ्यास करते करते जब साधक शोक रहित ज्योतिर्मय स्थिति को प्राप्त करता है तब वह संशय रहित हो जाता है। और ऋतंभरा प्रज्ञा को प्राप्त करता है---

"ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा "(योगसूत्र 1/48)

यह" ऋतंभरा प्रज्ञा",----'" श्रुत -प्रज्ञा "और" अनुमान -प्रज्ञा" से अधिक श्रेष्ठ है ,क्योंकि इसके द्वारा वस्तु के स्वरूप का यथार्थ और पूर्ण ज्ञान हो जाता है। वैराग्य का उदय होता है और राग- द्वेषमय संस्कार नष्ट हो जाते हैं । अंतर ज्योति के दर्शन होते हैं और साधक मोक्ष की स्थिति को प्राप्त कर लेता है।

मालती माधव में प्रसंग है कि ---",प्रियतम की निरंतर चिंतना से तन्मय होकर चित्तवृत्ति सारुप्य को धारण करती है। "--
(मालती माधव 5 /9_10)

योग दर्शन में इसे ‐--"वृत्ति सारूप्यमितरत्र "(योग सूत्र 1/4)कहागयाहै।

यह वृत्तियां पांच प्रकार की होती हैं---

"प्रमाण ,विपर्यय ,विकल्प ,निद्रा स्मृतय: "(योगसूत्र 1/6)

"मालती माधव "में --कवि ने इन वृत्तियो में से केवल --"स्मृति"-- का उल्लेख किया है (मालती माधव 5 /9--10)

पतंजलि ने "स्मृति "की परिभाषा इस प्रकार दी है----

"अनुभूत विषया सम्प्रमोष : स्मृति:" । (योग सूत्र 1/11)

अर्थात् अनुभूत विषयों का अपरिवर्तित स्मरण ही स्मृति है।

"मालती माधव" में योगिनी कपालकुंडला एवं सौदामिनी के आकाश मार्ग से गमन करने का प्रसंग आता है। कवि के इस कथन का प्रमाण भी पतंजलि के योग दर्शन में प्राप्त होता है---


"कायाकाशयो : संबंधसंयमात् लघुतूल समापत्तेश्चाकाश गमनम्"

अर्थात् काया और आकाश के संबंध का ज्ञान कर लेने पर योगी अपने शरीर और मन का रूपांतर करके उन्हें रुई की तरह हल्का कर लेता है और आकाश गमन में समर्थ हो जाता है । इसे --"लघिमा"-- शक्ति कहा गया है।

भवभूति ने "-योग -दर्शन "--संबंधी कुछ अन्य तथ्यों का भी उल्लेख किया है जैसे---

"षडधिकदश नाड़ी चक्रमध्यस्थितात्मा "--(मालती माधव 5/1)

सोलह नाड़ियों से गुथा यह चक्र नाभि में स्थित है। उसमें संयम करने से शरीर के व्यूह का ज्ञान हो जाता है।

"नाभि चक्र कायव्यूह ज्ञानम्"-- (योगसत्र3/30 )

भवभूति द्वारा प्रयुक्त--" सिद्धि "--शब्द ',(मालती माधव 5/1) का अर्थ अणिमा ,लघिमा ,महिमा ,गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व, ईशित्व ,आदि अष्ट सिद्धियों से है। कवि ने शक्तिनाथ शिव को सिद्धि का प्रदाता --"सिद्धिद:"-- कहा है तथा "--हृदय को कमल"-- बतलाया है।( मालती माधव 52 )उसमें संयम करने से वृत्तियो सहित चित्त का ज्ञान हो जाता है।

"हृदये चित्त संवित् "(योगसूत्र 3/35)


न्याय दर्शन
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भवभूति की रचनाओं में--" न्याय- दर्शन-- "संबंधी प्रसंगो का उल्लेख बहुत कम हुआ है । कवि का यह कथन कि प्रत्यक्ष एवंअनुमान से जाने गई एक ही वस्तु पर्याप्त अंतर रखती है,-- यह---- प्रत्यक्ष -प्रमाण एवं अनुमिति -प्रमाण--- ,की ओर संकेत करता है। इंद्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न ज्ञान--" "प्रत्यक्ष "--तथा अनुमान से प्राप्त ज्ञान ‐-"अनुमित्ति"-- कहलाता है। न्याय -दर्शन में यथार्थ अनुभव के साधन को प्रमाण कहा गया है।

"प्रियमीयते अनेनेति प्रमाणम्" । (भारतीय -दर्शन प्र॰2/47)

प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान के अतिरिक्त एक स्थल पर कवि ने --"शब्द -ब्रह्म "--का उल्लेख भी किया है। (उत्तररामचरित 2/5--6) जो नैयायकौ के मत में यथार्थ -ज्ञान का अंतिम साधन है। जैन और बौद्धों के अपने शास्त्र --"आगम- प्रमाण"-- हैं, क्योंकि-- "शब्द "---को वे भी प्रमाण मानते हैं।

वेदांत दर्शन
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श्रुति के चरम -सिद्धांत के अर्थ में ,"---वेदांत"--' शब्द का प्रयोग उपनिषदों में ही सर्वप्रथम उपलब्ध होता है

"वेदान्ते परमं गुहयं ("उपनिषद् 6/22)
भवभूति ने जिस नित्य ,अनादि ,अनंत ,चैतन्य- ज्योति परमात्मा की उपासना की है, उसी निर्विकल्प, निरूपाधि ,निर्विकार -सत्ता को वेदांत में --"परब्रह्म "--कहा गया है। इसकी ज्योति अक्षर है -- "अक्षरा ज्योति: "(उत्तररामचरित 4/10--11)
इसी तरह ब्रह्म के साक्षात्कार के लिए ऋषि मुनि साधना -रत रहते हैं। इसलिए अनुभूति उनकी ब्रह्मानंद अवस्था है ।
( महावीर चरितम् 7/31 )
यही शाश्वत पद है। (उत्तररामचरितम् 2/21--22)

कवि ने अंधकार में डूबी हुई आत्मा का उल्लेख किया है (मालती माधव 9/20 )
प्राणी इस जीव लोक के निरंतर परिवर्तनशीलता की अनुभूति करता है---

"जीव लोक परिवर्तनमनुभवामि "(मालती माधव 7 /12)

दु:खमय और भयंकर इस लोक को कवि नरक की संज्ञा देता है

"घोरे अश्मिन् जीव लोक नरके "(उत्तररामचरितम् 4/17)

सृष्टि पंच भौतिकी अर्थात् पंच तत्वों से निर्मित कही गई है ---

"एवं किलेयम् पंच भौतिकी सृष्टि: "(महावीर चरितम6/59-60)

प्रमुख प्रधान विक्षेप -शक्ति से युक्त अज्ञान उपहित चैतन्य से सूक्ष्म तन्मात्रा रूप आकाश की उत्पत्ति हुई ।आकाश से वायु की, वायु से अग्नि ,अग्नि सेजल और जल से पृथ्वी की ,उत्पत्ति हुई । इन पंच तत्वों से बने प्राणियों का लय भी पंचतत्व में हो जाता है

"पंचताम् गता: "(महावीर चरितम् 6/60)

भवभूति ने वेदांत दर्शन के"---"- विकार" एवं "विवर्त --"-'इन दोनों शब्दों का प्रयोग भी दार्शनिक रूप में ही किया है। उत्तररामचरितम् का यह श्लोक दृष्टव्य है---

विद्या कल्पेन मरुता मेघानाम भूयसामापि ।
ब्रह्मणीव विवर्तानाम् क्वापि प्रविलय कृत:। (उ रा 6/6)

अर्थात् वायु ने मेघों के समूह का लय उसी प्रकार कर दिया है, जिस प्रकार तत्वज्ञान नामरूपात्मक विवर्तो का लय ब्रह्म मैं कर देता है ।----यह तथ्य वेदांत के "--विवर्त"-- मत का ही निर्देशन करता है।-- वेदांत में जगत को"" माया का विकार" तथा "ब्रह्म को "विवर्त "कहा गया है। उत्तररामचरितम् का श्लोक दृष्टव्य है---

एको रस: करुण एव निमित्त भेदात्
भिन्न: प्रथक् प्रथगिवाश्रयते विवर्तान्। (उत्तररामचरितम् 3/47)

यह श्लोक--" विवर्त एवं विकार"-- दोनों शब्दों को सारगर्भित रूप से प्रस्तुत करता है ।( महावीर चरितम् 7/15) मैं राम के नाम-- स्मरण द्वारा अमर पद प्राप्त करने का संकेत देकर कवि ने भक्ति -योग के अत्यंत महत्वपूर्ण अंग नाम -जप का भी उल्लेख किया है।


बौद्ध दर्शन
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यद्यपि तत्कालीन समाज में मध्य भारत में बौद्ध धर्म के साथ ही जैन धर्म का भी प्रभाव था। राजाओं द्वारा इनके बौद्ध भिक्षुओं एवं मंदिरों को दान दिया जाता था । विहारों एव चैत्यों का निर्माण भी कराया गया। परंतु 600 से 1200 ईसवी के बीच का समय "वैदिक धर्म "के पुनरुत्थान का काल था। जहां एक और अनेक दार्शनिकों ने वैदिक धर्म और अनुष्ठान की पुनः प्रतिष्ठा की ,वहीं दूसरी ओर भवभूति माघ ,श्रीहर्ष आदि कवियों ने अपनी रचनात्मक शक्ति द्वारा, वेद ,उपनिषदों के ज्ञान और दर्शन को जन जीवन में प्रवर्तित किया।

मालती माधव की एक मुख्य पात्र कामंदकी के चरित्र - व्यवहार से स्पष्ट है कि वह प्रवृज्या के नियमों की कठोरता को स्वीकार न करते हुए एक कोमल हृदया मानवी की भांति व्यवहार करती है ।उसके गृहस्थ धर्म का आदर्श भी वैदिक धर्म में प्रतिष्ठित आदर्श के अनुकूल ही दिखाई पड़ता है। कामंदकी
के कार्यों से सहज अनुमेय है,--" कि भवभूति इस पात्र के द्वारा वैदिक धर्म के अभ्युदय को प्रतिष्ठित करना चाहते थे।"-- बौद्ध परिव्रजिक होने पर भी कामंदकी मालती को सौभाग्य वृद्धि के निमित्त ,चतुर्दशी के दिन शंकर की पूजार्थ फूल चयन के लिए उद्यान में भेजती है। (मालती माधव 31 )यह भवभूति की अपनी उदारता थी अथवा उस समय का दृष्टिकोण कि वैदिक एवं बौद्ध धर्म के अनुयायियों में द्वेष दिखाई नहीं पड़ता।


तांत्रिक दृष्टिकोण
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सौदामिनी के चरित्र से यह ज्ञात होता है कि उस समय लोग बौद्ध संप्रदाय छोड़कर अघोरी, शैव या तांत्रिक श्रेणी में प्रवेश करने लगे थे। कामंदकी की शिष्या सौदामिनी पहले बौद्ध थी किंतु बाद में तपस्या ,तंत्र ,मंत्र, योग ,अभियोग ,आदि के अनुष्ठान से उस ने अनेक सिद्धियां प्राप्त की थी। भवभूति के समय का तांत्रिक समाज ---अघोर घंट, कपालकुंडला और सौदामिनी-- के चरित्र में विशेष रूप से प्रकट हुआ है। पद्मावती नगरी के श्मशान में बने कराला नामक चामुंडा के मंदिर में प्रधान गुरु ,मुंड धारी ,अघोर घंट ,भीषण वेश धारी उनकी शिष्या कपालकुंडला तथा अलौकिक सिद्धियों से युक्त सौदामिनी ,--तांत्रिक समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। बलि हेतु मालती का चयन तथा उसका रुदन सुनकर माधव का यह कथन कि ----
"ननु स्थानम् अनिष्टानाम् तादीदृशानाम्( मालती माधव 521) निश्चित ही उस समय प्रचलित---" नरबलि "--आदि अघोर कार्यों की सूचना देता है।


गुरु- चर्या, तपस्या ,तंत्र -मंत्र ,योग एवं अभियोग के अनुष्ठान से सिद्धियों को प्राप्त करना( मालती माधव 9/53) जिस संप्रदाय का उद्देश्य था तथा जिस संप्रदाय की आराध्य देवी चामुंडा थी,--- भवभूति के समय मेंइस संप्रदाय का क्या नाम था ? निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। कुछ लोग इसे "अघोर -पंथी" तथा कुछ लोग "तांत्रिक" कहते हैं। वस्तुतः अघोरी भी तांत्रिक संप्रदाय के ही माने जाते हैं। नरबलि देना और नर कपाल को धारण करना जिस संप्रदाय का प्रमुख अंग था उसके गुरु अघोर घंट के वध द्वारा भवभूति ने इस संप्रदाय के प्रति अपनी भर्त्सना ही व्यक्त की है। इस प्रकार कवि ने अपने नाटकों की रचना वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा हेतु ही की है । भवभूति की कृतियों में धर्म के विविध विश्लेषण और दार्शनिक अध्ययन से तत्कालीन धार्मिक ,दार्शनिक '--प्रवृत्तियों की झलक तो मिलती ही है, साथ ही भारत की परंपरागत विचारधारा तथा भवभूति के धार्मिक दार्शनिक चिंतन एवं उनकी तत् संबंधी अवधारणा का परिचय भी प्राप्त होता है।


महाकवि भवभूति के दार्शनिक दृष्टिकोण पर प्रकाश डालने वाला श्री शरद चंद्र शास्त्री का यह कथन दृष्टव्य है----

"भवभूति ने बौद्ध और तांत्रिक धर्म से जन समाज का चित्त हटाने के लिए ही अपने तीनों नाटकों की रचना की। इसका प्रमाण उनके काव्य-- त्रय में प्राप्त समाज चित्रों से भली भाॅति मिलता है। उन्होंने वैदिक समाज के चित्र को इतना पवित्र और महत् प्रस्तुत किया है कि मनुष्य की चित्तवृत्ति स्वयं ही उस ओर प्रेरित होने लगती है। उन्होंने मालती माधव में तांत्रिकों के कार्यों की भीषण नीति-- भ्रष्टता और हिंसात्मकता का ऐसा वर्णन किया है कि --जिसमें कुछ भी विचार शक्ति है वह इस तरह के धर्म को ग्रहण तो क्या करेगा? वल्कि यदि वह उस धर्म में होगा तो भी--तत्काल उससे अलग हो जाएगा।



इति

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