सोने की चिड़िया મહેશ ઠાકર द्वारा पौराणिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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सोने की चिड़िया

पुराने ग्रीक लेखकों का भारत वर्णन
१. सोने की खुदाई करने वाली चींटियां
ग्रीक हेरोडोटस (४८४-४२५ ईपू) ने अपने इतिहास खण्ड ३ में एक अध्याय में केवल भारत की उन चींटियों का वर्णन है जिनसे सोने की खुदायी कर भारत धनी हो गया था। यह पारसी राज्य के पूर्व भाग के भारतीय क्षेत्रों में था। यह मरुभूमि क्षेत्र था जहां की बालू में सोना था। बाद में मेगास्थनीज की इण्डिका (३०० ईपू) में इस पर २ अध्याय हैं, जो अन्य ग्रीक लेखकों के उद्धरणों से संकलित हैं (मूल पुस्तक नष्ट हो गयी थी)।
हेरोडोटस की पुस्तक के विषय में फ्रेञ्च लेखक मिचेल पिसेल (Michel Peissel, १९३७-२०११) ने अनुमान किया कि वह गिलगिट बाल्टिस्तान (पाक अधिकृत कश्मीर) के हिमालय की गिलहरी (Himalayan marmot) को सोने की खुदाई करने वाली चींटी समझ लिया था (The Ants' Gold)। फारसी में मरमोट का अर्थ पहाड़ी चींटी होता है।
पर हेरोडोटस ने बालू के कणों से सोना निकालने के विषय में लिखा है तथा अनुमान लगाया कि वह मरुभूमि में होगा। मेगास्थनीज ने भी अनुमान तथा किंवदन्तियों के आधार पर ही लिखा है। उसने न सोने की खान देखी, न इस विषय में कोई पुस्तक पढ़ी।
२. इण्डिका-
मेगास्थनीज ने अन्य कई असम्भव बातें लिखी हैं जिनको भारतीय दास लेखक प्रामाणिक इतिहास मानते हैं-
(१) पाण्ड्य लड़कियां ६ वर्ष की आयु में बच्चे पैदा करती हैं,
(२) भारत में एक आंख वाले मनुष्यों की जाति है,
(३) भारत में ७ वर्ण हैं,
(४) पलिबोथ्रि यमुना के किनारे है जिसे भारतीय लेखकों ने गंगा किनारे का पाटलिपुत्र बना दिया है।
३. कुछ भारतीय उद्धरण-
भारतीय शास्त्रों के उद्धरण से कुछ ठीक बातें लिखी हैं जिनको कोई अंग्रेज भक्त लेखक नहीं मानना चाहता है-
(१) भारत सभी चीजों में आत्मनिर्भर थ अतः भारतीय लेखकों ने किसी देश पर १५,००० वर्षों में आक्रमण नहीं किया। यह १८८७ संस्करण में था। इसकी नकल कर इसमें एक शून्य हटा कर मैक्समूलर ने १५०० ईपू. में वैदिक सभ्यता का आरम्भ घोषित कर दिया। इस जालसाजी के समर्थन में अब तक साहित्य लिखा जा रहा है। इसके बाद इस उद्धरण को हटाने के लिए पटना कॉलेज के प्राचार्य मैक्रिण्डल ने १९२७ में नया संस्करण निकाला जिसमें लिखा गया कि भारतीय डर के कारण कभी आक्रमण नहीं करते थे और इसके बाद गान्धी के नेतृत्व में यह राष्ट्रीय नीति बन गयी।
(२) भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां बाहर से कोई नहीं आया है। इसे पलटने के लिए हण्टर ने सिन्ध में खुदायी करवायी जिससे यह घोषित करना था कि आर्य बाहर से आये तथा सिन्ध उनका भारत में पहला स्थान था। निष्कर्ष पहले ही तय था। खुदाई दिखावा था। परीक्षित की तक्षक नाग द्वारा हत्या के उत्तर में उनके पुत्र जनमेजय ने ३०१४ ईपू, में उनके २ नगर ध्वस्त कर दिये जिनके नाम हुए मोइन जो दरो (मुर्दों का स्थान) तथा हड़प्पा (हड्डियों का ढेर)। इस सम्बन्ध में तिथि सहित जनमेजय के ५ दानपत्र १९०० ई. में मैसूर ऐण्टीकुअरी में प्रकाशित हुए थे। यह १७०० में गुरु गोविन्द सिंह निर्मित राम मन्दिर की दीवाल पर भी लिखा था।
(३) सिकन्दर से भारतीय गणना के अनुसार ६४५१ वर्ष ३ मास पूर्व बाक्कस का आक्रमण हुआ था। यह केवल भारतीय गणना ही हो सकती है क्योंकि अन्य किसी देश में इतना पुराना कैलेण्डर नहीं था। इस अवधि में २ बार गणतन्त्र हुए-एक बार १२० वर्ष का तथा दूसरी बार ३०० वर्ष का। इस अवधि में भारतीय राजओं की १५४ पीढ़ियों ने शासन किया।
४. भारतीय लेख-
भारतीय पुराणों के अनुसार सूर्यवंश का राजा बाहु यवन आक्रमण में मारा गया था, जिसमें भारत के हैहय और तालजंघ राजाओं ने आक्रमणकारियों की सहायता की। उसके बाद बाक्कस ने देवनिकाय पर्वत (वर्तमान सुलेमान पर्वत) क्षेत्र में १५ वर्ष राज्य किया। उसने यव की मदिरा का प्रचलन किया जिसे बाक्कस मद्य (Whisky) कहते थे।
वाग्भट का अष्टाङ्ग सङ्ग्रह (सूत्र स्थान ६/११६)-जगल पाचनो ग्राही रूक्षस्तद्वच मेदक। बक्कसो हृतसारत्वाद्विष्टम्भी दोषकोपन॥
इसके बाद राजा बाहु के पुत्र सगर ने और्व ऋषि की सहायता और शिक्षा से यवनों तथा अन्य आक्रमणकारियों को भगाया। यवनों का सिर मुंडाया, अरब से भगा कर ग्रीस भेज दिया। हेरोडोटस ने भी लिखा है कि यवनों के वहां जाने के बाद ग्रीस का नाम इयोनिया (यूनान) हो गया। उनके मूल स्थान अरब की चिकित्सा पद्धति को आज भी यूनानी कहते है। पह्लवों को श्मश्रुधारी बनवाया जो आजकल बकरदाढ़ी के नाम से सम्मानित है।
विष्णु पुराण(३/३)- ततो वृकस्य बाहुर्यो ऽसौ हैहय तालजङ्घादिभिः पराजितो ऽन्तर्वत्न्या महिष्या सह वनं प्रविवेश॥२६॥ तस्यौर्वो जातकर्मादि क्रिया निष्पाद्य सगर इति नाम चकार॥३६॥ पितृ राज्यापहरणादमर्षितो हैहय तालजङ्घादि वधाय प्रतिज्ञामकरोत्॥४०॥ प्रायशश्च हैहयास्तालजङ्घाञ्जघान॥४१॥ शक यवन काम्बोज पारद पह्लवाः हन्यमानाः तत् कुलगुरुं वसिष्ठं शरणं जग्मुः॥४२॥ यवनान् मुण्डित शिरसो ऽर्द्ध मुण्डिताञ्छकान् प्रलम्ब केशान् पारदान् पह्लवाञ् श्मश्रुधरान् निस्स्वाध्याय वषट्कारानेतानन्यांश्च क्षत्रियांश्चकार॥४७॥
राजा बाहु से सिकन्दर समय के गुप्तवंशी राजा चन्द्रगुप्त प्रथम तक १५४ भारतीय राजा होते हैं-महाभारत तक सूर्यवंश गणना, उसके बाद मगध राजाओं की गणना।
५. परशुराम के गणतन्त्र-
परशुराम ने विदेशियों के सहयोगी हैहय राज्य को नष्ट किया जिसमें कामधेनु से उत्पन्न जातियों ने उनका सहयोग किया।यहां कामधेनु का अर्थ ब्रह्मपुत्र से ईराक तक का मैदानी भाग है जो अन्न का उत्पादन करता था। गीता (३/१०-१६) में कृषि को ही मुख्य यज्ञ कहा है जिससे मानव सभ्यता चल रही है। वहां पर तथा विश्वरूप वर्णन (गीता, १०/२८) में कामधेनु को कामधुक् अर्थात् इच्छित उत्पादन करने वाला कहा है।
कामधेनु से उत्पन्न जातियां-(१) पह्लव-पारस, काञ्ची के पल्लव। पल्लव का अर्थ पत्ता है। व्यायाम करने से पत्ते के रेशों की तरह मांसपेशी दीखती है। अतः पह्लव का अर्थ मल्ल (पहलवान) है। (२) कम्बुज हुंकार से उत्पन्न हुए। कम्बुज के २ अर्थ हैं। कम्बु = शंख से कम्बुज या कम्बोडिया। कामभोज = स्वेच्छाचारी से पारस के पश्चिमोत्तर भाग के निवासी। (३) शक-मध्य एशिया तथा पूर्व यूरोप की बिखरी जातियां, कामधेनु के सकृद् भाग से (सकृद् = १ बार उत्पन्न), (४) यवन-योनि भाग से -कुर्द के दक्षिण अरब के। (५) शक-यवन के मिश्रण, (६) बर्बर-असभ्य, ब्रह्माण्ड पुराण (१/२//१६/४९) इसे भारत ने पश्चिमोत्तर में कहता है। मत्स्य पुराण (१२१/४५) भी इसे उधर की चक्षु (आमू दरिया-Oxus) किनारे कहता है। (७) लोम से म्लेच्छ, हारीत, किरात (असम के पूर्व, दक्षिण चीन), (८) खुर से खुरद या खुर्द-तुर्की का दक्षिण भाग। (९) पुलिन्द (पश्चिम भारत-मार्कण्डेय पुराण, ५४/४७), मेद, दारुण-सभी मुख से।
ब्रह्मवैवर्त पुराण (३/२४/५९-६४)-
इत्युक्त्वा कामधेनुश्च सुषाव विविधानि च। शस्त्राण्यस्त्राणि सैन्यानि सूर्यतुल्य प्रभाणि च॥५९॥
निर्गताः कपिलावक्त्रा त्रिकोट्यः खड्गधारिणाम्। विनिस्सृता नासिकायाः शूलिनः पञ्चकोटयः॥६०॥
विनिस्सृता लोचनाभ्यां शतकोटि धनुर्द्धराः। कपालान्निस्सृता वीरास्त्रिकोट्यो दण्डधारिणाम्॥६१॥
वक्षस्स्थलान्निस्सृताश्च त्रिकोट्यश्शक्तिधारिणाम्॥ शतकोट्यो गदा हस्ताः पृष्ठदेशाद्विनिर्गताः॥६२॥
विनिस्सृताः पादतलाद्वाद्यभाण्डाः सहस्रशः। जंघादेशान्निस्सृताश्च त्रिकोट्यो राजपुत्रकाः॥६३॥
विनिर्गता गुह्यदेशास्त्रिकोटिम्लेच्छजातयः। दत्त्वासैन्यानि कपिला मुनये चाभयं ददौ॥६४॥
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/२९)-
विमुक्त पाशबन्धा सा सर्वतोऽभिवृता बलैः। हुंहा रवं प्रकुर्वाणा सर्वतो ह्यपतद्रुषा॥१९॥
विषाण खुर पुच्छाग्रैरभिहत्य समन्ततः। राजमन्त्रिबलं सर्वं व्यवद्रावयदर्पिता॥२०॥
विद्राव्य किंकरान्सर्वांस्तरसैव पयस्विनी। पश्यतां सर्वभूतानां गगनं प्रत्यपद्यत॥२१॥
स्कन्द पुराण (६/६६)-अथ सा काल्यमाना च धेनुः कोपसमन्विता॥ जमदग्निं हतं दृष्ट्वा ररम्भ करुणं मुहुः॥५२॥
तस्याः संरम्भमाणाया वक्त्रमार्गेण निर्गताः॥ पुलिन्दा दारुणा मेदाः शतशोऽथ सहस्रशः॥५३॥
परशुराम काल में २१ बार गणतन्त्र हुए जिनको २१ बार क्षत्रियों का विनाश कहा गया है। केवल एक अत्याचारी राजा सहस्रार्जुन का अन्त हुआ था, बाकी सभी राजा और प्रजा परशुराम के मित्र थे। यह प्रजातन्त्र काल १२० वर्ष था जो पुराण गणना के अनुसार है।२१ गणतन्त्रों के लिये २-२ वर्ष युद्ध हुये। आरम्भ में ८ x ४ वर्ष युद्ध तथा ६ x ४ वर्ष परशुराम द्वारा तप हुआ। बीच का कुछ समय समुद्र के भीतर शूर्पारक नगर बसाने में लगा जिसकी लम्बाई नारद पुराण के अनुसार ३० योजन तथा ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार २०० योजन है। रामसेतु का २२ किमी १०० योजन कहा जाता है, तो यह ४४ किमी. होगा। शूर्पारक = सूप। इस आकार की खुदई पत्तन बनाने के लिये या पर्वत का जल से क्षरण रोकने के लिये किया जाता है। इसे अंग्रेजी में शूट (Chute) कहते हैं। अतः कुल मिला कर १२० वर्ष होगा जिसका वर्णन मेगास्थनीज के समय रहा होगा।
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/४६)-विनिघ्नन् क्षत्रियान् सर्वान् संशाम्य पृथिवीतले। महेन्द्राद्रिं ययौ रामस्तपसेधृतमानसः॥२९॥
तस्मिन्नष्टचतुष्कं च यावत् क्षत्र समुद्गमम्। प्रत्येत्य भूयस्तद्धत्यै बद्धदीक्षो धृतव्रतः॥३०॥
क्षत्रक्षेत्रेषु भूयश्च क्षत्रमुत्पादितं द्विजैः। निजघान पुनर्भूमौ राज्ञः शतसहस्रशः॥३१॥
वर्षद्वयेन भूयोऽपि कृत्वा निःक्षत्रियां महीम्। षटचतुष्टयवर्षान्तं तपस्तेपे पुनश्च सः॥३२॥
अलं रामेण राजेन्द्र स्मरतां निधनं पितुः। त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी तेन निःक्षत्र्या कृता॥३४॥
शूर्पारक नगर की पुरानी ३० किलोमीटर लम्बी दीवाल समुद्र में मंगलोर तट के पास मिली है जिसका समय ८००० वर्ष पुराना अनुमानित है। परशुराम के देहान्त के बाद केरल में ६१७७ ईपू से कलम्ब संवत् (कोल्लम) आरम्भ हुआ जो केरल में चल रहा है। अतः शूर्पारक ८,३०० वर्ष पुराना है। ३० वर्ष की आयु में यदि गणतन्त्र आरम्भ हुए तो परशुराम की आयु ३० १२० = १५० वर्ष से अधिक रही होगी। अतः उनकी दीर्घजीवियों में गणना है। राम समय के परशुराम उस परम्परा के अन्य व्यक्ति थे जैसॆ आजकल शंकराचार्य की परम्परा चल रही है।
६. मालव गण-
असीरिया का भारत पर ८२४ ईपू का आक्रमण मथुरा तक हुआ था। आन्ध्रवंशी राजा पूर्णोत्संग की सहायता के लिए कलिंग के चेदि वंशी राजा खारावेल ने अपनी गज सेना द्वारा उनको पराजित कर भुवनेश्वर में राजसूय यज्ञ किया था। उनके अभिलेख के अनुसार नन्द अभिषेक शक (१६३४ ईपू) के ८०३ (त्रि-वसु-शत) वर्ष बाद उनके राज्य का ४ वर्ष हुआ था जब नन्द निर्मित प्राची नहर (पनास) की मरम्मत करवाती। डेल्टा क्षेत्र के नहर की मरम्मत ८०० वर्ष बाद हुयी यहैंजीनियरिंग का सबसे बड़ा चमत्कार है। अर्थात्, उनका शासन ८३५ ईपू में आरम्भ हुआ। ११ वर्ष बाद अर्थात् ८२४ ईपू में असुरों को पराजित किया। इस पराजय के बाद असीरिया की रानी सेमिरामी ने उत्तर अफ्रीका तथा मध्य एशिया के सभी देशों की सहायता से ३६ लाख की सेना एकत्र की। तब भी उनको भारतीय हाथियों से डर था। अतः २ लाख ऊंटों को हाथी जैसी नकली सूंड लगायी गयी। इसका प्रतिकार करने के लिए विष्णु अवतार बुद्ध (मगध में अजिन ब्राह्मन के पुत्र) ने अर्बुद पर्वत पर ४ राजाओं का संघ बनाया, जिनको देशरक्षा में अग्रणी होने के कारण अग्निवंशी कहा गया-प्रमर (परमार, पंवार), शुक्ल (चालुक्य, सोलंकी, सालुंखे), प्रतिहार (परिहार), चाहमान (चपहानि, चौहान)।
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व (१/६)-
एतस्मिन्नेवकाले तु कान्यकुब्जो द्विजोत्तमः। अर्बुदं शिखरं प्राप्य ब्रह्महोममथाकरोत्॥४५॥
वेदमन्त्रप्रभावाच्च जाताश्चत्वारि क्षत्रियाः। प्रमरस्सामवेदी च चपहानिर्यजुर्विदः॥४६॥
इस संघ के अध्यक्ष मालवा राजा इन्द्राणी गुप्त थे जिनको ४ राज्यों का प्रधान सेवक होने के कारण सम्मान से शूद्रक कहा गया। शूद्रक शक ७५६ ईपू में आरम्भ हुआ-
बाणाब्धि-गुण-दस्रोना (२३४५ कम) शूद्रकाब्दाः कलेर्गताः (यल्ल का ज्योतिष दर्पण)-अर्थात् ३१०२ ईपू के कलि संवत् के २३४५ वर्ष बाद।
इस संघ के चापवंशी (चाहमान) राजा ने असीरिया की राजधानी निनेवे को ६१२ ईपू में पूरी तरह ध्वस्त कर दिया जिसका बाइबिल में ५ स्थानों पर उल्लेख है। सम्भवत्ः इसी से कहावत निकली-ईंट से ईंट बजा देना। वराहमिहिर ने इसी शक का प्रयोग किया है तथा उनके समकालीन जिष्णुगुप्त के पुत्र ब्रह्मगुप्त ने इसे चाप-शक कहा है। वराहमिहिर की बृहत् संहिता (१३/३)-
आसन् मघासु मुनयः शासति पृथ्वीं युधिष्ठिरे नृपतौ। षड्-द्विक-पञ्च-द्वि (२५२६) युतः शककालस्तस्य राज्ञस्य॥
= पृथ्वी पर जब युधिष्ठिर का शासन था तब सप्तर्षि मघा नक्षत्रमें थे। उनका शक जानने के लिये वर्त्तमान शक में २५२६ जोड़ना होगा।
ब्रह्मगुप्त का ब्राह्म-स्फुट सिद्धान्त (२४/७-८)
श्रीचापवंशतिलके श्रीव्याघ्रमुखे नृपे शकनृपाणाम्। पञ्चाशत् संयुक्तैर्वर्षशतैः पञ्चभिरतीतैः॥
ब्राह्मः स्फुटसिद्धान्तः सज्जनगणितज्ञगोलवित् प्रीत्यै। त्रिंशद्वर्षेन कृतो जिष्णुसुतब्रह्मगुप्तेन॥
बाद में मालव गण में फूट पड़ने के कारण पश्चिम सीमा पर शक आक्रमण होने लगे तो श्रीहर्ष ने ४५६ ईपू में अपना शक चलाया (अल बिरूनी का भारत वर्णन, अध्याय ४९)
अतः मालव गण शूद्रक शक (७५६ ईपू) से श्रीहर्ष शक (४५६ ईपू) तक ३०० वर्ष चला। उज्जैन शून्य देशान्तर पर होने के कारण वहां के राजा नया कैलेण्डर आरम्भ करते थे। मालव गण द्वारा असीरिया के ध्वस्त होने के कारण भारतीय विजय को अंग्रेज स्वीकार नहीं कर सकते थे। अतः कालगणना और भारत विजय को अस्वीकार करने के लिए पूरे मालव गण को तथा विक्रमादित्य को भी काल्पनिक कह दिया जिनका संवत् अभी तक चल रहा है। असली शासकों का राष्ट्रीय शक ही नहीं चल रहा है क्योंकि वह अंग्रेज भक्त वामपन्थी ज्ञान के आधार पर है।
७. चींटीयों से सोने की खुदाई-
बालू से भी सोना निकलता था, किन्तु हेरोडोटस के अनुसार मरुभूमि के बालू से नहीं, बल्कि नदी के बालू से। इस कारण उस नदी को स्वर्णरेखा नदी कहते हैं। बालू से सोने का कण खोजना वैसा ही है जैसा चींटियों द्वारा बालू में चीनी का कण खोजना। अतः उन लोगों को झारखण्ड में कण्डूलना कहा गया जिसका अर्थ चींटी होता है। कण्डूयन का अर्थ खुजलाना है, चींटी शरीर पर चढ़ने से खुजली होती है, अतः इस उपाधि का अर्थ चींटी हुआ। सोने की सफाई तथा उसे पिण्ड में बदलने वालों को ओराम कहते हैं जो सोने का ग्रीक नाम (Aurum) है। झारखण्ड में ग्रीक नाम की उपाधियां होने का कारण है कि उत्तर अफ्रीका से ये लोग समुद्र मन्थन (खनिज निष्कासन) में सहायता के लिए मजदूर बन कर आये थे। बाद में सगर ने उसी भाषा क्षेत्र के यवनों को ग्रीस भगाया, अतः झारखण्ड जातियों के नाम ग्रीक शब्दों के आधार पर हैं। इनका गठन भी अफ्रीका से स्पष्ट रूप से मिलता है जैसा बाद में अफ्रीकी सिद्दी पश्चिम तट पर आये। पर बाहरी लोगों को मूल निवासी तथा मूल निवासियों को विदेशी घोषित करने के लिए अंग्रेजों द्वारा पूरी जालसाजी की गयी। मानसिक दासता के कारण भारत के लेखक स्वतन्त्र चिन्तन में असमर्थ हो गये हैं।