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नई सुबह - 2



पापा कार निकाल कर दोनो को छोड़ने गए तो मैंने दांतों से जीभ काट ली। क्या मूढ़ता कर बैठी थी मैं? कौन सी सुखद स्मृति थी उस घर की इन दोनो के पास ?

उन दोनों के जाने के बाद मां अन्यमनस्क सी हो गई। शायद उनको भी वो पन्द्रह वर्ष पुराना समय याद आ गया , जब इन लड़कियों के नन्हे पैरों से हमारे घर में भी चहल पहल रहती थी।

हर्षिता दो माह की थी, जब नीता आन्टी का परिवार हमारे बगल के घर में रहने आया। आन्टी की शादी को कुल एक वर्ष हुआ था, पर नव विवाहिता का उल्लास नही था। दिल्ली उजड़ जाने पर भी, फिर भी दिल्ली ही थी । अंकल भी सुदर्शन थे, उच्च शिक्षित, उच्च पदस्थ । परिवार शान्त था, स्वकेन्द्रित। हमारा परिचय पापा के कारण वैसे भी बच्चा पार्टी से ही रहता था ।

इसीलिए जब एक दिन आन्टी ने मां से कुछ सलाह मांगी तो मां हतप्रभ रह गईं। मात्र पच्चीस साल की नवयुवती, जिसकी पहली सन्तान का पहला जन्मदिन गए कुछ माह ही हुए थे, ना सिर्फ दोबारा गर्भवती थी, अपितु उस अजन्मी सन्तान के लिंग निर्धारण पर उस का जीवन निर्धारित करने चली थी। मां ने भरसक मुलायम स्वर में ऐसे किसी डॉक्टर या क्लिनिक के प्रति अनभिज्ञता जताई, पर उनका मन खट्टा हो गया था ।

पता नही आन्टी को इतने बड़े शहर में कोई उपाय नहीं जुटा, या अन्त तक वो इसकी हिम्मत न जुटा पाई, पर दित्तू के जन्म के बाद उन के साथ मायके से सिर्फ दित्तू ही लौटी, हर्षिता नही। हर्षिता तब तक हम सब से हिल चुकी थी, और ये नई आमद मुझे शत्रु सी ही लगी । मां का लेकिन इस अवांछित सन्तान पर विचित्र स्नेह था । छुट्टी के दिन वो उस नवजात की दूसरी मां बन जाती। उसे नहलाती धुलाती, खिलाती पिलाती मां पता नही दित्तू के जीवन की स्नेह की कमी पूरी कर रही, या अपने अन्दर के दोबारा मातृत्व सुख न पाने की कमी को। कारण जो भी , मेरा मां पर एकाधिकार छिनता देख दित्तू के प्रति मैं बहुत पहले से असहिष्णु थी ।

असहिष्णु, ये शब्द मां से ही सुना था, जब भी वो मेरे और दित्तू के बीच के वय के अन्तर की चर्चा करतीं। आज तक यह मेरे लिए मात्र शब्द नही, एक भावना है, अकारण अव्यक्त असन्तोष और उस से उपजे वैमनस्य की ।

उधर पड़ोस के घर में असहिष्णुता की आंच बढ़ती ही जा रही थी । वाद विवाद के अस्पष्ट स्वर दीवार की परिधि लांघ कर हमारे कानों में पड़ते। नीता आन्टी अच्छी भली सॉफ्टवेयर की नौकरी छोड़ कर विवाह बन्धन में बंधी थीं। अब वही बन्धन गलग्रह बनता जा रहा था । अनुभव विहीन मां दो छोटे बच्चों के साथ कोई नौकरी, कोई व्यवसाय करने में स्वयं को अक्षम पा रही, तो दोनो बेटियां बारी बारी ननिहाल में बड़ी हो रही थी। पति की परिवार के प्रति उदासीनता आर्थिक कृपणता में परिवर्तित हो चुकी थी ।

उस अन्धकार में ज्योति पुंज सी थीं ये दोनो बहनें, शिष्ट, सौम्य, कुशाग्र, और मां के प्रति अनुरक्त । उस नन्ही सी आयु में भी वे पिता के विरोध में कुछ न कहती। पिता के पक्ष में कहने को कुछ अधिक था भी नही उनके पास ।

पर उस रात ने सब बदल दिया। मैं आगामी परीक्षा की पढ़ाई देर रात तक करती थी । आधी रात को जब हर्षी के बदहवास रोने के साथ मुख्य द्वार पीटे जाने की आवाज आई, और जब मां पापा लहू लुहान आन्टी को घर लाए, मेरे किशोर मन ने विवाह के लिए ऐसा वैराग्य अपनाया..........और अब तो वयस के वर्ष भी मुट्ठी में भरी रेत से सरकते जा रहे थे ।

हर्षिता तो शायद इस मानसिक आघात से गूंगी ही हो गई थी । पर पापा तो धृति के बेस्ट फ्रेंड थे । उस भोली ने अपने छः वर्षों का अर्जित अनुभव पापा के कानों में ही उड़ेला , " अंकल, मैं छोटी थी तो मुझे लगता था कि सब लोग अच्छे होते हैं, पर सब लोग अच्छे नहीं होते। मेरे पापा अच्छे नहीं हैं । आपने देखा ना, कितना मारा मम्मी को....."।

मां को ऐसे बुक्का फाड़ के रोते मैंने न पहले देखा था, ना उसके बाद।

जितने लोग, उतनी बातें , उतनी सलाहें । आन्टी ने घरेलू हिंसा का दावा किया, और दोनो लड़कियों का हाथ थामे मायके चली गईं । उनके माता पिता भी समझ गए थे कि सामंजस्य का पाठ अब व्यर्थ है ।फिर उनके पति ने घर बेच दिया और ये स्पष्ट हो गया कि अब उनके लौटने के द्वार मूंद गए।

एकाध साल तो वार त्योहार जन्मदिन पर फोन आए गए, फिर सम्बन्धों पर समय की धूल चढ़ती गई, और पंद्रह वर्ष बीत गए ।

अब अचानक हुई इस भेंट ने झाड़न ले कर विस्मृति की धूल पोंछ दी । उसी रात आन्टी का फोन आया , देर तक मां से बात करने के बाद उन्होंने मुझ से भी बात करने की इच्छा व्यक्त की ।

किसी किशोरी को जो आकर्षण एक नवविवाहिता से होता है, उसी ने हमारी मित्रता की नींव डाली थी, आन्टी का प्रसाधन संग्रह । उनके रूप की तरह उनकी रुचि भी बेमिसाल थी । हर प्रतियोगिता के पहले मेरी सज्जा उनके हाथों होती थी। उनके दिए मेकअप टिप्स आज तक मेरी गांठ बंधे थे ।

" कब शादी कर रही हो? ", उन्होंने छूटते ही पूछा। " हिम्मत नही होती आन्टी ", मैंने दबे स्वर में कहा तो वो अनकहा स्वयं ही समझ गई । " मै अपवाद हूं, गुड़िया, नियम नही। एक कड़वी याद के चलते सम्बन्धों के लिए मन में गांठ बांधना ठीक नही । अटक के नही बैठते, काई जम जाती है। बढ़ती रहो, बहती रहो । और तुम तो देश की सबसे फेमस मेकअप आर्टिस्ट की पहली मॉडल हो। कहते हैं जिसके पास जो नही होता, उसकी दुआ सबसे फलदाई होती है । तेरह साल का अनुभव है, मेरी सजाई हर दुल्हन फूली फली है । तो खबरदार जो किसी और का ब्रश तुम्हारे गाल छू जाए ।"

कोई ग्लानि नहीं, दुख नही, मनो मालिन्य नही । इतने बड़े आघात को पार कर चुकी प्रतिवेशिनी के आत्मविश्वास को मैं कैसे डिगा सकती थी ।

मां पापा के सो जाने के बाद मैंने सिद्धार्थ को फोन मिलाया , " सुनो , मैं मंडे आ रही हूं , डिनर पे मिलोगे ? डेट फाइनल कर लेते हैं ।"

इति


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