अवधूत संत काशी बाबा 2
श्री श्री 108 संत श्री काशी नाथ(काशी बाबा) महाराज-
बेहट ग्वालियर(म.प्र.)
काव्य संकलन
समर्पण-
जीवन को नवीन राह देने वाले,
सुधी मार्ग दर्शक एवं ज्ञानी जनों,
के कर कमलों में सादर समर्पित।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
डबरा
चिंतन का आईना-
जब-जब मानव धरती पर,अनचाही अव्यवस्थाओं ने अपने पैर पसारे-तब-तब अज्ञात शक्तियों द्वारा उन सभी का निवारण करने संत रुप में अवतरण हुआ है। संतों का जीवन परमार्थ के लिए ही होता है। कहा भी जाता है-संत-विटप-सरिता-गिरि-धरनी,परहित हेतु,इन्हुं की करनी। ऐसे ही महान संत अवधूत श्री काशी नाथ महाराज का अवतरण ग्वालियर जिले की धरती(बेहट) में हुआ,जिन्होंने अपने जीवन को तपमय बनाकर,संसार के जन जीवन के कष्टों का,अपनी सतत तप साधना द्वारा निवारण किया गया। हर प्राणी के प्राणों के आराध्य बनें। आश्रम की तपों भूमि तथा पर्यावरण मानव कष्टों को हरने का मुख्य स्थान रहा है। संकट के समय में जिन्होनें भी उन्हें पुकारा,अविलम्ब उनके साहारे बने। ऐसे ही अवधूत संत श्री काशी नाथ महाराज के जीवन चरित का यह काव्य संकलन आपकी चिंतन अवनी को सरसाने सादर प्रस्तुत हैं। वेदराम प्रजापति मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा ग्वालियर
मो.9981284867
22.श्री एकदंत गणपति-
एकदंत गणपति को जानो।
दीर्घ उदर के इनको मानो।।
सब ब्रम्हाण्ड ऐही उदर समाए।
बाधा हरण,सुखद सुख पाए।।
जड़ता दूर करहि क्षण माही।
दिव्य ज्ञान पावै तब छाई।।
एक-एकता के सुख साजा।
एकदंत रुपक महाराजा।।
विनय सुनों हम सब की स्वामी।
असरण शरण आप हो नामी।।
23.श्री सृष्टि गणपति-
सृष्टि गणपति,सृष्टि विधाता।
अगणित शक्ति,शरण प्रदाता।।
मूषक वाहन,ब्रम्हा समाना।
युग निर्माणक,तुमको माना।।
नित प्रति इन्हें ध्यान में लाओ।
जन्म-जन्म के दुख विसराओ।।
तमिलनाडु-कुम्भ कोंणम राजे।
स्वामी- नाथन, मंदिर ब्राजे।।
सकल शक्ति दायकु तब नामा।
नीर- क्षीर- विवेक, अभिरामा।।
24.श्री उछंड गणपति-
उछंड गणपति पूजन कीजे।
न्याय नीति को गरिमा दीजे।।
द्वादश हस्थ शक्ति पहिचानों।
उग्र- रुप की महिमा मानो।।
मोह भंग नारायण रुपा।
बंधन मुक्त करै,जग भूपा।।
चमा राज नंजन गुण ब्राजे।
उछंड गणपति नामित राजे।।
मोह,मान,मद सकल भगाओ।
बत्तीस रुप नाम गुण गाओ।।
दोहा-अधिष्ठाता कई मंत्र के,भक्ति शक्ति आधार।
नित गणपति के नाम जप,निश्चय बेड़ा पार।।
25.श्री ऋणमोचन गणपति-
ऋणमोचन गणपति को जानो।
मुक्त करै अपराध,सु- मानो।।
चार भुजा रंग श्वेत सुहावा।
मिष्टोदन निज कर से खावा।।
गुरु-पितु-मात पूज्य बुद्धि दाता।
सभी प्रेरणा सब जन पाता।।
ऋणमोचन तिरुबंतपुर स्वामी।
मुक्तक धाम,अनंत नमामी।।
मिष्ठ भात,मोदक पर राजी।
शक्ति अनंत,साधना साजी।।
26.श्री ढुण्ढि गणपति
ढुण्ढि गणपति रक्त सुवर्णा।
रत्न पात्र लाल रंगी धरना।।
शिव सरुप,रुद्राक्षी माला।
पिता-मात भक्ति वृत पाला।।
जीवन स्वस्थ्य उन्हीं के चरणा।
रिद्धि-बुद्धि संग सदा विचरना।।
जीवन सुखदायक तब रुपा।
मैंटहु नाथ सकल भव कूपा।।
शरण छोड़ कहाँ जावै स्वामी।
स्वच्छ भावना,सतत नमामी।।
27.श्री द्विमुख गणपति-
द्विमुख गणपति चहु दिशि देखे।
शुण्ड उठाय जगत हित लेखे।।
नील,हरित रंग मिश्रण पावो।
चार भुजा धर,जगत सुहावो।।
अंदर- बाहर देखन हारे।
जगत सुदृष्ठा रुप तिहारे।।
सुमुख,सुगणपति सतत नमामी।
आनंद दायकु हो जग स्वामी।।
सकल विश्व के आश्रय दाता।
जयति षडानन सह जग त्राता।।
28. श्री त्रिमुख गणपति-
त्रिमुख गणपति को भज लाला।
षट भुज धारक,रुप विशाला।।
स्वर्ण कमल पर सदा विराजे।
रक्षक, बर मुद्रा में छाजे।।
अमृत कलश एक कर धारे।
भविष्य भूत-वर्तमान सुधारे।।
त्रिमुख गणपति त्रिभुवन राजा।
रिद्धि सिद्धि संग अदभुत साजा।।
जग पालक हो,जगत बिहारी।
केहि बिधि गावहि महिमा तिहारी।।
29.श्री सिंह गणपति-
सिंह गणपति है सिंह सवारी।
सिंह मुखी राजे,सुख सारी।।
अष्ट भुजा संग शुण्ड प्रधाना।
अभय भाव वर मुद्रा बाना।।
निर्भय शक्ति,सुरुपा धारी।
विश्व व्यापक,शक्ति तिहारी।।
सिंह सुआसन राजत स्वामी।
सिंह गणपति नामि,नामी।।
साहस,शौर्य प्रदाता देवा।
केहि विधि करै तुम्हारी सेवा।।
30.श्री योग गणपति-
योगी-योग गणपति जानो।
तंत्रांकित-जापक है बानो।।
योगिक मुद्रा स्वास्थय प्रदाना।
बाल रवि रंग रंजित बाना।।
अंतर शक्ति बुद्धि सुख सारी।
जपो सदा त्रय विश्व बिहारी।।
योगासन नित निरत निहारी।
योग साधना के अधिकारी।।
पाद योग मुद्रा सुखदायी।
उदित बाल रवि प्रतिभा पायी।।
31.श्री दुर्गा गणपति-
है अजेय जग,गौरव छाता।
दुर्गा गणपति शक्ति प्रदाता।।
अंध विनासक रवि पहिचानो।
अदृश्य देवी-दुर्गा जानो।।
लाल बस्त्र,कर धनुष प्रधाना।
सर्व ऊर्जा दायकु बाना।।
दुर्गा रुप धारि जग स्वामी।
दुर्गा गणपति,सतत नमामी।।
दुष्ट दलन हित रुप तुम्हारा।
हस्थ धनुष धारकु बपु न्यारा।
32.श्री संकष्ट हरण गणपति-
संकष्ट हरण गणपति म्हारे।
भय,दुख दूर होय जग सारे।।
कमल,पुष्प कर,शक्ति बिराजे।
बर मुद्रा,अदभुत छवि छाजे।।
बत्तीस रुप ध्यान जो कीजे।
तापर सदा गणपति रीझे।।
संकष्ट हरण गणपति राजा।
जपो अभयकार बपू साजा।।
जग संकट मैंटहु,जग स्वामी।
जयति-जयति जय अंतर्यामी।।
दोहा-चाहो जीवन सुफल जो,धरि गणपति का ध्यान।
सकल मोक्ष दायक प्रभु शरण गहो सुख खानि।।
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2. नाम दान दोहावली
दोहा- परम हंस,काशीभगत,झिलमिल-गंगा तीर।
गुरु मणि माला फेर लो,मिटै सकल भव-पीर।।
परम हंस,विरती अलग-परमहंस पद आन।
परम हंस के गहहु पद,पावौ पद निर्वाण।।
श्री काशी बाबा चरित,जो जन मन-चितलाय।
सकल कामना पूर्ण हो,भव-बाधा मिट जाय।।
हृदय विराजो आनिकर,परमहंस महाराज।
चिंतन में गुणगान तब,ज्ञान दीजियो आज।।
दीन बंधु,करुणा यतन,लीला कीन अनेक।
सो चिंतन करना चहूँ,गुरु चरणों षिर टेक।।
पद विभूति शिर धार कर,ध्यान मध्य तब रुप।
वह अनुभूति- चाहता, देखहुँ -आप सरुप।।
कृपा आपकी के विना,नहिं संभव कछु होय।
बरद हस्थ हो शीश मम्,सब कुछ दर्शे मोय।।
सकल अंग, अंगन सहित,स्वाँस,तंत्र संचार।
रक्षा गुरुवर कीजिए,हैं अधीन सरकार।।
बार-बार पद वंदकर,विनय करहुँ कर जोरि।
सेवक पर कीजे कृपा,चरित पुजै चहुँ ओर।।
गुरु करते किरपा अवश्य,सुनि सेवक की बान।
हृदय बैठ कहते सदाँ,सुन मनमस्त अजान।।
कई जनम की साधना,जप-तप का आधार।
मानव तन तब ही मिले,देखो आँख उघार।।
सब कुछ ही,प्रारव्ध से,खेल-खेलता जीव।
महल सप्त खण्डा तभी,जब हो पक्की नींव।।
जीवन को पावन बना,श्री गुरु ज्ञानाधार।
भटको नहिं भव बीथियाँ,करलो जरा विचार।।
जप-तप व्यर्थ न होत हैं,शरण-चरण गुरु देख।
फिर भटकावा काए का,गुरु चरणों के लेख।।
कुश-कंटक झेले कितै,इन पावन ते पूँछ।
युग बीते भटकत जगत,तब बन पायी पूँछ।।
मात-पिता हैं प्रथम गुरु,भूल नहीं अज्ञान।
जिनके पुण्य प्रताप से,यह तन मिला सुजान।।
फेर गुरु का ध्यान कर,जिससे जग मिट जाए।
गुरु प्रकाश के पुंज हैं,अज्ञ-अंघ छट जाय।।
सतमारग के पारखी,संत हंस पहिचान।
बुद्धि-विवके से जो सदाँ,नीर-क्षीर दे छान।।
ऐसे सतगुरु की शरण,जो जन भूलेहु जाय।
अगमन-निगमन सब मिटैं,फेर न ऐहि जग आय।।
धन्य-धन्य अवनी वही,जहाँ प्रगटैं सत संत।
दुःखों का अवषान हो,बरसे सुख अनंत।।
अति पुनीत बह कौंख है,जहाँ संतका बास।
गोदी पावन होत है,दम्पति पांय प्रकाश।।
गंगा देवी मातु भयीं,पिता रामप्रसाद।
उदर बीच नित ही बजी,अनहद की मृदुनाँद।।
आँगन की अॅंगनाई में,सुख के खिल गए फूल।
अंगराग-सी सोहती,पद-पदमों की धूल।।
ऐसे संत अनंत भए,काशी बाबा नेक।
निज करनी कर्तव्य की,गाढ़ी धरनी मेख।।
श्री बाबा का ध्यान हो,नित्य नियम के साथ।
संध्या वंदन हो उभय,लक्ष्य आय सब हाथ।।
मृदुभाषी,मनहर छवि,नीति रीति पहिचान।
मात-पिता सेवा करी,गुरु चरणों का ध्यान।।
तपोभूमि गालब भुयीं,जिला ग्वालियर जान।
सिद्धेश्वर गुरु बेहट में,मध्य प्रांत पहिचान।।
दक्ष प्रजापति वंश में,जन्मे संत विशेष।
काशी बाबा नाम से,जानें सारा देश।।
चैत्र कृष्ण पंचम तिथि,मंगल मंगल बार।
सन पन्द्रह सौ पाँच में,प्रकटे क्षेत्र मुरार।।
वासंती मनुहार ले,भई धरा गुल्जार।
जंगल में मंगल भए,मनहु प्रकृति उपहार।।
मात-पिता की गोद में,पाया बचपन प्यार।
हर प्रेरित हो नियति संग,नाच रहा संसार।।
भए व्यस्क तब पिता ने,सुरपुर कीना बास।
माता ने जीवन जिया,कर हर पर विष्वास।।
सीधे सरल स्वभाव से,सबका पाते प्यार।
दोनौं कर को जोड़कर,सबको करैं जुहार।।
संत भाव की झलक थी,पढ़े न ऐकऊ आँक।
हृद अन्दर में बजत थी,अनहद की मृदु ढ़ाँक।।
वे अनन्त नामी प्रभू,है अनंत विस्तार।
दर्षन पाएँगे अवश्य,हैं अनंत आधार।।
सिद्धेष्वर की तलहटी,झिलमिल पावन गंग।
प्रारव्धी कर्तव्य संग,मिला संत सत्संग।।
तानसेन की तान का,खूब लिया आनन्द।
सिद्ध गुरु की गोद में,सदाँ बजायी चंग।।
होनहार होती सदाँ,बन गए साधू वेश।
माँ से आर्शीवाद ले,घूमे सारा देश।।
गुरु आज्ञा शिर धारकर,तप से तपा शरीर।
हठयोगों की साधना,कर बन पाए पीर।।
हिम पर्वत झाडी अगम,खाई,नदी,कछार।
वियावान जंगल विषम,मिला प्रकृति उपहार।।
मिले अनेकों पंथ के,संत-हंस मति धीर।
बुद्धि-विवेकी,सूरमा,हठयोगी गम्भीर।।
ऐसे सत-संता मिले,चाटी पद तल धूल।
जीवन के भटकाव जहाँ,कभी न जाते भूल।।
ज्ञान ध्यान आराधना,के पाए बहु मंत्र।
योग क्रियाओं के अगम,मिले अनूठे तंत्र।।
जीवन की परवाह नहिं,नहिं मृत्यु का नाम।
योग साधना से सजा,जहाँ अनूठा धाम।।
कलि कल्मश मैटन प्रभू,प्रकट भए है आप।
जन जीवन उद्धार के,आप बने हैं छाप।।
उत्तर से पूर्व गए,दक्षिण-पश्चिम देख।
भाग्य विधाता जहाँ लिखे,अदभुत-अनुपम लेख।।
अगम ज्ञान भण्डार है,भारत का भू-भाग।
जड़-जंगम जहाँ गा रहे,सप्त स्वरों में राग।।
हर मौसम आता यहाँ,लिए अनूठे रंग।
धरती को पावन करैं,नद नदि यमुना-गंग।।
गुरु की आज्ञा मानकर,घूमे चारौ धाम।
संतो के सत संग से,रमे बह्म के नाम।।
वेद भेद पाऐ नहीं,शास्त्रन पंथ अनेक।
अगम पुराणों की कथा,समुझत,पाए विवेक।।
आध्यात्मिक के पंथ में,मिला बहुत आनंद।
अकथ कहानी है यही,जहाँ न कोई फंद।।
योगी गोरखनाथ जी,अरु मत्सयेन्द्र से जान।
सबकी किरपा दृष्टि से,पाया पद निर्वाण।।
साधक अन्तर्मुखी हो,करै बहिर्मुख त्याग।
इस क्रिया से सहज ही,कुण्डलिनी हो जाग।।
क्रिया भेद से बहुत हैं,कुण्डलिनी के नाम।
कुण्डलि,कुटिलांगी,शक्ति,गौरी,राधा,श्याम।।
गुरु दीक्षा की विधि है,दृष्टिपात,स्पर्श।
वाणी के आधार संग,संकल्पी उत्कर्ष।।
पाँच वृत्तियाँ योग की,जान-प्रमाण,विपर्य।
निद्रा,विकल्प,योग में,है पंचम स्मृत्य।।
योग साधना में लगा,अपना चित्त अनंत।
करै निरोधन वृत्ति का,वहीं योग का संत।।
काशी बाबा तप तपा,हठयोगों का पंथ।
आसन मुद्राऐं सभी,करते रहे अनंत।।
स्वास्तिकाशन है सरल,सुख आसन में बैठ।
सिद्धासन कुछ कठिन है,कंठ-कूप-हनु ऐंठ।।
पद्मासन हैं विविध विधि,करो सरल सी जान।
कृपा-दृष्टि गुरु की रहे,कभी न होगी हानी।।
भद्रासन,सिंहासन,बज्रासन,वीरास।
गोमुख,धनु,शव,गुप्तभी,मत्स्य,मयूरी खास।।
मुद्राऐं कीनी कई,महामुद्रा के साथ।
नभों उडडीयन,जलंधर,मूल बंध को साध।।
जिसने जहाँ सुमिरा तुम्हें,रक्षा करी हमेश।
आप अनंती वेश धर,मैंटे जन-जन क्लेश।।
महावेध,महावंध भी,खेचर योनी जान।
शक्ति चालनी,तड़ागी,बज्रोली पहिचान।।
शाम्भवी,अरु माण्डुकी,पार्थवी,आग्नेयी।
वायवीय अरु आम्मकी,पाशना आकाशीय।।
आष्वनी,काकी सहित,कीनी गुरु के पास।
जहाँ मिटते आवागमन,है पूरा विश्वास।।
प्राणायाम की साध में,कुम्भक किए अनेक।
सूर्य-भेद,उज्जाययी,शीत्कारी,शीत्लेक।।
मूर्छा कुम्मक,भ्रामरी,भरित्रका को भी जान।
और प्लावनी के करत,तैरत नाव समान।।
अष्ट सिद्धियाँ भी लहीं,अणिम,महिम,प्राप्तित्व।
लघिमा,गरिमा,प्राकाम्य संग,वसित और ईशत्व।।
अन्य अनेकों भाँति के,योगो खेले खेल।
आपन शंकल्प शक्ति से,करके सबसे मेल।।
गुरु शरण रमते रहे,गुरु आज्ञा शिर धार।
दुखियों के संकट हरे,श्री गुरु चरणाधार।।
संतो के सत्संग में,खिचीं खंजरी तान।
भंग और गाँजा-चिलम,संग पाऐ सब ज्ञान।।
गाते रहे अभंग नित,पद,कविरा के गान।
तुलसी वचनामृत सुखद,रैदासी अभियान।।
बजत मृदंगी संग में,सारंगी की टेर।
क्षण-क्षण पर मिटते दिखे,पापों के सब ढेर।।
दूर रहा संसार का,मायाजाली जाल।
अगर भूल,आया कभी,खींची उसकी खाल।।
इसी तरह शत वर्ष तक,काटे भव के जाल।
जीवन मुक्तक हो रहे,बने काल के काल।।
जीवन मुक्ति चाह तो,कर कुण्डलिनी योग।
नाँद विन्दु आधार पर,मिटते जीवन रोग।।
सब तीर्थ का तीर्थ यह,प्राणायाम विशेष।
जीवन-मुक्त लाभ सब,इससे पाओ हमेशा।।
योग क्रिया की साधना,है खाँड़े की धार।
गुरु शरण में करैं से,मिटते सकल विकार।।
गुरु कृपा पा, संत ने,बज्रोली ली ठान।
ऊद्र्ववरेता होकर किया,इसका ही अनुष्ठान।।
दूध,तेल,घृत खींचते,लिंग इंद्रिय द्वार।
पारा से अंतिम क्रिया,फिर त्यागे ओहि द्वार।।
इन्द्रिय में यदि रुक गयों,पाराकण कुछ एक।
कुष्ठ रोग के साथ में,उपजैं व्याधि अनेक।।
जड़ी-बूटियाँ बहुत लीं,रासायन के तत्व।
कई भस्म भी खा गए,स्वर्ण कणों के सत्व।।
बज्रोली की साध में,या औसधि-रस-राज।
चर्म रोग जिससे भया,या तप-तापन-साज।।
औषधि लीं,रस भी पिऐ,नहीं रोग का अंत।
गुरु कृपा को मान सब,नहिं त्यागा निज पंथ।।
अडिग साधना-साध में,रहे अंगद-पद रोप।
हॅंसते जीवन पथ जिया,कभी न कीना शोक।।
तप-तापन,तप गयी मही,प्रकृति लिखे सब लेख।
मृग-शावक संग सिंह के,भरत कुलाचैं नेक।।
बैर भाव सबनैं तजे,प्रेम पगे सब जीव।
तरु बैलें मिल इक भयीं,तप की गहरी नींव।।
हो प्रसन्न तब सिद्धगुरु,काशी के ढ़िग आन।
गोदी लेकर के कहत,तपसी हुआ महान।।
तेरे तप से यह धरा,आज बनी गो-धाम।
धन्य-धन्य काशी तुझे,तेरा सुयश ललाम।।
परम सिद्ध तुम हो गए ,जगहित कीजो काज।
आशिष-अर्पित तुम्ही को,सकल सिद्धि-सुख-साज।।
पूजन तेरा होयेगा,जैसे सूरज-चाँद।
गूँजेगी संसार में,ब्रह्मनाँद की नाँद।।
समाधिस्थ होना तुझे,झिलमिल पावन तीर।
जन-जन के संकट हरो,करो सबै वे-पीर।।
ब्रह्मनाँद को साध कर,बैठ नाँद के बीच।
गढी गूँजना के निकट,तप की धुरी-दधीच।।
वर्ष पाँच सौ बीत गए,ध्वजा रही फहराय।
पूरी करत मुराद सब,रंक होय या राय।।
जीवाजी महाराज ने,पा-यहाँ से उत्कर्ष।
मेला लगवाया यहाँ,बीते दो-सौ बर्ष।।
रंग पंचमी रंग रस,पीते अमिय समान।
सकल कामना पूर्ण का,है बाबा स्थान।।
भरतीं सबकी झोलियाँ,और ओलियन लाल।
बरस रहा है चहूँ दिसि,बाबा चरित कमाल।।
मंदिर बना विशाल है,परिकोटा चहुँ ओर।
कई धर्मशाला बनी,सुख के नाचत मोर।।
सकल आधि-व्याधि मिटैं,झालर शंखी घोर।
बाबा की जय-जय ध्वनि,मैंटत संकट घोर।।
अगर,धूप की धूम में,मिलत सबै आनंद।
बाबा का परसादि पा,हटते जीवन द्वन्द।।
जयकारौं की घोर सुन,नाचत मन के मोर।
यह सच्चा दरबार है,गहो इसी की कोर।।
बाबा की किरपा समुझ,पुण्य कथा का मूल।
श्री हर के अवतार थे,कभी न जाना भूल।।
जीवन के हर मोड़ पर,बन सूरज-राकेश।
बता रहे सद मार्ग को,संतो के संदेश।।
जीवन बीता जा रहा,चार अवस्था बीच।
जाग्रत,स्वप्न,सुषुप्ति,अंत तुरीया सींच।।
मात-पिता गुरु आशिशों,पूर्ण साधना कीन।
सबकी अभिलाषा पुजीं,संत कृपा आधीन।।
संत दरस मिट जात हैं,मन के सभी विकार।
आतम- सुद्धि होत है,कर संतन- दीदार।।
जीवन मारग सुगम कर,जप-तप-सहित विवेक।
चौरासी नहिं,चाख नित -श्री गुरु चरणों रेख।।
मानस जप,नित ध्यान धरि,श्री गुरु चरण प्रसार।
होगा जीवन-मुक्त सच,आओ बाबा के दरबार।।
शब्द-ब्रह्म में लीन हो,योग क्रिया को साधि।
परम मोक्ष को पाऐगा,जहाँ न कोई व्याधि।।
कोई संशय है नहीं,गुरु शरण जो जाय।
कुल की सारी पीढ़ियाँ आत्म मोक्ष पा जाय।।
बोलो जय!गुरुदेव की,काशी संत अनन्त।
धर्म धरा मनमस्त हो,जयति जयति भगवंत।।
पावन तीर्थ बेहट है,झिलमिल पावन गंग।
संत समागम,हरिकथा,ब्राजे जहाँ अनंत।।
भोग प्रसादी,नित्य है,चरणामृत के संग।
कथा वार्ता की क्रिया,बरसहि अमृत रंग।।
धूनी रमते संत नित,नित अभंग के राग।
ज्ञानामृत बरसहिं तहाँ,जो सुनते बडभाग।।
पा भवूति पाते विभव,भव बंधन से दूर।
यह बाबा दरवार है,कर दर्शन भरपूर।।
जीवन को कर सार्थक,कर बाबा का जाप।
ध्यान-साधना करैं से,मिल जाते हैं आप।।
संकल्पी जीवन बना,दृढ़ संकल्पों साथ।
जीवन मुक्ति पाऐगा,धरि गुरु चरणों माथ।।
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