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समानता  

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से समाज शास्त्र से एम 0 ए 0 करते करते इतना आत्म विश्वास आ गया कि अब हमने समाज के बारे में , बहुत कुछ जान लिया है। भारतीय समाज के द्वापर , त्रेता , सतयुग , कलयुग को पढ़ लिया ।पश्चिमी दृष्टियों से भी समाज के विकास को पढ़ लिया । डार्विन के सिद्धांत को भी पढ़ लिया है। बाजार के सिद्धांत को भी पढ़ लिया है कि हर आदमी मुनाफे की ओर भागता है। अर्थात जहाँ मुनाफा होगा , आदमी वही जायेग।

छुट्टियो में जब गांव जाता तो गांव के समाज को , उसके अर्थ शास्त्र को , उसकी जड़ता को , उसके गत्यात्मकता को , उसके आंतरिक ताने बाने को किताबी सिद्धांतों व व्याख्याओं से समझने की कोशिश करता। अधिकतर , किताबी ज्ञान अनुभव से पुष्ट हो जाता ।

इस बार जब मैं गांव पहुंचा तो अपने बड़े ताऊ जी को बहुत परेशान पाया । पूछने पर उन्होंने बताया ,

- धान कटाई के लिये तैयार है , लेकिन मजूर (मजदूर ) नही मिल पा रहे हैं ।

- पिछले साल बड़ी मुश्किल से मजूरन (मजदूरिन ) मिली थी , इस साल कोई नही मिला जिससे कटाई बिल्कुल ठप्प हो गया है।

- ऐसा क्यों हो रहा है ?

- मुझे भी समझ नही आ रहा है।

- मजूरी ..... कम तो नही है।

- नही .... गांव में लोग चार सेईया देते हैं ....हम लोग तो पांच सेईया दे रहे हैं। तब भी मजूर नही मिल रहे हैं।

- ऐसा तो नही ..... पड़ोसी गांव में इससे अधिक मजूरी नही मिल रही हो , इस लिये मजूर उधर चल गए हो।

मैंने पूछा?

- पता कराता हूँ .... पूरे जवार में 4 सेईया ही मजदूरी चल रही है.... फिर भी पता कराता हूँ।

ताऊ बोले।उन्होंने बात को आगे बढ़ाई-

- धान पका हुआ है ... जल्दी काटना जरूरी है .. नही तो यदि बिना मौसम बरसात हो गयी तो बहुत नुकसान होगा। बालियों से दाने गिर जाएंगे ,जो पानी मे सड़ जाएंगे । यदि दाने न गिरे तो दाने भीग जाएंगे, जिसे सुखाकर कुटाई करने पर , चावल पर काला दाग लग जायेगा, जिसके खरीददार कम मिलेंगे , रेट कम मिलेगा।

बात खत्म करते करते ताऊ के आवाज में चिंता महसूस होने लगी।

यह सही है कि हम लोग खुद हल नही चलाते , रोपिया , कटाई नही करते ।लेकिन खेती से जुड़े लोगों की नियति एक सी रहती है। संयुक्त परिवार के मुखिया के रूप में ताऊ को कुछ विशेष अधिकार थे , लेकिन विशेष कर्तव्य भी उन्ही के मत्थे था।घर मे पर्याप्त धन की व्यवस्था करना , उन्ही की जिम्मेदारी है । जरिया भी एक ही है - खेती। खेती में यदि कही ऊंच नीच हो गयी तो उसका असर पूरे परिवार की व्यवस्था पर पड़ना था।

अगले दिन ताऊ ने पता कराया , पता चला कि मजदूरन दूसरे गांव नही गई है , वे इसी गांव के एक शौकीन युवा खेतिहर के यहाँ 4 सेईया मजदूरी पर धान की कटिया कर रही है।ताऊ के लिये , यह स्थिति नई थी।उन्हें यह नही समझ मे आ रहा था कि अधिक मजदूरी देने पर भी , धान कटाई के लिये ,उनके यहाँ मजदूर क्यो नही आ रहे हैं ?

मुझे भी यह समझ मे नही आ रहा था कि सामान्य मान्यता (आदमी अधिक से अधिक मुनाफा कमाना चाहता है )के विपरीत कम मजदूरी पर क्यो काम करेगा ? अर्थशास्त्र के अधिकतम संतुष्टि के नियम के ,यह विपरीत था। किताब के नियम के विपरीत व्यवहार में हो रहा था।

क्या नियम गलत हैं? मेरे मन की शंका को मेरे मन ने ही खारिज किया । ये नियम सैकड़ों साल पुराने है , पूरे विश्व मे लागू है , इन पर हज़ारो शोध पत्र लिखे जा चुके हैं- फिर यह गलत कैसे होंगे। फिर मन मे एक प्रश्न कौंधा - कही ताऊ मारते पीटते तो नही है , इसलिये मजदूर नही मिलते हैं।

इस सवाल का उत्तर यदि घरवालो , शिरवाह , हरवाह से पूछा जाता तो वे इसका ऋणात्मक उत्तर ही देते। इसलिए मैंने गांव की छोटी बाजार की शरण ली । इस बाजार में गांव की सारी गतिविधियां सांकेतिक रूप से उपस्थित रहती । वहाँ गांव का जीवन ग्राफ दिखता है ।वहाँ पता चला कि ताऊ मारते पीटते नही है। अपने काम से काम रखते हैं। उनका तरीका है कि पूरा काम करो और पूरी मजदूरी लो।

मेरी समस्या वैसे की वैसे ही रही । अधिक मज़दूरी छोड़कर कम मजदूरी पर क्यो कोई काम करेगा ? फिर मन ने एक संभावित कारण ढूंढा -मजदूर कामचोरी के वजह से ताऊ के यहा न जाना चाह रहे हो । कामचोरी तो एक दो व्यक्तियों में होगी , सभी मे नही । फिर मुनाफे का नियम तो सार्वभौमिक है, सर्वव्यापी है ।

अब मुझे लगा कि इस विसंगति की जानकारी एक ही तरीके से संभव है - उन मजदूरन से ही पूछ जाय और इस तरह से पूछा जाय कि उन्हें यह भनक न लगे कि मैं ताऊ के परिवार का हूँ।मैंने पता किया कि शौकीन युवा खेतिहर के खेत मे कटाई कहाँ हो रही है और वह कटिया होते समय खेत पर कब नही रहता। मैं बाहर पढ़ता था इसलिए गांव की अधिकतर औरते मुझे नही पहचानती कि मैं इसी गांव का हूँ और ताऊ के घर का हूँ , लेकिन अधिकतर पुरुष पहचानते थे । पता चला कि युवा खेतिहर अगले दिन दोपहर को तहसील जाएगा इसलिये शाम को खेत पर नही रहेगा। अब अगले दिन मुझे जिज्ञासा का निवारण करना था।

उस शौकीन युवा खेतिहर का खेत पड़ोसी गांव को जोड़ने वाले कच्चे रास्ते पर था ।मैंने साईकल ली । गमछा लेकर कत्ती बाँधी। कुर्ता पजामा पहन उस गांव की ओर शाम को चल पड़ा। उसके खेत तक पहुचते पहुचते सूरज डूब रहा था । मजदूरन कटिया करके सुस्ता रही थी,अब वे कटे धान के बोझों को खेत से खलिहान लाने की तैयारी कर रही थी।

मैंने साईकल रोकी। मज़दूरिनो से पूछा ,

- मजदूरी क्या चल रही है ?

- चार सेई ।

उनमे से एक ने जबाब दिया।

- बस ! चार सेई !

- हा

-बाजार में कोई बता रहा था कि इसी गांव में 5 सेई की मजदूरी चल रही है।

- पूरे गांव में चार सेई ही मजदूरी चल रही है केवल एक जगह 5 सेइ मजदूरी दे रहे हैं।

- फिर , 5 सेई छोड़कर 4 सेइ मजूरी पर क्यो तुम लोग काम कर रही हो ?

- यहाँ मजदूरी कम जरूर मिलती है , लेकिन इस खेत का मालिक हम लोगो को बराबर मानकर हंसी ठिठोली करता है। जिससे काम बोझ नही लगता है। उनके यहाँ (ताऊ के यहाँ) मजदूरी अधिक मिलती है लेकिन काम बोझ लगने लगता है । क्योंकि ऐसा लगता है कि हमे नौकर समझ कर काम ले रहे है ।

मुझे लगा कि मेरे बौद्धिकता की , तर्कशास्त्र की नीव हिलने लगी - मैंने इतनी किताबे पढ़ डाली । डिग्रियां ले ली ।लेकिन यह तो किसी किताब में था ही नही ।मुझे समझ मे आया - पढ़ तो बहुत लिया लेकिन अभी बहुत कुछ जानना / समझना बाकी है।

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