गुमनाम क्रांतिकारी Harshit Ranjan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गुमनाम क्रांतिकारी

हमारे देश को स्वतंत्र बनाने के लिए कई स्वतंत्रता सेनानियों तथा क्रांतिकारियों ने प्रयास किया था और उनके बलिदानों का ज़िक्र आज भी हमारे इतिहास में है ।
लेेेकि कई क्रांतिकारी ऐसे भी हैं जो अपने बलिदानों केे बााा भी इतिहास में सदैव गुमनाम रहे । आइए उनमें से कुछ के बारे में जानते हैं :-

1) बटुकेश्वर दत्त :
बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 में पश्चिम
बंगाल के खंंडाघोष गाँँव में हुआ था । उन्होंने सरदार
भगत सिंह के साथ मिलकर दिल्ली के सेन्ट्रल
लेजिस्लेटिव एसेंंबली हाउस में दो बम फेंके थेे । इस
बम कांड का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति को हानि
पहुँचाना नहीं था । बम फेंकने के बाद वो दोनों चाहते
तो बड़ी आसानी से भाग सकते थे लेकिन उन दोनों ने
स्वेच्छा से अपनी गिरफ्तारी दे दी । इस घटना के बाद
सरदार भगत सिंह को फाँसी की और बटुकेश्वर दत्त को
कालापानी की सजा सुनाई गई । आज़ादी के बाद
बटुकेश्वर जी को जेल से रिहा कर दिया गया लेकिन
इसके तुरंत बाद ही वे टी.बी. ( टयूबरक्यूलोसिस ) से
संक्रमित हो गए जिसकी वजह से सन् 1965 में
दिल्ली के एम्स अस्पताल में अत्यंत ही लाचार अवस्था
में उनका देहांत हो गया । अपने अखण्ड बलिदान के
बाद भी उन्होंने अपना जीवन राजनीति की चकाचौंध
से दूर गरीबी के अँधेरे में बिताया जो बहुत ही शर्मनाक
बात है ।

2) बख्त खान :
बख्त खान इष्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ हुए विद्रोह
में भारतीय विद्रोही बलों के कमांडर-इन-चीफ थे ।
उनका जन्म सन् 1797 में हुआ था । इस विद्रोह में
उन्होंने अंतिम मुगल बादशाह ''बहादुर शाह ज़फर'' की
सेना का नेतृत्व किया था ।

3) किफ़ायत हुसैन:
किफ़ायत हुसैन जगदीशपुर रियासत के ज़मीनदार
"बाबू कुँवर सिंह" की सेना के प्रमुख सेनापति थे ।

4) ताँतिया टोपे:
ताँतिया टोपे ने 1857 में अंग्रेजी इष्ट कंपनी के
खिलाफ हुई बगावत में हिस्सा लिया था । उनकी सेना
को छापामार युद्ध में महारथ हासिल थी । अंग्रेजों की
भिड़ंत उनकी सेना से कई बार हुई लेकिन हर बार
उन्होंने दुश्मनों को मैदान छोड़कर भागने पर मजबूर
कर दिया । उनका जन्म 16 फरवरी 1814 में
महाराष्ट्र के येवला गाँव में हुआ था । उनका पूरा नाम
रामचंद्र पांडुरंग टोपे था । उनके पिता जी का नाम
पांडुरंग टोपे तथा माताजी का नाम रुखमाबाई था ।
नानासाहेब पेश्वा (द्वितीय) उनके घनिष्ठ मित्र थे ।
नानासाहेब के साथ मिलकर उन्होंने अंग्रेज़ फ़ौज को
लगभग तीन बार कानपुर तथा पुणे में पराजित किया ।
उनकी वजह स कौलेन होल्मस और विधंम जैसे
जेनरलों को उलटे पाँव लौटना पड़ा था । लेकिन
आधुनिक हथियारों की कमी और आर्थिक रूप से
अधिक सक्षम न होने की वजह से वे अंग्रेजों के
खिलाफ़ ज्यादा दिनों तक अपने विद्रोह को जारी नहीं
रख पाए और अंतत: अंग्रेजों द्वारा उन्हें पकड़ लिया
गया और 18 अप्रैल 1859 को फाँसी पर चढ़ा दिया
गया ।

5) बेगम हज़रत महल:
बेगम हज़रत महल(बेगम-ए-अवध) अवध के आखिरी नवाब "वाजिद अली शाह" की दूसरी बेगम थी ।
अंग्रेजों द्वारा अपने शौहर के कलकत्ते में निर्वासन के
पश्चात उन्होंने लखनऊ पर कब्जा किया और अपनी
अवध की रियासत को बरकरार रखा । उनका जन्म
सन् 1820 में फ़ौजाबाद में हुआ था । अपनी
रियासत को अंग्रेजों के कब्जे से बचाने के लिए
उन्होंने अपने बेटे को अवध का नया शासक नियुक्त
किया लेकिन उनका शासन जल्द ही समाप्त हो जाने
की वजह से उनकी यह योजना विफ़ल हो गई और
अंतत: उन्हें नेपाल में जाकर शरण ली जहाँ पर
07 अप्रैल 1879 को उनका देहांत हो गया ।