अवधूत संत काशी बाबा 6
6.जीवनानंद पद
श्री श्री 108 संत श्री काशी नाथ(काशी बाबा) महाराज-
बेहट ग्वालियर(म.प्र.)
काव्य संकलन
समर्पण-
जीवन को नवीन राह देने वाले,
सुधी मार्ग दर्शक एवं ज्ञानी जनों,
के कर कमलों में सादर समर्पित।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
डबरा
चिंतन का आईना-
जब-जब मानव धरती पर,अनचाही अव्यवस्थाओं ने अपने पैर पसारे-तब-तब अज्ञात शक्तियों द्वारा उन सभी का निवारण करने संत रुप में अवतरण हुआ है। संतों का जीवन परमार्थ के लिए ही होता है। कहा भी जाता है-संत-विटप-सरिता-गिरि-धरनी,परहित हेतु,इन्हुं की करनी। ऐसे ही महान संत अवधूत श्री काशी नाथ महाराज का अवतरण ग्वालियर जिले की धरती(बेहट) में हुआ,जिन्होंने अपने जीवन को तपमय बनाकर,संसार के जन जीवन के कष्टों का,अपनी सतत तप साधना द्वारा निवारण किया गया। हर प्राणी के प्राणों के आराध्य बनें। आश्रम की तपों भूमि तथा पर्यावरण मानव कष्टों को हरने का मुख्य स्थान रहा है। संकट के समय में जिन्होनें भी उन्हें पुकारा,अविलम्ब उनके साहारे बने। ऐसे ही अवधूत संत श्री काशी नाथ महाराज के जीवन चरित का यह काव्य संकलन आपकी चिंतन अवनी को सरसाने सादर प्रस्तुत हैं। वेदराम प्रजापति मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा ग्वालियर
मो.9981284867
आओ,मिलकर के सभी,गुरूदेव का वंदन करैं।
दिव्य-जीवन-ज्योति जगमग,से तिमिर मन के हरै।।
दिव्य ज्योति के उदय उर,अग्यतम मिट जाऐगा।
आत्म-सुख अनुभूति के संग,ब्रह्म दर्शन पाऐगा।
उर अमिट विश्वास ले,युग-पाद अभिनंदन करैं।।1।।
नित करो गुरूदेव संध्या,सब व्यथा मिट जाऐगी।
हृदय-पंकज में विमल-सी,शान्त ही छा जाऐगी।
आत्म सुख-अमृत्व पाने,प्राणपन वंदन करैं।।2।।
सृजक पालक अरू संहारक,विश्व मूलाधार हैं।
नियति-नय सिद्धान्त हैं वे,नाट्य-नट आगार हैं।
जाप-जप,नित-प्रति उन्हीं का,व्यर्थ क्यों क्रदन करै।।3।।
कर सुमन पूजन औ अर्चन,वे अमन-नव द्वार हैं।
सुमिर ले मनमस्त मनसे,भव-बीथियों से पार है।
ध्यान अनुपम और अदभुत,मनमस्त जहाँ निर्झर झरैं।।4।।
2-यूँ ही दिन ढल गया,साँझ होने चली।
पास कुछ भी नहीं,हाथ मलते चली।।
घोर संताप-तापों में,तपती रही।
क्रोध,मद,मोह-मत्सर को जपती रही।
मन की पीड़ा ने,जब-भी,यौं करवट लयीं।
नयन पथ से,अनूठी सी धारा बही।
गाँठ कुछ ना रहा,यूँ ही पल-पल गली।।1।।
श्रेष्ठ नरतन मिला,फिर भी कुछ ना किया।
साधना- की गली का ,न पाया ठीया।
घोर -तृष्णा के बेजोड, जालों कसी।
मूँढता के भॅंवर में, हमेशाँ ,फॅंसी।
घोर अग्यान-अॅंधड ,इसारों पली।।2।।
आई चरणों तेरे,राह दीजे दिखा।
अब तक अंजान थी,जाने क्या है लिखा।
नाम-आधार लेकर,तुम्हें टेरती।
पार कर दो मुझे,बांट-यूं हेरती।
मान-अपमान-अॅंधड,घरौ में पली।।3।।
विन तुम्हारे,ये अॅंधड मिटैंगे नहीं।
तुम-सा दूजा,जहाँ में,न कोई कहीं।
अब तो चरणों का आधार दे दीजिये।
मेरी नइया को,भव पार कर दीजिये।
दाल मनमस्त की तो,कहीं न गली।।4।।
3. धरले गुरूदेव चरणों को, अपने हिए।
पाप मिट जाऐगे,जो भी तुँने किए।।
जाप गुरूदेव का,तूँ किए जा किए।
जिंदगी का सड़ा-वस्त्र,कब तक सिंए।
उनके नामों को,हर क्षण लिए जा लिए।।1।।
वे तो आधार हैं,जग निराधार के।
सच्चे नाविक,उन्हें जान,भव पार के।
उनसे नजदीकी गहरीं,किए जा किए।।2।।
भूलकर के उन्हें,जग में यौंही जिए।
अपने वादों को,तूँने,न पूरे किए।
गुरू के चरणों की सेवा,किए जा किए।।3।।
साथ तेरे न जाए,धरा-धाम भी।
सच्ची दौलत को,तूँ ने यूँ बरबाद की।
अपनी उधड़ी ये,गुदड़ी सिंये जा सिए।।4।।
चेत अवही जरा,काम बन जाऐगा।
नाम उनका जपो,पार हो जाऐगा।
मस्त मनमस्त चरणामृत पिए जा पिए।।5।।
4- जग में,सबसे बड़ा काम,गुरूदेव का।
जग में,सबसे बड़ा नाम,गुरूदेव का।।
नाम सुमिरण किए,दुःख भागें सभी।
नींद गहरी से आतम,ये जागे तभी।
योगी,ऋषि,मुनि जपैं,नाम गुरूदेव का।।1।।
विश्व-विषयों से,मन को हटा ले जरा।
तूँ तो,हो जाऐगा,तप के सोना खरा।
थान,मन में बना,नाम गुरूदेव का।।2।।
राम गुरूदेव है,श्याम गुरूदेव हैं।
ज्ञान-सागर भरे वेद,गुरूदेव हैं।
सुद्ध जीवन,जपो नाम गुरूदेव का।।3।।
प्रेम-प्याले में,गुरू ज्ञान पीते रहो।
अमर हो कें,हमेशां ही जीते रहो।
भजलो,अमृत-पगा,नाम गुरूदेव का।।4।।
5-गुरूदेव सहारा दो मुझको,भवसागर पार उतर जाऊॅं।
तेरा ही सुमरण,वंदन हो,नहीं और किसी के गुण गाऊॅं।।
झाँझरि नौका,पतवार विना,खेवा भी अभी नादान रहा।
लहरो की दिशा का,ठिकाना नहीं,भव-भौंर की ओर,सदाँ ही बहा।
कर्णधार,किनारे लगाना तुम्हे,तज आपको और कहाँ जाऊॅं।।1।।
कितना भटका,भव बीथिन में,यादों का ठिकाना-भी कोई नहीं।
सब साथी मिलें,निज स्वारथ के,सब छोड़ गए,अब कोई नहीं।
बीहड़-पगडंडिन में भटका,विन आपके राह,कहाँ पाऊॅं।।2।।
घनअॅंध,दिशा नहीं दीसे कहूं,गुरू-ज्ञान-प्रकाश की आस खड़ा।
दीनन हितू,दीन दयाल कहे,सब त्याग के,द्वार तुम्हारे पड़ा।
बदनाम तुम्हीं तो होगे प्रभू,सब ओर तुम्हारा हि कहलाऊॅं।।3।।
जो भी,भटका यहाँ,इस दुनियाँ में,भटकों को तुम्हीं ने पार किया।
किस-किस का नाम बताऊॅं तुम्हे,तुमने सबको ही पार किया।
मनमस्त को राहें बता दो प्रभू,पद कंज, सतो रज को पाऊ।।4।।
6-गुरूवर के दर्शन पाने की,हम आस लगा के आए है।
पल-दो-पल का अवसर दे दो,दरबार तुम्हारे आए है।।
जीवन-पथपर,चलते-चलते,सदियाँ ही नहीं,युग बीते हैं।
सत कर्म न कर पाऐ कुछ भी,यौंही-जीवन,बस जीते हैं।
पथ का नहिं अंत मिला अबतक,मन में भारी घबराए हैं।।1।।
तेरा ही पता,हमको गुरूवर,सबने-सब ओर बताया था।
दीनों के दीना नाथ तुम्हीं,गीतों में सबने गाया था।
हम दीन,अधीन दया कर दो,तुम दीन दयालु कहाए है।।2।।
मानव तन पाकर भी मालिक,हम आज तलक नहीं जागे है।
करुणा कर दो,करुणा सागर,हम युगों-युगों के प्यासे है।
जीवन को,जीवन-सा कर दो, इक बूँद की आस लगाए है।।3।।
सबकी झोलीं तुमने भर दीं,आए जो तेरे द्वारे पर।
तुमने ही तारे है गुरूवर,अनगिनते,उनके द्वारे पर।
मनमस्त की नइया पार करो,भव खेवा आप कहाए है।।4।।
7-गुरूदेव,दया इतनी कर दो,दीनों को सहारा मिल जाऐं।
भवसागर-भॅंवर-भयंकर में,नइया को किनारा मिल जाऐ।।
अपना करके,अपना लो मुझे,औरों से सहारा क्यों माँगू।
जब से विछुड़ा,तुम से प्रभुवर,भगता ही रहा,कितना भागूँ।
बर दायक,बरदाता तुमही,बरदान तुम्हारा मिल जाऐ।।1।।
अल्पज्ञ हूँ मैं,सर्वज्ञ प्रभु,अतिदीन हूं,दीन दायलु तुम्हीं।
जो भी आकर,भॅंवरौ भटका,उनकी नइया की, पार तुम्हीं।
मत मंद बना,मनमस्त फिरा,गुरू गयान उजाला मिल जाऐ।।2।।
संसार में आने को मचला,समझाया,मगर मैं माना नहीं।
संसार में आकर के भटका,अबतक तुमको पहिचाना नहीं।
अब तो आया हूँ,शरण प्रभू,दीदार तुम्हारा मिल जाऐ।।3।।
दुर्लभ-सा जीवन भी पाकर,सत कर्म तो कोई कर न सका।
नरतन भी दिया,भव तरने को,द्वारे विशयों के,मैंने तका।
पापों का ठिकाना कोई नहीं,दरबार तुम्हारा मिल जाऐ।।4।।
8-गाते रहना भजन,होके मन में मगन,मिल के भाई।
कितने जीवन बिताकर,मैंने,गुरू की,दया दृष्टि पाई।।
ऐसा शुभदिन,प्रभू ने मिलाया,आज गुरू के चरण पास आया।
आत्मा भी मगन,हॅंस रहा है गगन,चाँद से चाँदनी की मिलाई।।
आज----------------
भेद,वेदों ने जिसका न पाया,नेति-नेति,कहकर ही गाया।
लेखिनी बन रची,सप्त सागर मसि,फिर भी,गरिमा,नहीं लेख पाई।।
आज---------------------
विश्व रचना है गुरू की निशानी,जानो मनमस्त,न नानी कहानी।
गुरू के चरणों पड़ो,भाग्य लेखन गढ़ो,भूलना ना,कभी सत्य साँई।।
आज--------------------
9-मैं जो अज्ञान हूँ,जानता कुछ नहीं,पंथ संसार का,मोह माया सना।
आस पूरी करो,दर्श देदो मुझे,तेरे दीदार का,मैं भिकारी बना।।
देखा तुमको कभी?फेर कहीं ना दिखे,साथ होते हुए,दूर मैं ही रहा।
तुमसे वादे किए,जो ना पूरे किए,साथ होते हुए,दूर मैं ही रहा।
रहस्य जाना नहीं,आज तक भी प्रभू,कौन सा पुण्य मेरा,जो मानव बना।।1।।
ऐसा संसार तेरा,मैं जाना नहीं,जो भी कीना यहाँ,सब खता ही खता।
सत्य जीवन की राहें,तेरे हाथ है,कौन सी राह जाना है,मुझको बता।
घोर अॅंधियार है,रोशनी बस तूँ ही,पाप की पॅंक में तो,गले तक सना।।2।।
पैर जो भी धरे,कुछ भी करने यहाँ,कुछ भी पाया नहीं,बस छला ही छला।
सिर्फ तेरे ही चरणों में जादूगरी,तारने पापियों को,अनूठी कला।
पतित पावन तूँ ही,भक्त वत्सल तूँ ही,फेर मनमस्त काहे को,इतना तना।।3।।
तेरे संसार को,जानता जो अगर,मैं तो भूले औं भटके भी आता नहीं।
पार होने का साधन बताता नहीं,विधाता ही रहा,तूँ विधाता नहीं?
खैर,जो कुछ हुआ,तेरी जो भी रजा,मेरी विगड़ी का मालिक भी,तूँही बना।।4।।
10-त्रिगुण रूप गुरूदेव हमारे,त्रिगुणतीत कहाते है।
इनका सुमिरण कर ले वंदे,वंधन सब कट जाते है।।
मृत्युलोक में जीवन पाया,वेद मार्ग कुछ यूँ कहता।
माता-पिता-गुरू,तीनों का,ऋणी हमेशां जन रहता।
सतगुर, तीनों की ही सेवा,उऋण हेतु बतलाते है।।1।।
मन,वाणी,तन को कस बाँधो,पावनता के बंधन में।
ज्ञान,कर्म,ईश्वर उपासना,क्रिया सूत्र-अनुबंधन में।
पावन-जीवन के मारग का,भेद-वेद दरसाते है।।2।।
अहंकार,मद,मोह आदि रिपु,जीवन मारग बाधक हैं।
इनको त्याग,भक्ति रस पी ले,प्रभु पद मुक्ति साधक है।
उन्नत कर मनमस्त तत्व त्रय,गुरूजन राह बताते हैं।।3।।
11-भरोसे,रह तूँ गुरूवर के,कभी धोखा नहीं होगा।
मिटैं भटकाव जीवन के,हमेशां चैन से सोगा।।
ये जीवन,धूप-छाया सा,कभी सुख हैं,कभी दुःख हैं।
उजालों की तरफ चल दें,अॅंधेरा फिर नहीं,धुप हैं।
गुरू की,जा शरण प्यारे,जीवन शान्तमय होगा।।1।।
कभी सोचा तूँने रहवर,विना गुरू,ग्यान पाऐगे?
जगत माया के ये बंधन,तुझे नहीं बाँध पाँऐगे।
गुरू के ग्यान रंग रंगजा,स्वप्नवत्,जगत ये होगा।।2।।
गले तक,पंक में डूबा,खडा जग के निशाने पर।
मगर चिंता न कर वंदे!,गुरू की शरण जाने पर।
सुखों के गुरू अगम सागर,किनारे बैठ,नहिं रोगा।।3।।
बादे याद तो करले,कर के आया जो,प्यारे।
उनसे विछुड़ जाने पर,कष्ट ही कष्ट हैं सारे।
जरा कुछ सोच ले अब भी,नही यूँ ,बैठ कर रोगा।।4।।
अब भी कुछ नहीं बिगड़ा,वे सब कुछ माँफ कर देगे।
उन्हीं की शरण तो आओ,वे,बेडा पार कर देगे।
समय,मनमस्त नहीं खोओ,जगजा,कब तलक सोगा।।5।।
12-गुरू जी शत-शत वंदन,करैं केहि विधि अभिनंदन।
तुम्ही हो ग्यान के दाता,तुम्हीं पानी औ चंदन।।
वस्तु सब सीमित जग कीं,अपरिमित हो तुम स्वामी।
लघु,ब्रह्माण्ड सभी है,विराटी हो,बडनामी।
विश्व में,कहीं न,कोई,मिले उपनाम के चंदन।।
सभी पुहपों की महकन,तुम्हारीं स्वाँस कहानी।
जगत सब खण्डित गुरूवर,अखण्डित आप रवानी।
तुम्हारा दिव्य कलेवर,तुच्छ सुमनों के नंदन।।
तुम्हीं,महाभोग गुरूजी,फेर-क्या भोग लगाऊॅं।
प्रकट भए वेद तुम्हीं से,ऋचाऐं,कवन सुनाऊॅं।
हृदय पावन गृह ब्राजो,करै मनमस्त ये,वंदन।।
13-गुरूदेव,दया इतनी कर दो,हमको भी,तुम्हारा प्यार मिले।
नहीं चाहत में,कोई चाहत है,केवल दर्शन अधिकार मिले।।
भटका,इस मारग पर चलते,सदियाँ ही नहीं,युग बीते हैं।
कुछ भी तो,रहा नहीं गाँठ मेरे,ये हाथ सदा ही रीते हैं।
दुनियाँ को मिले दुनियाँ,लेकिन-मुझको तेरा दरबार मिले।।
नफरत होती इस जीवन से,कितना-कैसा यह जीवन है।
दर्दो से भरा,तन का पिंजड़ा,हर पोर-पोर में टीभन है।
करूणाकर,करूणा बरसाओं,जीवन-जीवन आधार मिले।।
जिसने तुमसे जो कुछ माँगा,मुँह माँगा देते रहते हो।
पल-दो-पल की नहीं देर करो,उसको अपना कर रहते हो।
मन मंदिर आनि,विराजो प्रभू,मनमस्त को दर्श-बहार मिले।।
14- दर,छोड़कर तुम्हारा,किस दर पै,नाँथ जाँऊ।
सुनता नहीं है कोई,किस-किस को,क्या सुनाऊॅं।।
तुमसे विछुड के प्रभुवर,गुमराह हो रहा हूँ।
मद,मोह दलदलों में,जीवन को ढो रहा हूँ।
पापों का पार नइयाँ,तुमसे भी-क्या छुपाऊॅं।।
चारौ तरफ ही दौड़ा,दुनियाँ का बोझ लादे।
भूला हुआ हूँ सब कुछ,पहले किए जो वादे।
शर्मिन्दगा हूँ इतना,कैसे मैं,मुँह दिखाऊॅं।।
हम हैं अनाथ,मालिक तूँ नाथ है हमारा।
सब कुछ ही छोड़ आया,चरणें का ले सहारा।
बस,कोर हो कृपा की,मनमस्त दर्श पाऊॅं।।
15- दुनियाँ को बनाने बाले हैं,गुरूदेव की महिमा क्या गाऊॅं।
चरणों में समर्पित जीवन हैं,दीदार कहाँ,कैसे-पाऊॅं।।
तुमने तो जहर के प्याले पी,दुनियाँ को नया जीवन दीना।
संसार की रक्षा के कारण,खुद का कण्ठा नीला कीना।
गुरूदेव-नीलकण्ठेश्वर हैं,उनकी भी कहानी क्या गाऊॅं।।
स्नेह की दरिया से लेकर,प्यारों के समन्दर तक जानो।
उनकी तो कहानी है अदभुत,तर्कों को तजो,मन से मानो।
अपनों के लिए,जो हैं अर्पित,उनसा-अब और कहाँ पाऊॅं।।
दुनियाँ के चमन के रखबाले,हकदार वही,सरकार वही।
सब खेल निराला है उनका,इस पार वही,उस पार वही।
मनमस्त चरण रज,पा करके,औरों की शरण,अब क्यों जाऊॅं।।
16- पद
अब क्यौं ,भटकै यूँ मन काम।
यह तन सब तीर्थ और धाम।।
खोलो जरा हृदय के चक्षू,कहाँ भटकता फिरता बच्चू।
अब भटकावों ,क्यौं भटकता,इसमे अलख निरंजन राम।
यह तन------------।।1।।
सपना है संसार हमारा,
खाई,गहवर,पर्वत सारा।
कितना बनता मिटता देखा,
अब भी लौट आओ निज धाम।।2।।
रात दिना तूँ स्वप्न भोगता,
कहाँ- कहाँ, क्या रहा खोजता।
क्यौं जीवन अनमोल गवाँता।
अब भी भज ले प्यारा नाम।।3।।
यह दरबार उन्हीं का प्यारे,
जिनके डर से कालहु हारे।
इनके ही चरणों को पकड़ो।
बन जाएगे सारे काम।।4।।
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7.उपलब्धि-उपसंहार-
चौदह रतन-
1.लक्ष्मी-
अष्ट लक्ष्मी सिंधू प्रकट,आदि लक्ष्मी एक।
दूजी है धन लक्ष्मी,धान्य लक्ष्मी लेख।
धान्य लक्ष्मी लेख,राज लक्ष्मी को जानो।
संतान लक्ष्मी पाए,वीर लक्ष्मी पहिचानो।
विद्या लक्ष्मी जपो,न पाओ कहीं कोई कष्ट।
कर मनमस्त बिचार,विजय लक्ष्मी है भुज अष्ट।।
2.ऐरावत हाथी-
ऐरावत है इन्द्र का,वाहन जान महान।
समुद्र मंथन रतन है,इन्द्र हस्थी ऐही मान।
इन्द्र हस्थी ऐही मान,इन्द्र कुंजर भी जानो।
शुक्ल वर्ण है रुप,चतुर्दंती पहिचानो।
कर मनमस्त बिचार,सुरेश्वर गज वेदों मत।
जो समुद्र से प्रकट,ऐही तो है ऐरावत।।
3.कौस्तुभ मणि-
कौस्तुभ समुद्र मंथन रतन,जो विष्णु के पास।
कांति मान यह मणी है,आपदा करै विनास।
आपदा करै बिनास,स्वर्ण देती है प्रतिदिन।
सूर्य दान,प्रतिमान,कालिया नाँग की दक्षिणा।
कर मनमस्त बिचार,कथा कई एक का सौष्ठव।
मंथन है ऐही रतन,कह जिसको सब कौष्तुभ।।
4.कामधेनू गावा-
समुद्र मंथन से प्रकट,कई गायों का लेख।
कामधेनू के चहुतरफ,घेर खड़ी ज्यों मेख।
घेर खड़ी ज्यों मेख,दई ऋषियों को सारी।
कामधेनू दई-ऋषि,जमदग्नि को न्यारी।
कर मनमस्त बिचार,लेख मिलता है ग्रथन।
कामधेनू भई प्रकट,किया जब समुद्र मंथन।।
5.धनवन्तरि वैद्य-
आयुर्वेद के जनक है,धनवन्तरि भगवान।
सिन्धु प्रकट भय कलश ले,अमृत का,प्रमाण।
अमृत कलश प्रमाण,कार्तिक कृष्णा तेरस।
जहाँ अमृत गया छिटक,कुम्भ मेले का ले रस।
कर मनमस्त बिचार,पियो अमृत यहाँ क्षणक।
धनवन्तरी भए प्रकट,आयुर्वेद के जो जनक।।
6.उच्चै श्रवा-इन्द्र अश्व-
इन्द्र अश्व उच्यी श्रवा,श्वेत वर्ण है रुप।
तीव्र गति है बहुत ही,उड़नी शक्ति अनूप।
उड़नी शक्ति अनूप,इसे यश रुप जानिए।
श्रवण उच्च कर चलें,अमृत पौषणी मानिए।
कर मनमस्त बिचार,यही वाहन है सुरेन्द्र।
मंथन रत्न सुजान,चलें जो ऊँचे चन्दर।।
7.शंख पंचजन्य-
मंथन से जो प्रकट भा,रतन कहे सब लोग।
योद्धा काँपत ध्वनि सुनत,विजय-समृद्धि योग।
विजय समृद्धि योग,कीरती-यश मानो भाई।
पाँच जन्य यह शंख,कृष्ण के हस्थ सुहाई।
कर मनमस्त बिचार,दैत्य करते है क्रदंन।
शंख रतन है यही,मिला जो समुद्र मंथन।।
8.धनुष सारंग-
हरि विष्णु का धनुष यह,रतनों में कर लेख।
सारंग पाणी विष्णु है,यही मिले अभिलेख।
यही मिले अभिलेख,पुराणों में पढ़ लीजे।
सुंदर रंग से रंगा,तही सारंग कह दीजे।
कर मनमस्त बिचार,श्री चरणों में शिर धरि।
जो चाहो कल्याण,भजन कर मन से श्री हरि।।
9.पारिजात-कल्प वृक्ष-
पारिजार सुर वृक्ष है,इन्द्र सदन में देख।
कल्प वृक्ष भी कहत है,समुद्र मंथन लेख।
समुद्र मंथन लेख,देव मिल दनुज निकारा।
संघंर्षण की कथा,देत संघर्षी नारा।
कर मनमस्त बिचार,मनो फल सब दे जात।
जीवन का फल यही,खुदां खुद बन,पारिजात।।
10.सुरा-आशव-
सुरा असुर को अति प्रिय,बारुणी भी कहलाए।
वृक्ष फलों से भी मिलत,महुआ गंध दिलात।
महुअन गंध दिलात,बनाती मन मदहोशी।
पियत इसे भटकात,कई अवगुण कर दोषी।
बनत कभी कफकाल,पिये जन बनते असुरा।
दूर रहो मनमस्त,निकली सागर यह सुरा।।
11.रम्भा देवाँगना-
देवांगना रम्भा रही,विश्व रुपसी जान।
सुरपति के दरबार की,है न्यारी पहिचान।
है न्यारी पहिचान,सुरों में गणना पाती।
सागर से भई प्रकट,देवबाला सी भाती।
कर मनमस्त बिचार,रही सबको अपना बना।
रतनन जाती गिनी,रम्भा रुपसी देवांग्ना।।
12.विष-हलाहल-
सागर रतनों से भरा,करलो जरा बिचार।
प्रकटा जहाँ से हलाहल,जो विष का व्यापार।
जो विष का व्यापार,न जाना इसको कोई।
खोजा तो मिल गया,पिया शिव ने है सोई।
कर मनमस्त बिचार,रा-म के मध्ये ना-गर।
चौदह रतनन गिना,मिला विष,मंथन सागर।।
13.अमृत-
पीता अमृत जो मनुज,सागर प्रकट सुजान।
अमृत वाणी निकसती,पाता सुयश महान।
पाता सुयश महान,मिले शशि में यह सोई।
सत संगति,अरु संत-समागम रहता गोई।
कर मनमस्त बिचार,मृत्यु से बोही जीता।
पाता वह कल्याण,राम रस अमृत पीता।।
14.चन्द्रमा शशि-
अपार सौदंर्यवान है,चन्द्र उदधि का पूत।
सुचि शीतलता का जनक,सकल विश्व भवभूत।
सकल विश्व भवभूत,यही अमृत का भाई।
लक्ष्मी भी है बहन,शंख भी अनुज कहाई।
कर मनमस्त बिचार,चन्द्र मुख पा,हो पार।
सागर दीना रतन,जहाँ सुख शान्ति अपार।।
पाँच संपदा पाईये(दीपावली)-
1.धनतेरस-
धनतेरस धनवन्तरी का,प्रकट दिवस ही मान।
समुद्र मंथन से प्रकट,अमृत कलश प्रमाण।
अमृत कलश प्रमाण,निरोगी इनका है पथ।
स्वस्थ्य हमेशा रहो,यही है इनका दृढ़ मत।
कर मनमस्त बिचार,पूजना इनको तन-मन।
आरोग्य देवता यही,भरोगे झोली नित धन।।
2.नरक चौदस(छोटी दीपावली)-
नरक चतुर्दसी पूजिए,छोटी दिवाली मान।
नरकासुर वध इसी दिन,कृष्ण किया,धर ध्यान।
कृष्ण किया धर ध्यान,रुप संपंदा भी पायो।
मन निर्मल,परोपकार,करो जीवन सुख पाओ।
कर मनमस्त बिचार,पूजिए परंमपरा परक।
भाव भक्ति के साथ,मनाओ चतुर्दशी-नरक।।
3.दीपावली(लक्ष्मी पूजन)-
दीपावली महारात्री है,कार्तिक अमावस जान।
हर द्वारे पर घूमती,लक्ष्मी करि महिमान।
लक्ष्मी कर महिमान,जागरण रात्रि कीजिए।
जो सोया,खोया सभी,जरा ध्यान दीजिए।
कर मनमस्त बिचार,पुरुषारथ के बल चल।
लक्ष्मी होगी प्रसन्न,पूँज मन से दीपावली।।
4.गोवर्धन पूजा(गिरिराज पूजा)-
पावत मन आरोग्यता,गोवर्धन प्रारुप।
कार्तिकमाही प्रतिपदा,शुक्लपक्ष नवरुप।
शुक्लपक्ष नवरुप,संपदायों का है घर।
धान्य लक्ष्मी यही,कृष्ण की पूजा ही कर।
कर मनमस्त बिचार,नये पक्ष का है आवन।
गोवर्धन महाराज,करै जन-जन,मन पावन।।
5.भाई दूज(यम दुत्तिया)-
भाई बहन का यहाँ मिलन,है पुरान आलेख।
यम और यमी का मिलन भी,भाई दोज का लेख।
भाई दोज का लेख,नेह नाते का बंधन।
भाई बहन स्नेह,सुगंधित जैसे चंदन।
कर मनमस्त बिचार,साथ में है रक्षा प्रण।
संबंधों का राज,भाई दोज का पावन मिलन।।
वंदना
जय-जय गुरुदेवम्
जय-जय गुरुदेवं,सब जग सेवं,
अमर जमीरं,तपधारी।
निर्गुण निर्मूलं,बन स्थूलं,
अलख फकीरं,अविकारी।।1।।
हंसन अवतारी,गर्व प्रहारी,
अधम् अघारी,निर्विकारी।
योगी अदृष्टा,त्रिकाल दृष्टा,
हो बडनामी,भयहारी।।2।।
जीवन सुख राशि,काशी बासी,
सब जग के आनंद कारी।
आतम गुण आगर,सब गुण सागर,
सदाँ एक रस,सुविचारी।।3।।
अन्तर्यामी,सब जग नामी,
कैवल्यं पद,करुणा कारी।
ब्रह्माण्ड निकाया,सब जग छाया,
रुप अनूपम्,करतारी।।4।।
किरपा गुरु करदो,सबको वर दो,
जीवन सब मंगलकारी।
मानव तन पाऐ,मनमस्त सुहाऐ,
दर्शन देदो,अवतारी।।5।।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
गायत्री शक्ति पीठ रोड़
गुप्ता पुरा डबरा(ग्वा.)
मो.9981284867
0000000 (इति)